अचलसम्पत्ति,वैभवलक्ष्मी प्राप्ति एवं दारिद्रय निवारण हेतु श्री सूक्त पाठ

अचलसम्पत्ति,वैभवलक्ष्मी प्राप्ति एवं दारिद्रय निवारण हेतु श्री सूक्त पाठ

।। श्री सूक्तम् ।।

दरिद्रता, दुःख, संताप, कष्ट इत्यादि समस्याओं के निवारण हेतु प्रत्येक मनुष्य को भगवती लक्ष्मी की आराधना श्री सूक्त के द्वारा करनी चाहिए । माता लक्ष्मी के इस सूक्त का जो साधक नित्य प्रातः या सांय पाठ करता है उसके ऋण, रोग, दरिद्रता, पाप, क्षुधा, अपमृत्यु, भय , शोक तथा मानसिक ताप नष्ट होते हैं एवं ओज, आयुष्य, आरोग्य की प्राप्ति होती है ।

विशेष :- अल्पायु तथा निर्धन मनुष्य “श्रीसूक्त” का पाठ करने से दीर्घायु तथा धन की प्राप्ति  कर लेता है ।

ॐ हिरण्यवर्णां हरिणीं सुवर्णरजतस्रजाम् । 
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आ वह ॥१॥ 

हे जातवेदा (सर्वज्ञ) अग्निदेव ! सुवर्ण के-से रंग वाली, किंचित् हरितवर्णविशिष्टा, सोने और चाँदी के हार पहनने वाली, चन्द्रवत् प्रसन्नकान्ति, स्वर्णमयी लक्ष्मीदेवी को मेरे लिये आवाहन करो । 

तां म आ वह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम् । 
यस्यां हिरण्यं विन्देयं गामश्वं पुरुषानहम् ॥२॥

अग्ने ! उन लक्ष्मीदेवी को, जिनका कभी विनाश नहीं होता तथा जिनके आगमन से मैं सोना, गौ, घोड़े तथा पुत्रादि को प्राप्त करूँगा, मेरे लिये आवाहन करो ।

अश्वपूर्वां रथमध्यां हस्तिनादप्रमोदिनीम् । 
श्रियं देवीमुप ह्वये श्रीर्मा देवी जुषताम् ॥३॥

जिन देवी के आगे घोड़े तथा उनके पीछे रथ रहते हैं तथा जो हस्तिनाद को सुनकर प्रमुदित होती हैं, उन्हीं श्रीदेवी का मैं आवाहन करता हूँ, लक्ष्मीदेवी मुझे प्राप्त हों ।

कां सोस्मितां हिरण्यप्राकारामार्द्रां ज्वलन्तीं तृप्तां तर्पयन्तीम् । 
पद्मेस्थितां पद्मवर्णां तामिहोप ह्वये श्रियम् ॥४॥ 

जो साक्षात् ब्रह्मरूपा, मन्द-मन्द मुसकराने वाली, सोने के आवरण से आवृत, दयार्द्र, तेजोमयी, पूर्णकामा, भक्तानुग्रहकारिणी, कमल के आसन पर विराजमान तथा पद्मवर्णा हैं, उन लक्ष्मीदेवी का मैं यहाँ आवाहन करता हूँ ।

चन्द्रां प्रभासां यशसा ज्वलन्तीं श्रियं लोके देव जुष्टामुदाराम् ।
तां पद्मिनीमीं शरणं प्रपद्ये अलक्ष्मीर्मे नश्यतां त्वां वृणे ॥५॥

मैं चन्द्र के समान शुभ्र कान्तिवाली, सुन्दर द्युतिशालिनी, यश से दीप्तिमती, स्वर्गलोक में देवगणों के द्वारा पूजिता, उदारशीला, पद्महस्ता लक्ष्मीदेवी की शरण ग्रहण करता हूँ। मेरा दारिद्रय दूर हो जाय । मैं आपको शरण्य के रूप में वरण करता हूँ ।

आदित्यवर्णे तपसोऽधि जातो वनस्पतिस्तव वृक्षोऽथ बिल्वः । 
तस्य फलानि तपसा नुदन्तु या अन्तरा याश्च बाह्या अलक्ष्मीः ॥६॥

