अचल संपत्ति प्राप्ति तथा ऐश्वर्य की अभिवृद्धि हेतु श्री लक्ष्मी स्तोत्रम्

अचल संपत्ति प्राप्ति तथा ऐश्वर्य की अभिवृद्धि हेतु श्री लक्ष्मी स्तोत्रम्

।। श्री लक्ष्मी स्तोत्रम् ।।

देवराज इन्द्र द्वारा विरचित मातालक्ष्मी की इस स्तुति में चौबीस  (24 ) श्लोक हैं । देवराज इन्द्र भगवती लक्ष्मी से प्रार्थना करते हैं की हे देवी आप जगत् की पालनकत्री हैं । आप युगों युगों तक इस त्रिलोक पर निवास करें तथा सम्पूर्ण सृष्टि में मानवजन का कल्याण करें । 

देवराज इन्द्र की इस प्रकार वार्ता सुनकर देवी बोलीं की युगों-युगों तक में इस त्रिलोकी पर निवास करुँगी और जो भी साधक प्रातः य सांय इस स्तोत्र का पाठ करेगा उसे अचल और चल  लक्ष्मी प्रदान करूंगी ।     

सिंहासनगतः शक्रस्सम्प्राप्य त्रिदिवं पुनः । 
देवराज्ये स्थितो देवीं तुष्टावाब्जकरां ततः॥१॥

इन्द्रने स्वर्गलोक में जाकर फिर से देवराज्य पर अधिकार पाया और राजसिंहासन पर आरूढ़ हो पद्महस्ता श्रीलक्ष्मीजी की इस प्रकार स्तुति की -

इन्द्र उवाच

नमस्ये सर्वलोकानां जननीमब्जसम्भवाम् ।
श्रियमुन्निद्रपद्माक्षीं विष्णुवक्षःस्थलस्थिताम् ॥२॥

इन्द्र बोले -

सम्पूर्ण लोकों की जननी, विकसित कमल के सदृश नेत्रों वाली, भगवान् विष्णु के वक्षःस्थल में विराजमान कमलोद्भवा श्रीलक्ष्मीदेवी को मैं नमस्कार करता हूँ ।

पद्मालयां पद्मकरां पद्मपत्रनिभेक्षणाम् । 
वन्दे पद्ममुखीं देवीं पद्मनाभप्रियामहम् ॥३॥

कमल ही जिनका निवासस्थान है, कमल ही जिनके करकमलों में सुशोभित है तथा कमलदल के समान ही जिनके नेत्र हैं, उन कमलमुखी कमलनाभप्रिया श्रीकमलादेवी की मैं वन्दना करता हूँ ।

त्वं सिद्धिस्त्वं स्वधा स्वाहा सुधा त्वं लोकपावनी ।
सन्ध्या रात्रिः प्रभा भूतिर्मेधा श्रद्धा सरस्वती ॥४॥

हे देवि ! तुम सिद्धि हो, स्वधा हो, स्वाहा हो, सुधा हो और त्रिलोकी को पवित्र करने वाली हो तथा तुम ही सन्ध्या, रात्रि, प्रभा, विभूति, मेधा, श्रद्धा और सरस्वती हो ।

यज्ञविद्या महाविद्या गुह्यविद्या च शोभने । 
आत्मविद्या च देवि त्वं विमुक्तिफलदायिनी ॥५॥

हे शोभने ! यज्ञविद्या (कर्मकाण्ड), महाविद्या (उपासना) और गुह्यविद्या (इन्द्रजाल) तुम्हीं हो तथा हे देवि ! तुम्हीं मुक्ति-फल- दायिनी आत्मविद्या हो ।

आन्वीक्षिकी त्रयी वार्ता दण्डनीतिस्त्वमेव च ।
सौम्यासौम्यैर्जगद्रूपैस्त्वयैत्तद्देवि पूरितम् ॥६॥

