ज्ञाताज्ञात पापों से मुक्ति तथा अमृतसिद्धि हेतु अनुष्ठान करें

ज्ञाताज्ञात पापों से मुक्ति तथा अमृतसिद्धि हेतु अनुष्ठान करें

।। देव्यथर्वशीर्षम् ।।

शाक्तपरम्परा में देव्याथर्वशीर्ष पाठ का अत्यधिक महत्व है। इस अथर्वशीर्ष के पाठ करने से, इसके साथ ही अन्य चारों अथर्वशीर्ष गणपति, शिव, नारायण एवं सूर्य अथर्वशीर्ष के पाठ का फल प्राप्त होता है। देवीभागवत महापुराण के अनुसार महाशक्ति पराम्बा ही ब्रह्म का स्वरूप हैं। इन्हीं की शक्ति से भगवान् ब्रह्मा विश्व की उत्पत्ति करते हैं, भगवान् विष्णु सृष्टि का पालन करते हैं तथा भगवान् शिव जगत् का संहार करते हैं, अर्थात् सृजन पालन एवं संहार करने वाली पराशक्ति ही हैं और यही दस महाविद्या स्वरूप में अधिष्ठित हैं। इस अथर्वशीर्ष के पाठात्मक अनुष्ठान से पापों का नाश, महासंकट से मुक्ति, भगवत्प्राप्ति, वाणी की सिद्धि एवं भगवत् साक्षात्कार की प्राप्ति होती है । नवार्णमन्त्र “ऐं ह्रीं क्लीं चामुण्डायै विच्चे” इसी अथर्वशीर्ष  में प्राप्त होता है। इस अथर्वशीर्ष का पाठ समस्त अभिलाषाओं की पूर्ति करता है।

ॐ सर्वे वै देवा देवीमुपतस्थुः कासि त्वं महादेवीति ॥ १॥ 
साब्रवीत् - अहं ब्रह्मस्वरूपिणी । मत्तः प्रकृतिपुरुषात्मकं जगत् । शून्यं चाशून्यं च ॥ २॥
अहमानन्दानानन्दौ। अहं विज्ञानाविज्ञाने। अहं ब्रह्माब्रह्मणी वेदितव्ये। अहं पञ्चभूतान्यपञ्चभूतानि । अहमखिलं जगत् ॥ ३॥

ॐ सभी देवता देवी के समीप गये और विनम्र भाव से पूछने लगे-हे महादेवि ! तुम कौन हो ? ॥ देवी ने कहा- मैं ब्रह्मस्वरूपा हूँ । मुझसे प्रकृति-पुरुषात्मक सद्रूप और असद्रूप जगत् उत्पन्न हुआ है। 

मैं आनन्द और अनानन्दरूपा हूँ। मैं विज्ञान और अविज्ञानरूपा हूँ। अवश्य जानने योग्य ब्रह्म और अब्रह्म भी मैं ही हूँ। पंचीकृत और अपंचीकृत महाभूत भी मैं ही हूँ। यह सारा दृश्य-जगत् मैं ही हूँ ।
 
वेदोऽहमवेदोऽहम्। विद्याहमविद्याहम्। अजाहमनजाहम् । अधश्चोर्ध्वं च तिर्यक्चाहम् ॥ ४॥
अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्चरामि । अहमादित्यैरुत विश्वदेवैः । अहं मित्रावरुणावुभौ बिभर्मि । अहमिन्द्राग्नी अहमश्विनावुभौ ॥ ५॥
अहं सोमं त्वष्टारं पूषणं भगं दधामि । अहं विष्णुमुरुक्रमं ब्रह्माणमुत प्रजापतिं दधामि ॥ ६ ॥
अहं दधामि द्रविणं हविष्मते सुप्राव्ये यजमानाय सुन्वते। अहं राष्ट्री सङ्गमनी वसूनां चिकितुषी प्रथमा यज्ञियानाम्। अहं सुवे पितरमस्य मूर्धन्मम योनिरप्स्वन्तः समुद्रे । य एवं वेद। स दैवीं सम्पदमाप्नोति ॥७॥

वेद और अवेद भी मैं हूँ। विद्या और अविद्या भी मैं, अजा और अनजा (प्रकृति और उससे भिन्न) भी मैं, नीचे-ऊपर, अगल-बगल भी मैं ही हूँ ।

