अज्ञानवश हुए पापों के शान्ति हेतु और भगवति जगदम्बिका के आशीर्वाद प्राप्ति हेतु

अज्ञानवश हुए पापों के शान्ति हेतु और भगवति जगदम्बिका के आशीर्वाद प्राप्ति हेतु

आद्य शंकराचार्य  द्वारा विरचित भगवती दुर्गा को समर्पित यह स्तोत्र है । इस स्तोत्र में बारह श्लोक हैं जिनमें भगवती दुर्गा की स्तुति की गयी है । जैसा की नाम से ही स्पष्ट हो जाता है की इस स्तोत्र में भगवती दुर्गा से अपराध क्षमा हेतु प्रार्थना की गयी है । अज्ञानतावश मनुष्य कुछ ऐसे भी अपराध कर देता है जिनका फल बहुत कष्टमय होता है । तो ऐसे अपराधों से मुक्ति प्राप्त करने हेतु माता दुर्गा की यह स्तुति की जाती है । नित्यप्रति जो साधक इस स्तोत्र का प्रातः या सांय पाठ करता है उसके सभी अज्ञानतावश हुए पापों का शमन होता है तथा भगवती का सायुज्य प्राप्त होता है ।

न मन्त्रं नो यन्त्रं तदपि च न जाने स्तुतिमहो 
                     न चाह्वानं ध्यानं तदपि च न जाने स्तुतिकथाः।
न जाने मुद्रास्ते तदपि च न जाने विलपनं 
                      परं जाने  मातस्त्त्वदनुसरणं क्लेशहरणम् ।।१।।

हे मातः ! मैं तुम्हारा मन्त्र, यन्त्र, स्तुति, आवाहन, ध्यान, स्तुतिकथा, मुद्रा तथा विलाप कुछ भी नहीं जानता; परन्तु सब प्रकार के क्लेशों को दूर करने वाला आपका अनुसरण करना (पीछे चलना) ही जानता हूँ।

विधेरज्ञानेन द्रविणविरहेणालसतया
                विधेयाशक्यत्वात्तव चरणयोर्या च्युतिरभूत्।
तदेतत्क्षन्तव्यं जननि सकलोद्धारिणि शिवे 
                  कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति।।२।।

सबका उद्धार करने वाली हे करुणामयी माता ! तुम्हारी पूजा की विधि न जानने के कारण, धन के अभाव में, आलस्य से और उन विधियों को अच्छी तरह न कर सकने के कारण, तुम्हारे चरणों की सेवा करने में जो भूल हुई हो उसे क्षमा करो, क्योंकि पूत तो कुपूत हो जाता है पर माता कुमाता नहीं होती ।

पृथिव्यां पुत्रास्ते जननि बहवः सन्ति सरलाः 
                       परं तेषां मध्ये विरलतरलोऽहं तव सुतः। 
मदीयोऽयं त्यागः समुचितमिदं नो तव शिवे 
                      कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति।।३।।

माँ ! भूमण्डल में तुम्हारे सरल पुत्र अनेकों हैं पर उनमें एक मैं विरला ही बड़ा चंचल हूँ, तो भी हे शिवे ! मुझे त्याग देना तुम्हें उचित नहीं, क्योंकि पूत तो कुपूत हो जाता है पर माता कुमाता नहीं होती ।

जगन्मातर्मातस्तव चरणसेवा न रचिता 
                       न वा दत्तं देवि द्रविणमपि भूयस्तव मया। 
तथापि त्वं स्नेहं मयि निरुपमं यत्प्रकुरुषे   
                       कुपुत्रो जायेत क्वचिदपि कुमाता न भवति।।४।।

हे जगदम्ब ! हे मातः ! मैंने तुम्हारे चरणों की सेवा 'नहीं की अथवा तुम्हारे लिये प्रचुर धन भी समर्पण नहीं किया; तो भी मेरे ऊपर यदि तुम ऐसा अनुपम स्नेह रखती हो तो यह सच ही है कि पूत तो कुपूत हो जाता है पर माता कुमाता नहीं होती ।

परित्यक्ता देवा विविधविधिसेवाकुलतया  
                        मया पञ्चाशीतेरधिकमपनीते तु वयसि।
इदानीं चेन्मातस्तव यदि कृपा नापि भविता 
                        निरालम्बो लम्बोदरजननि कं यामि शरणम्।।५।।

हे गणेशजननि ! मैंने अपनी पचासी वर्ष से अधिक आयु बीत जाने पर विविध विधियों द्वारा पूजा करने से घबड़ाकर सब देवों को छोड़ दिया है, यदि इस समय तुम्हारी कृपा न हो तो मैं निराधार होकर किसकी शरण में जाऊँ?।