हे देवि ! आन्वीक्षिकी (तर्कविद्या), वेदत्रयी, वार्ता (शिल्प- वाणिज्यादि) और दण्डनीति (राजनीति) भी तुम्हीं हो । तुम्हीं ने अपने शान्त और उग्ररूपों से इस समस्त संसार को व्याप्त कर रखा है ।

का त्वन्या त्वामृते देवि सर्वयज्ञमयं वपुः। 
अध्यास्ते देवदेवस्य योगिचिन्त्यं गदाभृतः ॥७॥ 

हे देवि ! तुम्हारे बिना और ऐसी कौन स्त्री है जो देवदेव भगवान् गदाधर के योगिजनचिन्तित सर्वयज्ञमय शरीर का आश्रय पा सके ।

त्वया देवि परित्यक्तं सकलं भुवनत्रयम् ।
विनष्टप्रायमभवत्त्वयेदानीं समेधितम् ॥८॥ 

हे देवि ! तुम्हारे छोड़ देने पर सम्पूर्ण त्रिलोकी नष्टप्राय हो गयी थी, अब तुम्हीं ने उसे पुनः जीवनदान दिया है ।

दाराः पुत्रास्तथागारसुहृद्धान्यधनादिकम् ।
भवत्येतन्महाभागे नित्यं त्वद्वीक्षणान्नृणाम् ॥९॥

हे महाभागे ! स्त्री, पुत्र, गृह, धन, धान्य तथा सुहृद्- ये सब सदा आप ही के दृष्टिपात से मनुष्यों को मिलते हैं ।

शरीरारोग्यमैश्वर्यमरिपक्षक्षयः सुखम् ।
देवि त्वद्दृष्टिदृष्टानां पुरुषाणां न दुर्लभम् ॥१०॥

हे देवि ! तुम्हारी कृपादृष्टि के पात्र पुरुषों के लिये शारीरिक आरोग्य, ऐश्वर्य, शत्रुपक्ष का नाश और सुख आदि कुछ भी दुर्लभ नहीं हैं ।

त्वं माता सर्वलोकानां देवदेवो हरिः पिता । 
त्वयैतद्विष्णुना चाम्ब जगद्व्याप्तं चराचरम् ॥११॥

तुम सम्पूर्ण लोकों की माता हो और देवदेव भगवान् हरि पिता हैं। हे मातः ! तुमसे और श्रीविष्णुभगवान् से यह सकल चराचर जगत् व्याप्त है ।

मा नः कोशं तथा गोष्ठं मा गृहं मा परिच्छदम् । 
मा शरीरं कलत्रं च त्यजेथाः सर्वपावनि ॥१२॥

हे सर्वपावनि मातेश्वरि ! हमारे कोश (खजाना), गोष्ठ (पशुशाला), गृह, भोग-सामग्री, शरीर और स्त्री आदि को आप कभी न त्यागें अर्थात् इनमें भरपूर रहें ।

मा पुत्रान्मा सुहृद्वर्गं मा पशून्मा विभूषणम् । 
त्यजेथा मम देवस्य विष्णोर्वक्षःस्थलालये ॥१३॥

अयि विष्णुवक्षःस्थलनिवासिनि ! हमारे पुत्र, सुहृद्, पशु और भूषण आदि को आप कभी न छोड़ें ।

सत्त्वेन सत्यशौचाभ्यां तथा शीलादिभिर्गुणैः । 
त्यज्यन्ते ते नराः सद्यः सन्त्यक्ता ये त्वयामले ॥१४॥

हे अमले ! जिन मनुष्यों को तुम छोड़ देती हो उन्हें सत्त्व (मानसिक बल), सत्य, शौच और शील आदि गुण भी शीघ्र ही त्याग देते हैं ।

त्वया विलोकिताः सद्यः शीलाद्यैरखिलैर्गुणैः । 
कुलैश्वर्यैश्च युज्यन्ते पुरुषा निर्गुणा अपि ॥१५॥