मैं रुद्रों, वसुओं, आदित्यों और विश्वेदेवों के रूपों में विचरण करती हूँ। मैं मित्र और वरुण दोनों का, इन्द्र एवं अग्नि का और दोनों अश्विनीकुमारों का भरण-पोषण करती हूँ । 

मैं सोम, त्वष्टा, पूषा और भग को धारण करती हूँ। त्रैलोक्य को मापने के लिये विस्तीर्ण पादक्षेप करने वाले विष्णु ( वामन), ब्रह्मदेव और प्रजापति को मैं ही धारण करती हूँ ।

देवों को उत्तम हवि पहुँचाने वाले और सोमरस निकालने वाले यजमान के लिये हविर्द्रव्यों से युक्त धन धारण करती हूँ। मैं सम्पूर्ण जगत् की ईश्वरी, उपासकों को धन देने वाली, ब्रह्मरूप और यज्ञादि में (यजन करने योग्य देवों में) मुख्य हूँ। मैं आत्मस्वरूप पर आकाशादि निर्माण करती हूँ। मेरा स्थान आत्मस्वरूप को धारण करने वाली बुद्धि वृत्ति में है। जो इस प्रकार जानता है, वह दैवी सम्पत्ति प्राप्त करता है ।

ते देवा अब्रुवन्- नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सततं नमः। 
          नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणताः स्म ताम् ॥८॥ 
तामग्निवर्णां तपसा ज्वलन्तीं, वैरोचनीं कर्मफलेषु जुष्टाम् । 
दुर्गा देवीं शरणं प्रपद्यामहेऽसुरान्नाशयित्र्यै ते नमः ॥९॥ 
देवीं वाचमजनयन्त देवास्तां विश्वरूपाः पशवो वदन्ति। 
सा नो मन्द्रेषमूर्जं दुहाना धेनुर्वागस्मानुप वैष्णवीं सुष्टुतैतु ॥१०॥ 
कालरात्रीं ब्रह्मस्तुतां वैष्णवीं स्कन्दमातरम् ।
सरस्वतीमदितिं दक्षदुहितरं नमामः पावनां शिवाम् ॥११॥
 महालक्ष्म्यै च विद्महे सर्वशक्त्यै च  धीमहि ।
 तन्नो                     देवी                  प्रचोदयात् ॥१२॥

तब उन देवों ने कहा- देवी को नमस्कार है । महादेवी एवं कल्याणी को सदा नमस्कार है । गुणसाम्यावस्थारूपिणी मंगलमयी प्रकृति देवी को नमस्कार है। दैनिक हम उन्हें प्रणाम करते हैं उन अग्निके समान वर्णवाली, तप से चमकने वाली, दीप्तिमती, कर्मफल प्राप्ति के हेतु सेवन की जाने वाली दुर्गा देवी की हम शरण में हैं। असुरों का नाश करने वाली हे देवि ! तुम्हें नमस्कार है । 

प्राणरूप देवों ने जिस प्रकाशमान वैखरी वाणी को उत्पन्न किया, उसे अनेक प्रकार के प्राणी बोलते हैं। वह कामधेनुतुल्य आनन्ददायक और अन्न तथा बल देने वाली वाणीरूपिणी भगवती उत्तम स्तुति से संतुष्ट होकर हमें आशीष प्रदान करें । 

काल को भी समाप्त करने वाली, वेदों द्वारा जिसकी स्तुति होती है, विष्णुशक्ति, स्कन्दमाता (शिवशक्ति), सरस्वती (ब्रह्मशक्ति), देवमाता अदिति और दक्षकन्या (सती), पापनाशिनी कल्याणकारिणी भगवती को हम प्रणाम करते हैं ।

हम महालक्ष्मीको जानते हैं और उन सर्वशक्तिरूपिणीका ही ध्यान करते हैं। वे देवी हमें सन्मार्गमें प्रवृत्त करें ।

अदितिर्ह्यजनिष्ट   दक्ष     या     दुहिता  तव । 
तां देवा अन्वजायन्त भद्रा अमृतबन्धवः ॥ १३॥ 
कामो योनिः कमला वज्रपाणिर्गुहा हसा मातरिश्वाभ्रमिन्द्रः । 
पुनर्गुहा सकला मायया च पुरूच्यैषा विश्वमातादिविद्योम् ॥ १४॥ 
एषाऽऽत्मशक्ति: । एषा विश्वमोहिनी । पाशाङ्कुशधनुर्बाणधरा । एषा श्रीमहाविद्या । य एवं वेद स शोकं तरति ॥ १५ ।।
नमस्ते अस्तु भगवति मातरस्मान् पाहि सर्वतः ॥ १६ ॥ 

