सुख, सम्पत्ति, सौभाग्य एवं ऐश्वर्य की वृद्धि हेतु कनकधारा स्तोत्र पाठ

सुख, सम्पत्ति, सौभाग्य एवं ऐश्वर्य की वृद्धि हेतु कनकधारा स्तोत्र पाठ

।। श्री कनकधारा स्तोत्रम् ।।

कनकधारा स्तोत्र अर्थात् स्वर्ण (धन) की वर्षा करने वाला स्तोत्र, जिसकी रचना भगवान् शिव के ही अंशावतार आदिगुरु शंकराचार्य जी ने की थी। हमारे पुराणों और धर्मशास्त्रों में माता लक्ष्मी की कृपा प्राप्त करने के लिए कई उपाय हैं, उन्हीं में से एक कनकधारा स्तोत्र का पाठ है। इस स्तोत्र का पाठ शुक्रवार, पूर्णिमा,दिवाली और संभव हो तो नियमित करने से माता लक्ष्मी प्रसन्न होती हैं,और भक्त के जीवन में चली आ रही आर्थिक समस्याओं से मुक्ति मिलती है, व्यापार क्षेत्र और कारोबार में लाभ प्राप्त होता है, वित्तीय स्थिति सुदृढ़ हो  जाती है ,घर में सुख, संपत्ति, ऐश्वर्य आदि की वृद्धि होती है।

कनकधारा स्तोत्र की कथा -

एक बार शंकराचार्य भिक्षा मांगने के लिए घूमते घूमते हुए एक ब्राह्मण के घर पहुंचे। इतने तेजस्वी अतिथि को देखकर संकोचवश उस ब्राह्मण की पत्नी लज्जित हो गई। उसके पास भिक्षा देने के लिए कुछ नहीं था। उसे अपनी स्थिति पर रोना आ गया। नम आंखों के साथ उसने घर में रखें कुछ आंवला लिए और सूखे आंवले तपस्वी को भिक्षा में दे दिए। शंकराचार्यजी को उनकी यह दशा देखकर उन पर तरस आ गया। उन्होंने तुरंत ही ऐश्वर्य दायक,अष्टविध लक्ष्मी को प्रदान करने वाली, अधिष्ठात्री, करुणामयी, वात्सल्यमयी, नारायण पत्नी, महालक्ष्मी को सम्बोधित करते हुए एक स्तोत्र की रचना की। इस स्तोत्र के पाठ करने से वहां सोने की वर्षा होने लगी। इससे इस स्तोत्र का नाम कनकधारा स्तोत्र हुआ।

अङ्गं हरेः पुलकभूषणमाश्रयन्ती भृङ्गाङ्गनेव मुकुलाभरणं तमालम् ।
अङ्गीकृताखिलविभूतिरपाङ्गलीला माङ्गल्यदाऽस्तु मम मङ्गलदेवतायाः ॥१॥

जैसे भ्रमरी अधखिले कुसुमों से अलंकृत तमालतरु का आश्रय लेती है, उसी प्रकार जो श्रीहरि प्रेम भाव से सुशोभित श्रीअंगों पर निरन्तर पड़ती हैं तथा जिसमें सम्पूर्ण ऐश्वर्यों का निवास है, वह सम्पूर्ण मंगलों की अधिष्ठात्री देवी मातामहालक्ष्मीजी की कटाक्षलीला मेरे लिये मंगलदायिनी हो ।

मुग्धा मुहुर्विदधती वदने मुरारेः प्रेमत्रपाप्रणिहितानि गतागतानि ।
माला दृशोर्मधुकरीव महोत्पले या सा मे श्रियं दिशतु सागरसम्भवायाः॥२॥

जैसे भ्रमरी महान् कमलदलपर आती-जाती या मँडराती रहती है, उसी प्रकार जो मुरशत्रु श्रीहरि के मुखारविन्द की ओर बारंबार प्रेमपूर्वक जाती और लज्जा के कारण लौट आती है, वह समुद्रकन्या लक्ष्मी की मनोहर दृष्टिमाली  माता मुझे धन-सम्पत्ति प्रदान करें ।