श्वपाको जल्पाको भवति मधुपाकोपमगिरा 
                        निरातङ्को रङ्को विहरति चिरं कोटिकनकै:। 
तवापर्णे कर्णे विशति मनुवर्णे फलमिदं 
                         जनः को जानीते जननि जपनीयं जपविधौ।।६।।

हे माता अपर्णे ! यदि तुम्हारे मन्त्राक्षरों के कान में पड़ते ही चाण्डाल भी मिष्ठान के सदृश सुमधुरवाणी से युक्त बड़ा भारी वक्ता बन जाता है और महादरिद्र भी करोड़पति बनकर चिरकाल तक निर्भय विचरता है तो उसके जप का अनुष्ठान करने पर जपने से जो फल होता है, उसे कौन जान सकता है?।

चिताभस्मालेपो गरलमशनं दिक्पटधरो 
                     जटाधारी कण्ठे भुजगपतिहारी पशुपतिः।
कपाली भूतेशो भजति जगदीशैकपदवीं
                      भवानि त्वत्पाणिग्रहणपरिपाटीफलमिदम्।।७।।

जो चिता का भस्म रमाये हैं, विष खाते हैं, निर्वस्त्र रहते हैं, जटाजूट बाँधे हैं, गलेमें सर्पमाल धारण किये हैं, हाथमें खप्पर लिये हैं, पशुपति और भूतों के स्वामी हैं, ऐसे शिवजी ने भी जो एकमात्र जगदीश्वर की पदवी प्राप्त की है, वह हे भवानि ! तुम्हारे साथ विवाह होने का ही फल है।

न मोक्षस्याकाङ्क्षा भवविभववाञ्छापि च न मे 
                            न विज्ञानापेक्षा शशिमुखि सुखेच्छापि न पुनः।
अतस्त्वां संयाचे जननि जननं यातु मम वै 
                             मृडानी रुद्राणी शिव शिव भवानीति जपतः।।८।।

हे चन्द्रमुखी माता ! मुझे मोक्ष की इच्छा नहीं है, सांसारिक वैभव की भी लालसा नहीं है, विज्ञान तथा सुख की भी अभिलाषा नहीं है; इसलिये मैं तुमसे यही माँगता हूँ कि मेरी सारी आयु मृडानी, रुद्राणी, शिव-शिव, भवानी आदि नामों के जपते-जपते ही बीते।

नाराधितासि विधिना विविधोपचारैः किं रुक्षचिन्तनपरैर्न कृतं वचोभिः।
श्यामे त्वमेव यदि किञ्चन मय्यनाथे धत्से कृपामुचितमम्ब परं तवैव।।९।।

हे श्यामे ! मैंने अनेकों उपचारों से तुम्हारी सेवा नहीं की (यही नहीं, इसके विपरीत) अनिष्टचिन्तन में तत्पर अपने वचनों से मैंने क्या नहीं किया ? (अर्थात् अनेकों बुराइयाँ की हैं) फिर भी मुझ अनाथ पर यदि तुम कुछ कृपा रखती हो तो यह तुम्हें बहुत ही उचित है, क्योंकि तुम मेरी माता हो।

आपत्सु मग्नः स्मरणं त्वदीयं करोमि दुर्गे करुणार्णवेशि। 
नैतच्छ्ठत्वं मम भावयेथाः  क्षुधातृषार्ता जननीं स्मरन्ति ॥१०।।

हे दुर्गे ! हे दयासागर महेश्वरी ! जब मैं किसी विपत्ति में पड़ता हूँ तो तुम्हारा ही स्मरण करता हूँ, इसे तुम मेरी दुष्टता मत समझना, क्योंकि भूखे- प्यासे बालक अपनी माँ को ही याद किया करते हैं।

जगदम्ब विचित्रमत्र किं परिपूर्णा करुणास्ति चेन्मयि। 
अपराधपरम्परावृतं न हि माता समुपेक्षते सुतम्।।११।।

हे जगज्जननी ! मुझपर तुम्हारी पूर्ण कृपा है, इसमें आश्चर्य ही क्या है? क्योंकि अनेक अपराधों से युक्त पुत्र को भी माता त्याग नहीं देती ।

मत्समः पातकी नास्ति पापघ्नी त्वत्समा न हि ।
एवं ज्ञात्वा महादेवि यथा योग्यं तथा कुरु ।।१२।।

हे महादेवि ! मेरे समान कोई पापी नहीं है और तुम्हारे समान कोई पाप नाश करनेवाली नहीं है, यह जानकर जैसा उचित समझो, वैसा करो।

।। इस प्रकार आद्य शंकराचार्य  द्वारा विरचित भगवती दुर्गा को समर्पित “श्री देव्यपराधक्षमापन स्तोत्रम्” सम्पूर्ण हुआ ।।

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