हे दक्ष ! आपकी जो कन्या अदिति हैं, वे प्रसूता हुईं और उनके मृत्युरहित कल्याणमय देव उत्पन्न हुए ।

काम (क), योनि (ए), कमला (ई), वज्रपाणि-इन्द्र (ल), गुहा (ह्रीं), ह, स-वर्ण, मातरिश्वा - वायु (क), अभ्र (ह), इन्द्र (ल), पुनः गुहा (ह्रीं), स, क, ल-वर्ण और माया (ह्रीं) - यह सर्वात्मिका जगन्माता की मूल विद्या है और वह ब्रह्मरूपिणी है ।

ये परमात्मा की शक्ति हैं । ये विश्वमोहिनी हैं । पाश, अंकुश, धनुष, और बाण धारण करने वाली हैं । ये श्रीमहाविद्या हैं । जो ऐसा जानता है, वह शोक को पार कर जाता है । 

भगवती ! आपको नमस्कार है । माता ! सब प्रकार से हमारी रक्षा करो ।    

सैषाष्टौ वसवः । सैषैकादश रुद्राः । सैषा द्वादशादित्याः । सैषा विश्वेदेवाः सोमपा असोमपाश्च । सैषा यातुधाना असुरा रक्षांसि पिशाचा यक्षाः सिद्धाः। सैषा सत्वरजस्तमांसि । सैषा ब्रह्मविष्णुरुद्ररूपिणी। सैषा प्रजापतीन्द्रमनवः। सैषा ग्रहनक्षत्रज्योतींषि । कलाका-ष्ठादिकालरूपिणी । तामहं प्रणौमि नित्यम् ॥ 
पापापहारिणीं देवीं भुक्तिमुक्तिप्रदायिनीम् । 
अनन्तां विजयां शुद्धां शरण्यां शिवदां शिवाम् ॥ १७॥ 
वियदीकारसंयुक्तं वीतिहोत्रसमन्वितम् । 
अर्धेन्दुलसितं देव्या बीजं सर्वार्थसाधकम् ॥१८॥
एवमेकाक्षरं ब्रह्म यतयः शुद्ध चेतस:।
ध्यायन्ति परमानन्दमया ज्ञानाम्बुराशयः ॥१९॥

( मन्त्रद्रष्टा ऋषि कहते हैं-) वही ये अष्ट वसु हैं, वही ये एकादश रुद्र हैं, वही ये द्वादश आदित्य हैं, वही ये सोमपान करने वाले और सोमपान न करने वाले विश्वेदेव हैं, वही ये यातुधान (एक प्रकार के राक्षस) असुर, राक्षस, पिशाच, यक्ष और सिद्ध हैं, वही ये सत्त्व-रज- तम हैं, वही ये ब्रह्म-विष्णु-रुद्ररूपिणी हैं, वही ये प्रजापति-इन्द्र-मनु हैं, वही ये ग्रह, नक्षत्र और तारे हैं, वही कला-काष्ठादि कालरूपिणी हैं, उन पाप नाश करनेवाली, भोग-मोक्ष प्रदान करने वाली, अन्तरहित, विजयाधिष्ठात्री, निर्दोष, शरण लेने योग्य, कल्याणदात्री और मंगलरूपिणी देवी को हम सदा प्रणाम करते हैं ।

वियत्-आकाश (ह) तथा 'ई'कार से युक्त, वीतिहोत्र -अग्नि (र) सहित, अर्धचन्द्र से सुशोभित जो देवीका बीज है, वह सभी इच्छाओं को पूर्ण करनेवाला है। इस प्रकार इस एकाक्षर ब्रह्म (हीं) का ऐसे यति ध्यान करते हैं, जिनका चित्त शुद्ध है, जो निरतिशयानन्दपूर्ण और ज्ञान का सागर हैं। (यह मन्त्र देवीप्रणव माना जाता) है। ॐकारके समान ही यह प्रणव भी व्यापक अर्थसे भरा हुआ है। संक्षेपमें इसका अर्थ इच्छा-ज्ञान- क्रियाधार, अद्वैत, अखण्ड, सच्चिदानन्द, समरसीभूत, शिवशक्तिस्फुरण है।) । 