तुम्हारी कृपादृष्टि होने पर तो गुणहीन पुरुष भी शीघ्र ही शील आदि सम्पूर्ण गुण और कुलीनता तथा ऐश्वर्य आदि से सम्पन्न हो जाते हैं ।

स श्लाघ्यः स गुणी धन्यः स कुलीनः स बुद्धिमान् । 
स शूरः स च विक्रान्तो यस्त्वया देवि वीक्षितः ॥१६॥

हे देवि ! जिस पर तुम्हारी कृपादृष्टि है वही प्रशंसनीय है, वही गुणी है, वही धन्यभाग्य है, वही कुलीन और बुद्धिमान् है तथा वही शूरवीर और पराक्रमी है ।

सद्यो वैगुण्यमायान्ति शीलाद्याः सकला गुणाः । 
पराङ्‌मुखी जगद्धात्री यस्य त्वं विष्णुवल्लभे ॥१७॥

हे विष्णुप्रिये ! हे जगज्जननि ! तुम जिससे विमुख हो, उसके तो शील आदि सभी गुण तुरंत अवगुणरूप हो जाते हैं ।

न ते वर्णयितुं शक्ता गुणाञ्जिह्वापि वेधसः । 
प्रसीद देवि पद्माक्षि मास्मांस्त्याक्षीः कदाचन ॥१८॥

हे देवि ! तुम्हारे गुणों का वर्णन करने में तो श्रीब्रह्माजी की रसना भी समर्थ नहीं है। [फिर मैं क्या कर सकता हूँ?] अतः हे कमलनयने ! अब मुझ पर प्रसन्न होओ और मुझे कभी न छोड़ो -

श्रीपराशर उवाच 

एवं श्रीः संस्तुता सम्यक् प्राह देवी शतक्रतुम् । 
शृण्वतां सर्वदेवानां सर्वभूतस्थिता द्विज ॥१९॥

श्रीपराशरजी बोले- हे द्विज ! इस प्रकार सम्यक् स्तुति किये जाने पर सर्वभूतस्थिता श्रीलक्ष्मीजी सब देवताओं के सुनते हुए इन्द्र से इस प्रकार बोलीं- 

श्रीरुवाच

परितुष्टास्मि देवेश स्तोत्रेणानेन ते हरे। 
वरं वृणीष्व यस्त्विष्टो वरदाहं तवागता ॥२०॥

श्रीलक्ष्मीजी बोलीं- हे देवेश्वर इन्द्र ! मैं तुम्हारे इस स्तोत्र से अति प्रसन्न हूँ, तुमको जो अभीष्ट हो, वही वर माँग लो । मैं तुम्हें वर देनेके लिये ही यहाँ आयी हूँ ।

इन्द्र उवाच

वरदा यदि मे देवि वरार्हो यदि वाप्यहम्। 
त्रैलोक्यं न त्वया त्याज्यमेष मेऽस्तु वरः परः ॥२१॥

इन्द्र बोले- हे देवि ! यदि आप वर देना चाहती हैं और मैं भी यदि वर पाने योग्य हूँ तो मुझको पहला वर तो यही दीजिये कि आप इस त्रिलोकी का कभी त्याग न करें ।

स्तोत्रेण यस्तथैतेन त्वां स्तोष्यत्यब्धिसम्भवे । 
स त्वया न परित्याज्यो द्वितीयोऽस्तु वरो मम ॥२२॥

हे समुद्रसम्भवे ! दूसरा वर मुझे यह दीजिये कि जो कोई आपकी इस स्तोत्र से स्तुति करे, उसे आप कभी न त्यागें ।

श्रीरुवाच

त्रैलोक्यं त्रिदशश्रेष्ठ न सन्त्यक्ष्यामि वासव । 
दत्तो वरो मया यस्ते स्तोत्राराधनतुष्टया ॥२३॥

श्रीलक्ष्मीजी बोलीं- हे देवश्रेष्ठ इन्द्र ! मैं अब इस त्रिलोकी को कभी न छोडूंगी । तुम्हारे स्तोत्र से प्रसन्न होकर मैं तुम्हें यह वर देती हूँ ।

