आदित्य हृदय स्तोत्र पाठ से होगी‌ सर्वत्र विजय की प्राप्ति और व्यापार में वृद्धि

आदित्य हृदय स्तोत्र पाठ से होगी‌ सर्वत्र विजय की प्राप्ति और व्यापार में वृद्धि

भगवान सूर्य देव को समर्पित यह आदित्यहृदय स्तोत्र श्री वाल्मीकि रामायण के युद्धकाण्ड के 105 में सर्ग में वर्णित है। भगवान राम और रावण के मध्य विश्व युद्ध के समय जब रावण की अमूल शक्तियों के समक्ष भगवान श्री राम युद्ध क्षेत्र में हताश और निराश हो गए थे उस समय भगवान राम को युद्ध में विजय प्राप्त करने के लिए रणभूमि में महर्षि अगस्त्य ने भगवान सूर्य देव के इस दिव्य स्तोत्र का वर्णन किया। जिसके प्रभाव से ही भगवान राम ने रावण का संहार किया। इस स्तोत्र का पाठ उपासक को सर्वत्र विजय दिलाता है। सूर्य के समान तेज की प्राप्ति होती है, तथा इसके प्रभाव से वाद-विवाद, राज कार्य और न्यायालय से सम्बंधित कार्यों में सदैव विजय की प्राप्ति होती है। 

आदित्य हृदय स्तोत्र पाठ से पूर्व की क्रियाएं 

           विनियोग 

ॐ अस्य आदित्यहृदय स्तोत्रस्यागस्त्य ऋषि: अनुष्टुप् छन्दः, आदित्यहृदय भूतो
भगवान् ब्रह्मा देवता निरस्ताशेष विघ्नतया ब्रह्मविद्यासिद्धौ सर्वत्र जयसिद्धौ च विनियोगः। 

          ऋष्यादिन्यास 

ॐ अगस्त्यऋषये नमः, शिरसि। अनुष्टुप्छन्दसे नमः, मुखे। आदित्यहृदय भूतब्रह्मदेवतायै नमः हृदि। 
ॐ बीजाय नमः, गुह्ये। रश्मिमते शक्तये नमः, पादयो:। ॐ तत्सवितुरित्यादि गायत्रीकीलकाय नमः नाभौ। 

           करन्यास 

ॐ रश्मिमते अड़्गुष्ठाभ्यां नमः। ॐ समुद्यते तर्जनीभ्यां नमः। 
ॐ देवासुरनमस्कृताय मध्यमाभ्यां नमः। ॐ विवस्वते अनामिकाभ्यां नमः। 
ॐ भास्कराय कनिष्ठिकाभ्यां नमः। ॐ भुवनेश्वराय करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः। 

          हृदयादि अड़्गन्यास 

ॐ रश्मिमते हृदयाय नमः। ॐ समुद्यते शिरसे स्वाहा। ॐ देवासुरनमस्कृताय शिखायै वषट्।  
ॐ विवस्वते कवचाय हुम्। ॐ भास्कराय नेत्रत्रयाय वौषट्। ॐ भुवनेश्वराय अस्त्राय फट्।  

इस प्रकार न्यास करके निम्नांकित मंत्र से भगवान सूर्य का ध्यान एवं नमस्कार करना चाहिए। 

ॐ भूर्भुवः स्वः तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गो देवस्य धीमहि धियो यो नः प्रचोदयात्।  

तत्पश्चात् आदित्य हृदय स्तोत्र का पाठ करना चाहिए। 

ततो युद्धपरिश्रान्तं समरे चिन्तया स्थितम्।  
रावणं चाग्रतो दृष्ट्वा युद्धाय समुपस्थितम् ॥१।। 

जब श्री राम चन्द्र जी युद्ध से थककर चिंताग्रस्त होकर रणभूमि में खड़े हुए थे। इतने में रावण भी युद्ध के लिए उनके सामने उपस्थित हो गया। 