वाङ्माया ब्रह्मसूस्तस्मात् षष्ठं वक्त्रसमन्वितम् ।
          सूर्योऽवामश्रोत्रबिन्दुसंयुक्तष्टात्तृतीयकः ।
नारायणेन सम्मिश्रो वायुश्चाधरयुक् ततः। 
          विच्चे नवार्णकोऽर्णः स्यान्महदानन्ददायकः ॥२०॥ 
हृत्पुण्डरीकमध्यस्थां प्रातः सूर्यसमप्रभाम् । 
          पाशाङ्कुशधरां सौम्यां वरदाभयहस्तकाम् । 
त्रिनेत्रां रक्तवसनां भक्तकामदुघां भजे ॥२१॥

वाणी (ऐं), माया (ह्रीं), ब्रह्मसू - काम (क्लीं), इसके आगे छठा व्यंजन अर्थात् च, वही वक्त्र अर्थात् आकार से युक्त (चा), सूर्य (म), 'अवाम श्रोत्र' - दक्षिण कर्ण (उ) और बिन्दु अर्थात् अनुस्वार से युक्त (मुं), टकार से तीसरा ड, वही नारायण अर्थात् 'आ' से मिश्र (डा), वायु (य), वही अधर अर्थात् 'ऐ' से युक्त (यै) और 'विच्चे' यह नवार्णमन्त्र उपासकों को परमानन्द  एवं मोक्षप्रदाता है । 

[इस मन्त्रका अर्थ- हे चैतन्यस्वरूपिणी महासरस्वती ! हे सत्यस्वरूपिणी महालक्ष्मी ! हे आनन्दरूपिणी महाकाली ! ब्रह्मविद्या पाने के लिये हम निरन्तर आपका ध्यान करते हैं । हे महाकाली-महालक्ष्मी- महासरस्वतीस्वरूपिणी चण्डिके ! तुम्हें नमस्कार है। अविद्यारूप रज्जु की दृढ़ ग्रन्थि को खोलकर मुझे मुक्त करो।]

हृदय कमल के मध्य रहने वाली, प्रातःकालीन सूर्य के समान प्रभा वाली, पाश और अंकुश धारण करने वाली, मनोहर रूप वाली, वरद और अभयमुद्रा धारण किये हुए हाथों वाली, तीन नेत्रों से युक्त, रक्तवस्त्र धारण करने वाली और कामधेनु के समान भक्तों के मनोरथ को पूर्ण करने वाली देवी को मैं भजता हूँ । 

नमामि त्वां महादेवीं महाभयविनाशिनीम् । 
महादुर्गप्रशमनीं महाकारुण्यरूपिणीम् ॥ २२ ॥
यस्याः स्वरूपं ब्रह्मादयो न जानन्ति तस्मादुच्यते अज्ञेया । यस्या अन्तो न लभ्यते तस्मादुच्यते अनन्ता । यस्या लक्ष्यं नोपलक्ष्यते तस्मादुच्यते अलक्ष्या । यस्या जननं नोपलभ्यते तस्मादुच्यते अजा । एकैव सर्वत्र वर्तते तस्मादुच्यते एका । एकैव विश्वरूपिणी तस्मादुच्यते नैका । अत एवोच्यते अज्ञेयानन्तालक्ष्याजैका नैकेति ॥२३॥ 
मन्त्राणां मातृका देवी शब्दानां ज्ञानरूपिणी ।
ज्ञानानां चिन्मयातीता शून्यानां शून्यसाक्षिणी । 
यस्याः परतरं नास्ति सैषा दुर्गा प्रकीर्तिता ॥ २४ ॥

महाभयका नाश करने वाली, महासंकट को शान्त करने वाली और महान् करुणा की साक्षात् मूर्ति तुम महादेवी को मैं नमस्कार करता हूँ ।

