देवराज इन्द्रकृत लक्ष्मी स्तोत्र से करें अनपायिनी लक्ष्मी की प्राप्ति

देवराज इन्द्रकृत लक्ष्मी स्तोत्र से करें अनपायिनी लक्ष्मी की प्राप्ति

।। लक्ष्मी स्तोत्रम् ।।

श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण में देवराज इन्द्र के द्वारा माता लक्ष्मी की स्तुति की गयी है । माता लक्ष्मी भक्तों की समस्त अभिलाषाओं को पूर्ण करती हैं । इस स्तोत्र का पाठ करने से पुरुष भगवान् कुबेर के सदृश सम्पत्तिवान् हो जाता है । इस स्तोत्र का एक मास पर्यंत पाठ करने से सुख और धन की प्राप्ति होती है ।

इन्द्र उवाच

ॐ नमः कमलवासिन्यै नारायण्यै नमो नमः । 
कृष्णप्रियायै सारायै पद्मायै च नमो नमः ॥१॥

देवराज इन्द्र बोले - भगवती कमलवासिनी को नमस्कार है। देवी नारायणी को बार-बार नमस्कार है। संसार की सारभूता कृष्णप्रिया भगवती पद्मा को अनेकशः नमस्कार है ।

पद्मपत्रेक्षणायै च पद्मास्यायै नमो नमः । 
पद्मासनायै पद्मिन्यै वैष्णव्यै च नमो नमः ॥२॥

कमलरत्न के समान नेत्र वाली कमलमुखी भगवती महालक्ष्मी को नमस्कार है। पद्मासना, पद्मिनी एवं वैष्णवी नाम से प्रसिद्ध भगवती महालक्ष्मी को बार-बार नमस्कार है ।

सर्वसम्पत्स्वरूपायै सर्वदात्र्यै नमो नमः । 
सुखदायै मोक्षदायै सिद्धिदायै नमो नमः ॥३॥ 

सर्वसम्पत्स्वरूपिणी सर्वदात्री देवी को नमस्कार है। सुखदायिनी, मोक्षदायिनी और सिद्धिदायिनी देवी को बारम्बार नमस्कार है ।

हरिभक्तिप्रदात्र्यै च हर्षदात्र्यै नमो नमः । 
कृष्णवक्षःस्थितायै च कृष्णेशायै नमो नमः ॥४॥

भगवान् श्रीहरि में भक्ति उत्पन्न करने वाली तथा हर्ष प्रदान करने में परम कुशल देवी को बार-बार नमस्कार है । भगवान् श्रीकृष्ण के वक्षःस्थल पर विराजमान एवं उनकी हृदयेश्वरी देवी को बारम्बार प्रणाम है ।

कृष्णशोभास्वरूपायै रत्नपद्ये च शोभने । 
सम्पत्त्यधिष्ठातृदेव्यै महादेव्यै नमो नमः ॥५॥ 

रत्नपद्ये ! शोभने ! तुम श्रीकृष्ण की शोभास्वरूपा हो, सम्पूर्ण सम्पत्ति की अधिष्ठात्री देवी एवं महादेवी हो, तुम्हें मैं बार-बार प्रणाम करता हूँ ।

शस्याधिष्ठातृदेव्यै च शस्यायै च नमो नमः। 
नमो बुद्धिस्वरूपायै बुद्धिदायै नमो नमः ॥६॥

शस्य की अधिष्ठात्री देवी एवं शस्यस्वरूपा हो, तुम्हें बारम्बार नमस्कार है । बुद्धिस्वरूपा एवं बुद्धिप्रदा भगवती के लिये अनेकशः प्रणाम है ।

वैकुण्ठे या महालक्ष्मीर्लक्ष्मीः क्षीरोदसागरे । 
स्वर्गलक्ष्मीरिन्द्रगेहे राजलक्ष्मीर्नृपालये ॥७॥

गृहलक्ष्मीश्च गृहिणां गेहे च गृहदेवता । 
सुरभी सा गवां माता दक्षिणा यज्ञकामिनी ॥८॥

देवि ! तुम वैकुण्ठ में महालक्ष्मी, क्षीरसमुद्र में लक्ष्मी, राजाओं के भवन में राजलक्ष्मी, इन्द्र के स्वर्ग में स्वर्गलक्ष्मी, गृहस्थों के घर में गृहलक्ष्मी, प्रत्येक घर में गृहदेवता, गोमाता सुरभि और यज्ञ की पत्नी दक्षिणा के रूप में विराजमान रहती हो ।

अदितिर्देवमाता त्वं कमला कमलालये ।  
स्वाहा त्वं च हविर्दाने कव्यदाने स्वधा स्मृता ॥९॥

तुम देवताओं की माता अदिति हो । कमलालयवासिनी कमला भी तुम्हीं हो । हव्य प्रदान करते समय 'स्वाहा' और कव्य प्रदान करने के अवसर पर 'स्वधा' का जो उच्चारण होता है, वह तुम्हारा ही नाम है ।

त्वं हि विष्णुस्वरूपा च सर्वाधारा वसुन्धरा । 
शुद्धसत्त्वस्वरूपा त्वं नारायणपरायणा ॥१०॥

सबको धारण करने वाली विष्णुस्वरूपा पृथ्वी तुम्हीं हो । भगवान् नारायण की उपासना में सदा तत्पर रहने वाली देवि ! तुम शुद्ध सत्त्वस्वरूपा हो ।