हे सूर्य के समान प्रकाशस्वरूपे ! तुम्हारे ही तप से वृक्षों में श्रेष्ठ मंगलमय बिल्ववृक्ष उत्पन्न हुआ । उसके फल हमारे बाहरी और भीतरी दारिद्र्य को दूर करें ।

उपैतु मां देवसख: कीर्तिश्च मणिना सह।
प्रादुर्भूतोऽस्मि राष्ट्रेऽस्मिन् कीर्तिमृद्धिं ददातु मे ॥७॥

देवि ! देवसखा कुबेर और उनके मित्र मणिभद्र तथा दक्ष-प्रजापति की कन्या कीर्ति मुझे प्राप्त हों अर्थात् मुझे धन और यश की प्राप्ति हो । मैं इस राष्ट्र में-देश में उत्पन्न हुआ हूँ, मुझे कीर्ति और ऋद्धि प्रदान करें ।

क्षुत्पिपासामलां ज्येष्ठामलक्ष्मीं नाशयाम्यहम्। 
अभूतिमसमृद्धिं च सर्वां निर्णुद मे गृहात् ॥८॥

लक्ष्मी की ज्येष्ठ बहिन अलक्ष्मी (दरिद्रता की अधिष्ठात्री देवी)-का, जो क्षुधा और पिपासा से मलिन-क्षीणकाय रहती हैं, मैं नाश चाहता हूँ। देवि ! मेरे घर से सब प्रकार के दारिद्र्य और अमंगल को दूर करो ।

गन्धद्वारां दुराधर्षां नित्यपुष्टां करीषिणीम् । 
ईश्वरीं सर्वभूतानां तामिहोप ह्वये श्रियम् ॥९॥

जो दुराधर्षा तथा नित्यपुष्टा हैं तथा गोबर से (पशुओंसे) युक्त गन्धगुणवती पृथिवी ही जिनका स्वरूप है, सब भूतों की स्वामिनी उन लक्ष्मीदेवी का मैं यहाँ-अपने घर में आवाहन करता हूँ ।

मनसः काममाकूतिं वाचः सत्यमशीमहि । 
पशूनां रूपमन्नस्य मयि श्रीः श्रयतां यशः ॥१०॥

मन की कामनाओं और संकल्प की सिद्धि एवं वाणी की सत्यता मुझे प्राप्त हो, गौ आदि पशुओं एवं विभिन्न अन्नों -भोग्य पदार्थों के रूप में तथा यश के रूप में श्रीदेवी हमारे यहाँ आगमन करें ।

कर्दमेन प्रजा भूता मयि सम्भव कर्दम । 
श्रियं वासय मे कुले मातरं पद्ममालिनीम् ॥११॥

लक्ष्मी के पुत्र कर्दम की हम संतान हैं। कर्दम ऋषि ! आप हमारे यहाँ उत्पन्न हों तथा पद्मों की माला धारण करने वाली माता लक्ष्मीदेवी को हमारे कुल में स्थापित करें ।

आपः सृजन्तु स्निग्धानि चिक्लीत वस मे गृहे । 
नि च देवीं मातरं श्रियं वासय मे कुले ॥१२॥

जल स्निग्ध पदार्थों की सृष्टि करे। लक्ष्मीपुत्र चिक्लीत ! आप भी मेरे घर में वास करें और माता लक्ष्मीदेवी का मेरे कुल में निवास करायें ।

आर्द्रां पुष्करिणीं पुष्टिं पिङ्गलां पद्ममालिनीम्। 
चन्द्रां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आ वह ॥१३॥

अग्ने ! आर्द्रस्वभावा, कमलहस्ता, पुष्टिरूपा, पीतवर्णा, पद्मों की माला धारण करने वाली, चन्द्रमा के समान शुभ्र कान्ति से युक्त, स्वर्णमयी लक्ष्मीदेवी का मेरे यहाँ आवाहन करें ।