दैवतैश्च समागम्य द्रष्टुमभ्यागतो रणम्।  
उपागम्याब्रवीद्राममगस्त्यो भगवांस्तदा।। २।। 

यह देख भगवान् अगस्त्य मुनि, जो देवताओं के साथ युद्ध देखने के लिए आये थे, श्री राम के पास जाकर बोले। 

राम राम महाबाहो शृणु गुह्यं सनातनम्।  
येन सर्वानरीन् वत्स समरे विजयिष्यसि ॥३।। 

अगस्त्य ऋषि कहते हैं कि, सदैव सबके हृदय में वास करने वाले बलशाली भगवान राम हैं। यह सनातन पूजा पद्धति में गुप्त रुप से वर्णित स्त्रोत है। इसके जप से युद्ध में शत्रुओं पर अवश्य ही विजय प्राप्त करोगे। 

आदित्यहृदयं पुण्यं सर्वशत्रुविनाशनम्।  
जयावहं जपं नित्यमक्षयं परमं शिवम् ।।४।। 

इस गोपनीय स्तोत्र का नाम है आदित्यहृदय, यह परम पवित्र और समस्त शत्रुओं का नाश करने वाला है। इसके जप से सदा विजय कि प्राप्ति होती है। यह नित्य अक्षय और परम कल्याणमय स्तोत्र है। 

सर्वमङ्गलमाङ्गल्यं सर्वपापप्रणाशनम्।  
चिन्ताशोकप्रशमनमायुर्वर्धनमुत्तमम् ।।५।। 

यह स्तोत्र सभी जग‌ह मंगल कराने वाला है। इससे सब पापों का नाश हो जाता है। यह चिन्ता और शोक को मिटाने तथा आयु को बढ़ाने में श्रेयस्कर हैं। 

रश्मिमन्तं समुद्यन्तं देवासुरनमस्कृतम्।  
पूजयस्व विवस्वन्तं भास्करं भुवनेश्वरम् ॥६।। 

भगवान् सूर्य अपनी अनंत किरणों से सुशोभित हैं। ये नित्य उदय होने वाले, देवता और असुरों द्वारा पूजित, विवस्वान नाम से प्रसिद्ध, प्रकाश का विस्तार करने वाले और संसार के स्वामी हैं। तुम इनका रश्मिमते नमः, समुद्यन्ते नमः, देवासुरनमस्कृताय नमः, विवस्वते नमः, भास्कराय नमः, भुवनेश्वराय नमः इन मन्त्रों के द्वारा पूजन करो। 

सर्वदेवात्मको ह्येष तेजस्वी रश्मिभावनः ।  
एष देवासुरगणाँल्लोकान् पाति गभस्तिभिः।।७।। 

समस्त देवता इन्हीं के स्वरुप हैं। ये तेज का स्रोत हैं तथा अपनी किरणों से जगत को सत्ता एवं स्फूर्ति प्रदान करने वाले हैं। ये अपनी रश्मियों (किरणों) का प्रसार करके देवता और असुरों सहित समस्त लोकों का पालन करने वाले हैं। 

एष ब्रह्मा च विष्णुश्च शिवः स्कन्दः प्रजापतिः।  
महेन्द्रो धनदः कालो यमः सोमो ह्यपां पतिः ॥८।। 

भगवान सूर्य ही ब्रह्मा, विष्णु, शिव, स्कन्द, प्रजापति, महेन्द्र, कुबेर, काल, यम, सोम एवं वरुण आदि को प्रकट करने वाले हैं। 

पितरो वसवः साध्या अश्विनौ मरुतो मनुः ।  
वायुर्वह्निः प्रजा: प्राण ऋतुकर्ता प्रभाकरः॥९।। 

भगवान सूर्य ही पितर, वसु, साध्य, अश्विनीकुमार, मरुद्गण, मनु, वायु, अग्नि, प्रजा, प्राण, ऋतुओं को प्रकट करने वाले तथा प्रकाश के पुन्ज हैं। 

आदित्यः सविता सूर्यः खगः पूषा गभस्तिमान्।  
सुवर्णसदृशो भानुर्हिरण्यरेता दिवाकरः ॥१०।। 