जिसका स्वरूप ब्रह्मादिक नहीं जानते- इसलिये जिसे अज्ञेया कहते हैं, जिसका अन्त नहीं मिलता- इसलिये जिसे अनन्ता कहते हैं, जिसका लक्ष्य दीख नहीं पड़ता- इसलिये जिसे अलक्ष्या कहते हैं, जिसका जन्म समझ में नहीं आता-इसलिये जिसे अजा कहते हैं, जो अकेली ही सर्वत्र है-इसलिये जिसे एका कहते हैं, जो अकेली ही समस्त रूपों में सजी हुई है-इसलिये जिसे नैका कहते हैं, वह इसीलिये अज्ञेया, अनन्ता, अलक्ष्या, अजा, एका और नैका कहलाती हैं ।

सब मन्त्रोंमें 'मातृका' – मूलाक्षररूप से रहनेवाली, शब्दों में ज्ञान (अर्थ)- रूप से रहने वाली, ज्ञानों में 'चिन्मयातीता', शून्यों में 'शून्यसाक्षिणी' तथा जिनसे और कुछ भी श्रेष्ठ नहीं है, वे दुर्गा के नाम से प्रसिद्ध हैं । 

तां दुर्गां दुर्गमां देवीं दुराचारविघातिनीम् । 
नमामि भवभीतोऽहं संसारार्णवतारिणीम् ॥ २५ ॥

इदमथर्वशीर्षं योऽधीते स पञ्चाथर्वशीर्षजप-फलमाप्नोति । इदमथर्वशीर्षमज्ञात्वा योऽर्चां स्थापयति - शतलक्षं प्रजप्त्वापि सोऽर्चासिद्धिं न विन्दति । शतमष्टोत्तरं चास्य पुरश्चर्याविधिः स्मृतः । 

दशवारं पठेद् यस्तु सद्यः पापैः प्रमुच्यते । 
महादुर्गाणि तरति महादेव्याः प्रसादतः ॥ २६ ॥

उन दुर्विज्ञेय, दुराचारनाशिनी और संसारसागर से पार लगाने वाली दुर्गादेवीको इस जगत् से भयभीत हुआ मैं नमस्कार करता हूँ । 

इस अथर्वशीर्ष का जो पाठ करता है, उसे पाँचों अथर्वशीर्षों के पाठ का फल प्राप्त होता है। इस अथर्वशीर्ष के बिना पाठ किये ही जो प्रतिमास्थापन आदि करता है, वह सैकड़ों लाख जप करके भी अर्चासिद्धि नहीं प्राप्त करता । इस अथर्वशीर्ष का १०८ बार जप करने से  इसका पुरश्चरण होता है। जो इसका दस बार पाठ करता है, वह उसी क्षण पापोंसे मुक्त हो जाता है और महादेवीके कृपा से बड़े से बड़े संकट को पार कर जाता है । 

सायमधीयानो दिवसकृतं पापं नाशयति । प्रातरधीयानो रात्रिकृतं पापं नाशयति । सायं प्रातः प्रयुञ्जानो अपापो भवति । निशीथे तुरीयसन्ध्यायां जप्त्वा वाक्-सिद्धिर्भवति । नूतनायां प्रतिमायां जप्त्वा देवता सान्निध्यं भवति। प्राणप्रतिष्ठायां जप्त्वा प्राणानां प्रतिष्ठा भवति। भौमाश्विन्यां महादेवीसंनिधौ जप्त्वा महामृत्युं तरति य एवं वेद । इत्युपनिषत् ।।

इसका सायंकाल में पाठ करने वाला दिन में किये हुए पापों का नाश करता है, प्रातःकाल में पाठ करने वाला रात्रि में किये हुए पापों का नाश करता है। सायं तथा प्रातः दोनों समय पाठ करने वाला निष्पाप होता है। मध्यरात्रि में (तुरीय) सन्ध्या के समय जप करने से वाणी की सिद्धि प्राप्त होती है। नूतन प्रतिमा के समक्ष जप करने से देवता की सन्निधि प्राप्त होती है। प्राण-प्रतिष्ठा के समय जप करने से प्राणों की प्रतिष्ठा होती है। अमृतसिद्धियोग में देवी के सान्निध्य में जप करने से वह साधक महामृत्यु से पार हो जाता है। जो इस विधि को जानता है वह महामृत्यु से पार हो जाता है। इस प्रकार यह ब्रह्मविद्या का वचन है।

।। इस प्रकार देवी अथर्वशीर्ष के माहात्म्य के विषय में बतलाया गया है । यह अथर्वशीर्ष विद्या सर्वमोक्ष प्रदायिनी तथा कल्याण करने वाली है ।   

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