विश्वामरेन्द्रपदविभ्रमदानदक्षमानन्दहेतुरधिकं मुरविद्विषोऽपि ।
ईषन्निषीदतु मयि क्षणमीक्षणार्धमिन्दीवरोदरसहोदर मिन्दिरायाः ॥३॥

जो सम्पूर्ण देवताओं के अधिपति इन्द्र के पद का वैभव और ऐश्वर्य देने में समर्थ हैं, मुरारि श्रीहरि को भी अधिकाधिक आनन्द प्रदान करने वाली हैं तथा जो नीलकमल के अन्दरूनी भाग के समान मनोहर  हैं, वह लक्ष्मीजी के अधखुले नयनों की दृष्टि क्षणभर के लिये मुझपर भी थोड़ी-सी अवश्य पड़े ।

आमीलिताक्षमधिगम्य मुदा मुकुन्दमानन्दकन्दमनिमेषमनङ्गतन्त्रम् ।
आकेकरस्थितकनीनिकपक्ष्मनेत्रं भूत्यै भवेन्मम भुजङ्गशयाङ्गनायाः ॥४॥

शेषनाग पर शयन करने वाले भगवान् विष्णु की धर्मपत्नी श्रीलक्ष्मीजी का वह नेत्र हमें ऐश्वर्य प्रदान करने वाला हो, जिसकी पुतली तथा बरौनियाँ अनंग के वशीभूत (प्रेमपरवश) हो अधखुले, किंतु साथ ही निर्निमेष नयनों से देखने वाले आनन्दकन्द श्रीमुकुन्द को अपने निकट पाकर कुछ तिरछी हो जाती हैं ।

बाह्वन्तरे मधुजितः श्रितकौस्तुभे या हारावलीव हरिनीलमयी विभाति ।
कामप्रदा भगवतोऽपि कटाक्षमाला कल्याणमावहतु मे कमलालयायाः॥५॥

जो भगवान् मधुसूदन के कौस्तुभमणिमण्डित वक्षःस्थल में इन्द्रनीलमयी हारावली-सी सुशोभित होती हैं तथा उनके भी मन में काम (प्रेम) का संचार करने वाली हैं, वह कमलकुंजवासिनी कमला की कटाक्षमाला मेरा कल्याण करें ।

कालाम्बुदालिललितोरसि कैटभारेर्धाराधरे स्फुरति या तडिदङ्गनेव ।
मातुः समस्तजगतां महनीयमूर्तिर्भद्राणि मे दिशतु भार्गवनन्दनायाः॥६॥

जैसे मेघों की घटा में बिजली चमकती है, उसी प्रकार जो कैटभशत्रु श्रीविष्णु के काली मेघमाला के समान श्यामसुन्दर वक्षःस्थल पर प्रकाशित होती हैं, जिन्होंने अपने आविर्भाव से भृगुवंश को आनन्दित किया है तथा जो समस्त लोकों की जननी हैं, उन भगवती लक्ष्मी की पूजनीया मूर्ति मुझे कल्याण प्रदान करे ।

प्राप्तं पदं प्रथमतः किल यत्प्रभावान्माङ्गल्यभाजि मधुमाथिनि मन्मथेन ।
मय्यापतेत्तदिह मन्थरमीक्षणार्धं मन्दालसं च मकरालयकन्यकायाः ॥७॥

समुद्रकन्या कमला की वह मन्द, अलस, मन्थर और अर्धोन्मीलित दृष्टि,जिसके प्रभाव से कामदेव ने मंगलमय भगवान् मधुसूदन के हृदय में प्रथम बार स्थान प्राप्त किया था, यहाँ मुझ पर कृपा करें ।