आर्द्रां यः करिणीं यष्टिं सुवर्णां हेममालिनीम् । 
सूर्यां हिरण्मयीं लक्ष्मीं जातवेदो म आ वह ॥१४॥

अग्ने ! जो दुष्टों का निग्रह करने वाली होने पर भी कोमल स्वभाव की हैं, जो मंगलदायिनी, अवलम्बन प्रदान करने वाली यष्टिरूपा, सुन्दर वर्णवाली, सुवर्णमालाधारिणी, सूर्यस्वरूपा तथा हिरण्यमयी हैं, उन लक्ष्मीदेवी का मेरे लिये आवाहन करें ।

तां म आ वह जातवेदो लक्ष्मीमनपगामिनीम् ।
यस्यां हिरण्यं प्रभूतं  गावो दास्योऽश्वान् विन्देयं पुरुषानहम् ॥१५॥ 

अग्ने ! कभी नष्ट न होने वाली उन लक्ष्मीदेवी का मेरे लिये आवाहन करें, जिनके आगमन से बहुत-सा धन, गौएँ, दासियाँ, अश्व और पुत्रादि को हम प्राप्त करें ।

यः शुचिः प्रयतो भूत्वा जुहुयादाज्यमन्वहम् । 
सूक्तं पञ्चदशर्चं च श्रीकामः सततं जपेत् ॥१६॥ 

जिसे लक्ष्मी की कामना हो, वह प्रतिदिन पवित्र और संयमशील होकर अग्नि में घी की आहुतियाँ दे तथा इन पंद्रह ऋचाओं वाले श्रीसूक्तका निरन्तर पाठ करे ।

पद्मानने पद्मविपद्मपत्रे पद्मप्रिये पद्मदलायताक्षि । 
विश्वप्रिये विष्णुमनोऽनुकूले त्वत्पादपद्यं मयि सं नि धत्स्व ॥१७॥ 

कमल-सदृश मुखवाली ! कमल-दल पर अपने चरण कमल रखने वाली ! कमल में प्रीति रखने वाली ! कमल-दल के समान विशाल नेत्रों वाली ! समग्र संसार के लिये प्रिय ! भगवान् विष्णु के मन के अनुकूल आचरण करने वाली ! आप अपने चरणकमल को मेरे हृदय में स्थापित करें ।

पद्मानने पद्मऊरू पद्माक्षि पद्मसम्भवे । 
तन्मे भजसि पद्माक्षि येन सौख्यं लभाम्यहम् ॥१८॥

कमल के समान मुखमण्डलवाली ! कमल के समान ऊरुप्रदेश वाली ! कमल-सदृश नेत्रों वाली ! कमल से आविर्भूत होने वाली ! पद्माक्षि ! आप उसी प्रकार मेरा पालन करें, जिससे मुझे सुख प्राप्त हो ।

अश्वदायि गोदायि धनदायि महाधने । 
धनं मे जुषतां देवि सर्वकामांश्च देहि मे ॥१९॥

अश्वदायिनी, गोदायिनी, धनदायिनी, महाधनस्वरूपिणी हे देवि ! मेरे यास [सदा] धन रहे, आप मुझे सभी अभिलषित वस्तुएँ प्रदान करें ।

पुत्रपौत्रधनं धान्यं हस्त्यश्वाश्वतरी रथम् । 
प्रजानां भवसि माता आयुष्मन्तं करोतु मे ॥२०॥

आप प्राणियों की माता हैं। मेरे पुत्र, पौत्र, धन, धान्य, हाथी, घोड़े, खच्चर तथा रथ को दीर्घ आयु से सम्पन्न करें ।

धनमग्निर्धनं वायुर्धनं सूर्यो धनं वसुः । 
धनमिन्द्रो बृहस्पतिर्वरुणो धनमश्विना ॥२१॥

अग्नि, वायु, सूर्य, वसुगण, इन्द्र, बृहस्पति, वरुण तथा अश्विनीकुमार- ये सब वैभवस्वरूप हैं ।