इनके विभिन्न नाम हैं। आदित्य (अदितिपुत्र), सविता (जगत को उत्पन्न करने वाले), सूर्य (सर्वव्यापक), खग, पूषा (पोषण करने वाले), गभस्तिमान (प्रकाशमान), सुवर्णसदृश्य, भानु (प्रकाशक), हिरण्यरेता (ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति के बीज), दिवाकर (रात्रि का अन्धकार दूर करके दिन का प्रकाश फैलाने वाले), हैं। 

हरिदश्वः सहस्रार्चिः सप्तसप्तिर्मरीचिमान्।  
तिमिरोन्मन्थनः शम्भुस्त्वष्टा मार्ताण्डकोंऽशुमान् ॥११।। 

हरिदश्व (समस्त दिशाओं में व्याप्त), सहस्रार्चि (हज़ारों किरणों से सुशोभित),  सप्तसप्ति (सात घोड़ों वाले), मरीचिमान् (किरणों से सुशोभित), तिमिरोन्मथन (अन्धकार का नाश करने वाले), शम्भू, (कल्याण करने वाले) त्वष्टा, (दुःख दूर करने वाले तथा जगत का संहार करने वाले) मार्तण्डक (ब्रह्माण्ड को जीवन प्रदान करने वाले), अंशुमान,(किरणों को धारण करने वाले)। 

हिरण्यगर्भः शिशिरस्तपनोऽहस्करो  रविः। 
अग्निगर्भोऽदितेः पुत्रः शड़्खः शिशिरनाशनः ।।१२।। 

हिरण्यगर्भ (ब्रह्मा), शिशिर (स्वभाव से ही सुख प्रदान करने वाले), तपन (गर्मी पैदा करने वाले), अहस्कर,(दिन में प्रकट होने वाले) रवि, अग्निगर्भ (अग्नि को गर्भ में धारण करने वाले), अदितिपुत्र, शंख, शिशिरनाशन (शीत का नाश करने वाले)। 

व्योम नाथस्तमोभेदी ऋग्यजु: सामपारगः।  
घनवृष्टिरपां मित्रो विंध्यवीथीप्लवंगमः ।।१३।। 

व्योमनाथ (आकाश के स्वामी), तमभेदी, (अन्धकार को नष्ट करने वाले) ऋग, यजु और सामवेद के पारगामी, घनवृष्टि, (घनघोर वर्षा के कारण) अपां मित्र (जल को उत्पन्न करने वाले), विंध्यवीथीप्लवड़्गम (आकाश में तीव्र वेग से चलने वाले)। 

आतपी मण्डली मृत्युः पिंगलः सर्वतापनः।  
कविर्विश्वो महातेजा रक्तः सर्वभवोद्भवः ।।१४।। 

आतपी, (धूप उत्पन्न करने वाले) मण्डली, (किरणों को धारण करने वाले) मृत्यु, (मौत के कारण) पिड़्गल (भूरे रंग वाले), सर्वतापन (सबको ताप देने वाले), कवि (त्रिकालदर्शी), विश्व, महातेजस्वी, रक्त, सर्वभवोद्भव (सबकी उत्पत्ति के कारण)। 

नक्षत्रग्रहताराणामधिपो विश्वभावनः । 
तेजसामपि तेजस्वी द्वादशात्मन्नमोस्तुते॥१५।। 

नक्षत्र, ग्रह और तारों के स्वामी, विश्वभावन (जगत कि रक्षा करने वाले), तेजस्वियों में भी अति तेजस्वी और जो द्वादशात्मा हैं। इन सभी नामो से प्रसिद्द सूर्यदेव! आपको  मेरा नमस्कार है। 

नमः पूर्वाय गिरये पश्चिमायाद्रये नमः।  
ज्योतिर्गणानां पतये दिनाधिपतये नमः ॥१६।। 

पूर्वगिरी उदय की वेला से लेकर पश्चिमगिरी अस्त की वेला के रूप में आपको मेरा नमस्कार है। ज्योतिर्गणों (ग्रहों और तारों) के स्वामी तथा दिन के अधिपति आपको मेरा प्रणाम है। 