दद्याद्यानुपवनो द्रविणाम्बुधारामस्मिन्नकिञ्चनविङ्गशिशौ विषण्णे ।
दुष्कर्मधर्ममपनीय चिराय दूरं नारायणप्रणयिनीनयनाम्बुवाहः॥८॥

भगवान् नारायण की प्रेयसी लक्ष्मी का नेत्ररूपी मेघ दयारूपी अनुकूल पवन से प्रेरित हो दुष्कर्मियों का संहार करने के लिये दूर हटाकर विषाद में पड़े हुए मुझ दीनरूपी चात कपोत पर धनरूपी जलधारा की वृष्टि करें ।

इष्टा विशिष्टमतयोऽपि यया दयार्द्रदृष्ट्या त्रिविष्टपपदं सुलभं लभन्ते । 
दृष्टिः प्रहृष्टकमलोदरदीप्तिरिष्टां पुष्टिं कृषीष्ट मम पुष्करविष्टरायाः॥९॥

प्रखर बुद्धि वाले मनुष्य जिनके प्रीतिपात्र होकर उनकी दयादृष्टि के प्रभाव से स्वर्गपद को सहज ही प्राप्त कर लेते हैं, उन्हीं पद्मासना पद्मा की वह विकसित कमल-गर्भ के समान कान्तिमती दृष्टि मुझे मनोवांछित फल प्रदान करें ।

गीर्देवतेति गरुडध्वजसुन्दरीति शाकम्भरीति शशिशेखरवल्लभेति ।
सृष्टिस्थितिप्रलयकेलिषु संस्थितायै तस्यै नमस्त्रिभुवनैकगुरोस्तरुण्यै ॥१०।।

जो सृष्टि-लीला के समय वाग्देवता (ब्रह्मशक्ति) - के रूप में स्थित होती हैं, पालन-लीला करते समय भगवान् गरुडध्वज की सुन्दरी पत्नी लक्ष्मी (या वैष्णवी शक्ति) के रूप में विराजमान होती हैं तथा प्रलय-लीला के काल में शाकम्भरी (भगवती दुर्गा) अथवा चन्द्रशेखरवल्लभा पार्वती (रुद्रशक्ति) के रूप में अवस्थित होती हैं, उन त्रिभुवन के एकमात्र गुरु भगवान् नारायण की नित्ययौवना प्रेयसी श्रीलक्ष्मीजी को मेरा नमस्कार है ।

श्रुत्यै नमोऽस्तु शुभकर्मफलप्रसूत्यै रत्यै नमोऽस्तु रमणीयगुणार्णवायै । 
शक्त्यै नमोऽस्तु शतपत्रनिकेतनायै पुष्ट्यै नमोऽस्तु पुरुषोत्तमवल्लभायै॥११॥

मातालक्ष्मी शुभ कर्मों का फल देने वाली श्रुति के रूप में आपको प्रणाम है। रमणीय गुणों की सिन्धुरूप रति के रूप में आपको नमस्कार है। कमलवन में निवास करने वाली शक्तिस्वरूपा लक्ष्मी को नमस्कार है तथा पुरुषोत्तमप्रिया पुष्टि को  मेरा नमस्कार है ।

नमोऽस्तु नालीकनिभाननायै नमोऽस्तु दुग्धोदधिजन्मभूत्यै । 
नमोऽस्तु सोमामृतसोदरायै नमोऽस्तु नारायणवल्लभायै ॥१२॥

कमलवदना कमला को नमस्कार है। क्षीरसिन्धुसम्भूता श्रीदेवी को नमस्कार है। चन्द्रमा और सुधा की सगी बहिन को नमस्कार है। भगवान् नारायण की वल्लभा को मेरा नमस्कार है ।

सम्पत्कराणि सकलेन्द्रियनन्दनानि साम्राज्यदानविभवानि सरोरुहाक्षि ।
त्वद्वन्दनानि दुरिताहरणोद्यतानि मामेव मातरनिशं कलयन्तु मान्ये ॥१३॥