वैनतेय सोमं पिब सोमं पिबतु वृत्रहा । 
सोमं धनस्य सोमिनो मह्यं ददातु सोमिनः ॥२२॥

हे गरुड ! आप सोमपान करें । वृत्रासुर के विनाशक इन्द्र सोमपान करें । वे गरुड तथा इन्द्र धनवान् सोमपान करने की इच्छा वाले के सोम को मुझ सोमपान की अभिलाषा वाले को प्रदान करें ।

न क्रोधो न च मात्सर्यं न लोभो नाशुभा मतिः । 
भवन्ति कृतपुण्यानां भक्त्या श्रीसूक्तजापिनाम् ॥२३॥

भक्तिपूर्वक श्रीसूक्त का जप करने वाले, पुण्यशाली लोगों को न क्रोध होता है, न ईर्ष्या होती है, न लोभ ग्रसित कर सकता है और न उनकी बुद्धि दूषित ही होती है ।

सरसिजनिलये सरोजहस्ते धवलतरांशुकगन्धमाल्यशोभे
भगवति हरिवल्लभे मनोज्ञे त्रिभुवनभूतिकरि प्रसीद मह्यम् ॥२४॥

कमलवासिनी, हाथ में कमल धारण करने वाली, अत्यन्त धवल वस्त्र, गन्धानुलेप तथा पुष्पहार से सुशोभित होने वाली, भगवान् विष्णु की प्रिया लावण्यमयी तथा त्रिलोकी को ऐश्वर्य प्रदान करने वाली हे भगवति ! मुझ पर प्रसन्न होइये ।

विष्णुपत्नीं क्षमां देवीं माधवीं माधवप्रियाम् । 
लक्ष्मीं प्रियसखीं भूमि नमाम्यच्युतवल्लभाम् ॥२५॥

भगवान् विष्णु की भार्या, क्षमास्वरूपिणी, माधवी, माधवप्रिया, प्रियसखी, अच्युतवल्लभा, भूदेवी भगवती लक्ष्मी को मैं नमस्कार करता हूँ ।

महालक्ष्यै च विद्महे विष्णुपल्यै च धीमहि । तन्नो लक्ष्मीः प्र चोदयात् ॥२६॥

हम विष्णुपत्नी महालक्ष्मी को जानते हैं तथा उनका ध्यान करते हैं। वे लक्ष्मीजी [सन्मार्ग पर चलने हेतु] हमें प्रेरणा प्रदान करें ।

आनन्दः कर्दमः श्रीदश्चिक्लीत इति विश्रुताः । 
ऋषयः श्रियः पुत्राश्च श्रीर्देवीर्देवता मता: ॥२७॥

पूर्व कल्प में जो आनन्द, कर्दम, श्रीद और चिक्लीत नामक विख्यात चार ऋषि हुए थे । उसी नाम से दूसरे कल्प में भी वे ही सब लक्ष्मी के पुत्र हुए, बाद में उन्हीं पुत्रों से महालक्ष्मी अतिप्रकाशमान शरीर वाली हुईं, उन्हीं महालक्ष्मी से देवता भी अनुगृहीत हुए ।

ऋणरोगादिदारिद्र्यपापक्षुदपमृत्यवः।
भयशोकमनस्तापा नश्यन्तु मम सर्वदा ॥२८॥

ऋण, रोग, दरिद्रता, पाप, क्षुधा, अपमृत्यु, भय, शोक तथा मानसिक ताप आदि-ये सभी मेरी बाधाएँ सदा के लिये नष्ट हो जायें ।

श्रीर्वर्चस्वमायुष्यमारोग्यमाविधाच्छोभमानं महीयते ।
धनं धान्यं पशुं बहुपुत्रलाभं शतसंवत्सरं दीर्घमायुः ॥२९॥

भगवती महालक्ष्मी [मानवके लिये] ओज, आयुष्य, आरोग्य, धन-धान्य, पशु, अनेक पुत्रों की प्राप्ति तथा सौ वर्षके दीर्घ जीवन का विधान करें और मानव इनसे मण्डित होकर प्रतिष्ठा प्राप्त करे ।

॥ इस प्रकार ऋक् परिशिष्ट में उद्धृत् श्रीसूक्त सम्पूर्ण हुआ ॥

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