क्रोधहिंसावर्जिता च वरदा च शुभानना । 
परमार्थप्रदा त्वं च हरिदास्यप्रदा परा ॥११॥ 

तुम में क्रोध और हिंसा के लिये किंचिन्मात्र भी स्थान नहीं है। तुम्हें वरदा, शारदा, शुभा, परमार्थदा एवं हरिदास्यप्रदा कहते हैं ।

यया विना जगत् सर्वं भस्मीभूतमसारकम् । 
जीवन्मृतं च विश्वं च शवतुल्यं यया विना ॥१२॥

तुम्हारे बिना सारा जगत् भस्मीभूत एवं निःसार है; जीते-जी ही मृतक है, शव के तुल्य है ।

सर्वेषां च परा त्वं हि सर्वबान्धवरूपिणी । 
यया विना न सम्भाष्यो बान्धवैर्बान्धवः सदा ॥१३॥

तुम सम्पूर्ण प्राणियों की श्रेष्ठ माता हो । सबके बान्धवरूप में तुम्हारा ही पधारना हुआ है । तुम्हारे बिना भाई भी भाई-बन्धुओं के लिये बात करने योग्य भी नहीं रहता है ।

त्वया हीनो बन्धुहीनस्त्वया युक्तः सबान्धवः । 
धर्मार्थकाममोक्षाणां त्वं च कारणरूपिणी ॥१४॥

जो तुमसे हीन है, वह बन्धुजनों से हीन है तथा जो तुम से युक्त है, वह बन्धुजनों से भी युक्त है। तुम्हारी ही कृपा से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष प्राप्त होते हैं ।

यथा माता स्तनन्धानां शिशूनां शैशवे सदा । 
तथा त्वं सर्वदा माता सर्वेषां सर्वरूपतः ॥१५॥

जिस प्रकार बचपन में दुध मुँहे बच्चों के लिये माता है, वैसे ही तुम अखिल जगत् की जननी होकर सबकी सभी अभिलाषाएँ पूर्ण किया करती हो ।

मातृहीनः स्तनत्यक्तः स चेज्जीवति दैवतः । 
त्वया हीनो जनः कोऽपि न जीवत्येव निश्चितम् ॥१६॥

स्तनपायी बालक माता के न रहने पर भाग्यवश जी भी सकता है; परंतु तुम्हारे बिना कोई भी नहीं जी सकता । यह बिलकुल निश्चित है ।

सुप्रसन्नस्वरूपा त्वं मां प्रसन्ना भवाम्बिके । 
वैरिग्रस्तं च विषयं देहि मह्यं सनातनि ॥१७॥

हे अम्बिके ! सदा प्रसन्न रहना तुम्हारा स्वाभाविक गुण है । अतः मुझपर प्रसन्न हो जाओ । सनातनी ! मेरा राज्य शत्रुओं के हाथ में चला गया है, तुम्हारी कृपा से वह मुझे पुनः प्राप्त हो जाय ।

वयं यावत् त्वया हीना बन्धुहीनाश्च भिक्षुकाः । 
सर्वसम्पद्विहीनाश्च तावदेव हरिप्रिये ॥१८॥

हरिप्रिये ! मुझे जब तक तुम्हारा दर्शन नहीं मिला था, तभी तक मैं बन्धुहीन, भिक्षुक तथा सम्पूर्ण सम्पत्तियों से शून्य था ।

राज्यं देहि श्रियं देहि बलं देहि सुरेश्वरि । 
कीर्ति देहि धनं देहि यशो मह्यं च देहि वै ॥१९॥

सुरेश्वरि ! अब तो मुझे राज्य दो, श्री दो, बल दो, कीर्ति दो, धन दो और यश भी प्रदान करो ।

कामं देहि मतिं देहि भोगान् देहि हरिप्रिये। 
ज्ञानं देहि च धर्मं च सर्वसौभाग्यमीप्सितम् ॥२०॥

हरिप्रिये ! मनोवांछित वस्तुएँ दो, बुद्धि दो, भोग दो, ज्ञान दो, धर्म दो तथा सम्पूर्ण अभिलषित सौभाग्य दो ।

प्रभावं च प्रतापं च सर्वाधिकारमेव च । 
जयं पराक्रमं युद्धे परमैश्वर्यमेव च ॥२१॥

इसके सिवा मुझे प्रभाव, प्रताप, सम्पूर्ण अधिकार, युद्ध में विजय, पराक्रम तथा परम ऐश्वर्य की प्राप्ति भी कराओ ।

फलश्रुतिः

इदं स्तोत्रं महापुण्यं त्रिसंध्यं यः पठेन्नरः । 
कुबेरतुल्यः स भवेद् राजराजेश्वरो महान् ॥

सिद्धस्तोत्रं यदि पठेत् सोऽपि कल्पतरुर्नरः। 
पञ्चलक्षजपेनैव स्तोत्रसिद्धिर्भवेन्नृणाम् ॥

सिद्धिस्तोत्रं यदि पठेन्मासमेकं च संयतः । 
महासुखी च राजेन्द्रो भविष्यति न संशयः ॥

यह स्तोत्र महान् पवित्र है । इसका त्रिकाल पाठ करने वाला बडभागी पुरुष कुबेर के समान राजाधिराज हो सकता है। पाँच लाख जप करने पर मनुष्यों के लिये यह स्तोत्र सिद्ध होता है। यदि दो सिद्धस्तोत्र का कोई निरन्तर एक महीने तक पाठ करे तो वह महान सुखी एवं राजेन्द्र हो जायगा- इसमें कोई संशय नहीं है। 

॥ इस प्रकार श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण में इन्द्रकृत लक्ष्मीस्तोत्र सम्पूर्ण हुआ ॥

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