कमलसदृश नेत्रों वाली माता आपके चरणों में की वन्दना के प्रभाव से भक्त को सम्पत्ति प्रदान कराने वाली, सम्पूर्ण इन्द्रियों को आनन्द देने वाली, साम्राज्य देने में समर्थवान और सारे पापों को हर लेने के लिये सर्वथा उद्यत हैं। वह सदा मुझे ही अवलम्बन करे (मुझे ही आपकी चरणवन्दनाका शुभ अवसर सदा प्राप्त होता रहे ।) 

यत्कटाक्षसमुपासनाविधिःसेवकस्य सकलार्थसम्पद: । 
संतनोति वचनाङ्गमानसैस्त्वां मुरारिहृदयेश्वरीं भजे ॥१४॥

जिनके कृपाकटाक्ष के लिये की हुई उपासना उपासक के लिये सम्पूर्ण मनोरथों और सम्पत्तियों का विस्तार करती हैं, श्रीहरि की हृदयेश्वरी उन्हीं आप लक्ष्मीदेवी का मैं मन, वाणी और शरीर से भजन करता हूँ ।

सरसिजनिलये सरोजहस्ते धवलतमांशुकगन्धमाल्यशोभे । 
भगवति हरिवल्लभे मनोज्ञे त्रिभुवनभूतिकरि प्रसीद मह्यम् ॥१५॥

भगवति हरिप्रिये ! आप कमलवन में निवास करने वाली हो, तुम्हारे हाथों में लीलाकमल सुशोभित है। तुम अत्यन्त उज्ज्वल वस्त्र, गन्ध और माला आदि से शोभा पा रही हो । तुम्हारी झाँकी बड़ी मनोरम है। त्रिभुवन का ऐश्वर्य प्रदान करने वाली देवि ! मुझ पर प्रसन्न हो जाइये ।

दिग्घस्तिभिः कनककुम्भमुखावसृष्टस्वर्वाहिनीविमलचारुजलप्लुताङ्गीम् ।
प्रातर्नमामि जगतां जननीमशेषलोकाधिनाथगृहिणीममृताब्धिपुत्रीम् ॥१६॥

दिग्गजों द्वारा सुवर्णकलश के मुख से गिराये गये आकाशगंगा के निर्मल एवं मनोहर जल से जिनके श्रीअंगों का अभिषेक (स्नानकार्य) सम्पादित होता है, सम्पूर्ण लोकों के अधीश्वर भगवान् विष्णु की प्राणवल्लभा और क्षीरसागर की पुत्री उन जगज्जननी लक्ष्मी को मैं प्रातःकाल प्रणाम करता हूँ ।

कमले कमलाक्षवल्लभे त्वं, करुणापूरतरङ्गितैरपाङ्गैः।
अवलोकय मामकिञ्चनानां प्रथमं पात्रमकृत्रिमं दयायाः ॥१७॥

कमलनयन केशव की कमनीय कामिनी कमले ! मैं अकिंचन (दीनहीन) मनुष्यों में अग्रगण्य हूँ, अतएव मैं आपकी कृपा का स्वाभाविक पात्र हूँ। आप उमड़ती हुई करुणा की बाढ़ की तरल तरंगों के समान कटाक्षों द्वारा मेरी ओर निहारिये ।

स्तुवन्ति ये स्तुतिभिरमूभिरन्वहं, त्रयीमयीं त्रिभुवनमातरं रमाम् ।
गुणाधिका गुरुतरभाग्यभागिनो भवन्ति ते भुवि बुधभाविताशयाः ॥१८ ॥

जो लोग इन स्तुतियों द्वारा प्रतिदिन वेदत्रयीस्वरूपा त्रिभुवनजननी भगवती लक्ष्मी की स्तुति करते हैं, वे इस भूतल पर महान् गुणवान् और अत्यन्त सौभाग्यशाली होते हैं तथा विद्वान् पुरुष भी उनके मनोभाव को जानने के लिये उत्सुक रहते हैं । 

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