जयाय जयभद्राय हर्यश्वाय नमो नमः। 
नमो नमः सहस्रांशो आदित्याय नमो नमः ।।१७।। 

आप जय, विजय और कल्याण को प्रदान कराने वाले हैं। आपका रथ हरे रंग के घोड़ों से सुशोभित हो रहा है। आपको मेरा बारम्बार नमस्कार है। सहस्रों किरणों से सुशोभित भगवान् सूर्य! आपको मेरा बारम्बार प्रणाम है। आप माता अदिति के पुत्र होने के कारण आदित्य नाम से भी प्रसिद्द हैं, अतैव आपको मेरा नमस्कार है। 

नमः उग्राय वीराय सारङ्गाय नमो नमः। 
नमः पद्मप्रबोधाय मार्तण्डाय नमोस्तुते ।।१८।। 

उग्र, (दुष्टों के लिए हानि देने वाले) वीर, (शक्ति संपन्न) और सारंग (शीघ्र ही कार्यों को सिद्ध करने वाले) सूर्यदेव को मेरा नमस्कार है। कमलों को विकसित करने वाले प्रचण्ड तेजधारी भगवान मार्तण्ड को मेरा प्रणाम है। 

ब्रह्मेशानाच्युतेशाय सूर्यायादित्यवर्चसे । 
भास्वते सर्वभक्षाय रौद्राय वपुषे नमः ।।१९।। 

आप ब्रह्मा, शिव और विष्णु के भी स्वामी हैं। सूर (बलवान) आपकी संज्ञा है, यह सूर्यमण्डल आपका ही तेज है, आप प्रकाश से परिपूर्ण हैं, सबको स्वाहा कर देने वाली अग्नि आपका ही स्वरुप है, आप रौद्ररूप (भयानक रूप)धारण करने वाले हैं,  हे प्रभु! आपको मेरा नमस्कार है। 

तमोघ्नाय हिमघ्नाय शत्रुघ्नायामितात्मने।  
कृतघ्नघ्नाय देवाय ज्योतिषां पतये नमः।।२०।। 

आप अज्ञान और अन्धकार का नाश करने वाले हैं, जड़ता एवं शीत के निवारक तथा शत्रु का नाश करने वाले हैं। आपका स्वरुप अप्रमेय है। आप कृतघ्नों का नाश करने वाले, सम्पूर्ण ज्योतियों के स्वामी और देवस्वरूप हैं, आपको मेरा नमस्कार है। 

तप्तचामीकराभाय हरये विश्वकर्मणे। 
नमस्तमोऽभिनिघ्नाय रुचये लोकसाक्षिणे॥२१।। 

आपकी तेज तपाये हुए स्वर्ण के समान है, आप हरि (भगवान) और विश्वकर्मा हैं, आप अन्धकार के नाशक हैं, प्रकाश स्वरूप और जगत के साक्षी हैं, आपको मेरा नमस्कार है। 

नाशयत्येष वै भूतं तमेव सृजति प्रभुः।  
पायत्येष तपत्येष वर्षत्येष गभस्तिभिः॥२२।। 

हे रघुनन्दन! ये भगवान् सूर्य ही सम्पूर्ण बाधाओं का संहार करने वाले और सृष्टि के पालनहार हैं। ये अपनी किरणों से गर्मी पहुंचाते और वर्षा करते हैं। 

एष सुप्तेषु जागर्ति भूतेषु परिनिष्ठितः। 
एष चैवाग्निहोत्रं च फलं चैवाग्निहोत्रिणाम।।२३।। 

ये सब भूतों में अन्तर्यामी रूप से स्थित होकर उनके सो जाने पर भी जागते रहते हैं। ये ही अग्निहोत्र तथा अग्निहोत्री पुरुषों को मिलने वाले फल हैं। 