यश्च सायं तथा प्रातः स्तोत्रेणानेन मानवः।
मां स्तोष्यति न तस्याहं भविष्यामि पराङ्मुखी ॥२४॥ 

जो कोई मनुष्य प्रातःकाल और सायंकाल के समय इस स्तोत्र से मेरी स्तुति करेगा, उससे मैं कभी विमुख न होऊँगी ।

॥ इस प्रकार श्रीविष्णुमहापुराण में “श्रीलक्ष्मीस्तोत्र” सम्पूर्ण हुआ ॥

वैदिक पद्धति से विशिष्ट पूजा-पाठ, यज्ञानुष्ठान, षोडश संस्कार, वैदिकसूक्ति पाठ, नवग्रह जप आदि के लिए हमारी साइट vaikunth.co पर जाएं तथा अभी बुक करें ।

Vaikunth Blogs

स्थिर लक्ष्मी, ज्ञान तथा अविचल भक्ति प्राप्ति के लिए करें इस स्तोत्र का पाठ
स्थिर लक्ष्मी, ज्ञान तथा अविचल भक्ति प्राप्ति के लिए करें इस स्तोत्र का पाठ

।। श्रीपुण्डरीककृत तुलसी स्तोत्रम् ।।  श्रीपुण्डरीककृत इस स्तोत्र में भगवती तुलसी की उपासना की गय...

मां दुर्गाजी की भक्ति एवं शरणागति प्राप्ति हेतु करें भवान्यष्टकम् का पाठ
मां दुर्गाजी की भक्ति एवं शरणागति प्राप्ति हेतु करें भवान्यष्टकम् का पाठ

श्रीमत्शंकराचार्य जी द्वारा विरचित इस स्तोत्र में कुल आठ श्लोक हैं । भवान्यष्टकम् स्तोत्र में साधक  ...

अचलसम्पत्ति,वैभवलक्ष्मी प्राप्ति एवं दारिद्रय निवारण हेतु श्री सूक्त पाठ
अचलसम्पत्ति,वैभवलक्ष्मी प्राप्ति एवं दारिद्रय निवारण हेतु श्री सूक्त पाठ

।। श्री सूक्तम् ।। दरिद्रता, दुःख, संताप, कष्ट इत्यादि समस्याओं के निवारण हेतु प्रत्येक मनुष्य को...

अचल लक्ष्मी प्राप्ति हेतु करें इन्द्रकृत श्रीमहालक्ष्मी-अष्टक का पाठ
अचल लक्ष्मी प्राप्ति हेतु करें इन्द्रकृत श्रीमहालक्ष्मी-अष्टक का पाठ

देवराज इन्द्र द्वारा विरचित माता लक्ष्मी को समर्पित यह स्तोत्र है । श्री महालक्ष्म्यष्टकम् स्तोत्र म...

समस्त विपत्तियों से रक्षा करती है भगवत्कृत तुलसी स्तोत्रम्
समस्त विपत्तियों से रक्षा करती है भगवत्कृत तुलसी स्तोत्रम्

।। श्री तुलसी स्तोत्र ।। श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के प्रकृतिखण्ड में श्रीभगवान् द्वारा कथित यह तु...

भूत-प्रेत, आधि-व्याधि तथा सभी बाधाओं को दूर करने का सर्वोत्तम साधन श्री कालिकाष्टकम्
भूत-प्रेत, आधि-व्याधि तथा सभी बाधाओं को दूर करने का सर्वोत्तम साधन श्री कालिकाष्टकम्

।। श्री कालिकाष्टकम् ।। श्रीमत्शंकराचार्यजी द्वारा विरचित इस स्तोत्र में ग्यारह (११) श्लोक हैं ।...

 +91 |

By clicking on Login, I accept the Terms & Conditions and Privacy Policy

Recovery Account