देवाश्च क्रतवश्चैव क्रतूनां फलमेव च। 
यानि कृत्यानि लोकेषु सर्वेषु परमप्रभुः।।२४।। 

वेदों में वर्णित यज्ञ और यज्ञों के फल भी ये ही हैं। संपूर्ण लोकों में जितनी क्रियाएँ होती हैं उन सभी का फल देने में भगवान सूर्य ही पूर्ण सामर्थ्यवान् हैं। 

       ॥फलश्रुति ॥ 

एनमापत्सु कृच्छ्रेषु कान्तारेषु भयेषु च।  
कीर्तयन् पुरुषः कश्चिन्नावसीदति राघव॥२५।। 

हे राघव! विपत्ति में, कष्ट में, दुर्गम मार्ग में तथा अन्य किसी भी प्रकार के भय से मुक्ति सूर्यदेव के इस परम पवित्र स्तोत्र से होती है। 

पूजयस्वैनमेकाग्रो देवदेवं जगत्पतिम्।  
एतत त्रिगुणितं जप्त्वा युद्धेषु विजयिष्यति ॥२६।। 

इसलिए तुम एकाग्रचित्त होकर इन देवाधिदेव जगदीश्वर कि पूजा करो। इस आदित्यहृदय का तीन बार जप करने से तुम युद्ध में अवश्य ही विजय प्राप्त करोगे। 

अस्मिन् क्षणे महाबाहो रावणं त्वं जहिष्यसि ।  
एवमुक्त्वा ततोऽगस्त्यो जगाम स यथागतम् ।। २७।। 

हे महाबाहो! तुम इसी क्षण रावण का वध कर सकोगे। यह कहकर अगस्त्यजी जिस भाव के साथ उस रणक्षेत्र में आये थे वैसे ही चले गए। 

एतच्छ्रुत्वा महातेजा नष्टशोकोऽभवत्तदा।  
धारयामास सुप्रीतो राघवः प्रयतात्मवान् ॥२८।। 

उनका उपदेश सुनकर महातेजस्वी श्रीरामचन्द्रजी का शोक दूर हो गया। उन्होंने प्रसन्न होकर शुद्धचित्त से आदित्यहृदय स्तोत्र को अपने अन्त:करण में धारण किया। 

आदित्यं प्रेक्ष्य जप्त्वेदं परं हर्षमवाप्तवान्।  
त्रिराचम्य शुचिर्भूत्वा धनुरादाय वीर्यवान् ॥२९।। 

भगवान राम शुद्ध होकर तीन बार आचमन करके भगवान् सूर्य की ओर देखते हुए इस परम दिव्य स्तोत्र का तीन बार पाठ किया, इससे उन्हें बड़ा हर्ष हुआ।  

रावणं प्रेक्ष्य हृष्टात्मा जयार्थं समुपागमत्।  
सर्वयत्नेन महता वृतस्तस्य वधेऽभवत् ।।३०।। 

फिर परम पराक्रमी रघुनाथ जी ने धनुष उठाकर रावण की ओर देखा और उत्साहपूर्वक विजय पाने के लिए वे आगे बढ़े, उन्होंने पूरा प्रयत्न करके रावण के वध का निश्चय किया। 

अथ रविरवदन्निरिक्ष्य रामं, मुदितमनाः परमं प्रहृष्यमाणः। 
निशिचरपतिसंक्षयं विदित्वा, सुरगणमध्यगतो वचस्त्वरेति ॥३१।। 

उस समय देवताओं के मध्य में खड़े हुए भगवान् सूर्य ने प्रसन्न होकर श्री राम चन्द्र जी की ओर देखा और निशाचर राज रावण के विनाश का समय निकट जानकर हर्ष पूर्वक कहा - हे 'रघुनन्दन! अब शीघ्रता करो'।

इस प्रकार भगवान् सूर्य कि प्रशंसा में कहा गया और वाल्मीकि रामायण के युद्ध काण्ड में वर्णित यह आदित्य हृदय स्तोत्र संपन्न होता है। 

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