अष्टसिद्धि प्रदायक एवं सर्वविघ्न विघ्वंसक गणपति स्तोत्रम्

अष्टसिद्धि प्रदायक एवं सर्वविघ्न विघ्वंसक गणपति स्तोत्रम्

।। अष्टश्लोकी गणपति स्तोत्रम् ।।

श्रीवासुदेवानन्दसरस्वतीविरचित यह गणपतिस्तोत्र अष्ट श्लोकों से युक्त है । ये आठों श्लोक अष्ट सिद्धियों को प्रदान करने वाले हैं । भगवान् गणपति ही अष्टस्वरूपों में विद्यमान हैं । 

द्विरदानन विनकाननज्वलन त्वं प्रमथेशनन्दন ।
मदनप्रतिमाखुवाहन ज्वलनाभासितपिङ्गलोचन ॥१॥

हाथी के समान मुख वाले विघ्नरूपी वन के लिये अग्नितुल्य, प्रमथगणों के स्वामी भगवान् शिव के पुत्र । कामदेव के समान स्वरूपवाले । मूषक पर सवारी करने वाले । जलती हुई अग्नि के समान पीले नेत्र वाले । आप मेरी रक्षा करें ।

अहिवन्धन रक्तचन्दनप्रिय दुर्वांकुरभारपूजन । 
 शशिभूषण भक्तपालन ज्वलनाक्षावनिजान्निजावन ॥२॥

सर्प का बन्धन धारण करने वाले । रक्तचन्दनप्रिय । दूर्वांकुरसमूह से पूजित होने वाले । चन्द्रमा को आभूषण के रूप में धारण करने वाले। भक्तों का पालन करने वाले । अग्निसदृश नेत्र वाले हे गणेश । आप अपने भक्तों की रक्षा कीजिये ।

विविधामरमर्त्यनायकः प्रथितस्त्वं भुवने विनायकः । 
तव कोऽपि हि नैव नायकस्तत एव त्वमजो विनायकः ॥३॥

आप अनेक देवताओं तथा मनुष्यों के नायक हैं, इसलिये सम्पूर्ण विश्व में आपके विनायक नाम की प्रसिद्धि है। आपका कोई भी नायक नहीं है, अत एव आप अजन्मा हैं और विनायक हैं ।

बलिनिग्रह ईश केशवस्त्रिपुराख्यासुरनिग्रहे शिवः ।
जगदुद्भवनेऽब्सम्भव: सकलाञ्जेतुमहो मनोभवः ॥४॥ 

हे ईश्वर । आपने [दैत्यराज] बलि का निग्रह करने के लिये [वामनरूप] भगवान् विष्णु का रूप धारण किया, त्रिपुर नामक असुर का संहार करने के लिये शिव का रूप धारण किया, जगत की सृष्टि करने के लिये आपने कमलोद्भव ब्रह्मा का रूप धारण किया और सम्पूर्ण संसार को जीतने के लिये अहो । आपने कामदेवका रूप धारण किया ।

महिषासुरनिग्रहे शिवा भवमुक्त्यै मुनयो धुताशिवाः । 
यमपूजयदिष्टसिद्धये वरदो मे भव चेष्टसिद्धये ॥५॥

महिषासुर के मर्दनकाल में आपने भगवान् शिव की महाशक्ति बन दुर्गा का रूप धारण किया । संसार को मुक्ति देने के लिये तथा समस्त अमंगलों को दूर करने के लिये आपने ही अमलाशय मुनियों का रूप बनाया । इष्टसिद्धि के लिये जिनकी पूजा की जाती है, वे वर देने वाले विनायकभगवान् मेरा मनोरथ पूर्ण करें ।

गजकर्णक मूषकस्थिते वरदे त्वय्यभये हृदि स्थिते ।
जयलाभरमेष्टसम्पदः खलु सर्वत्र कुतो वदापदः ॥६॥

हे हाथी के समान कान वाले ! मूषक पर विराजमान, वरदायक तथा अभय प्रदान करने वाले आप गणेश के भक्त-हृदय में स्थित रहने पर सर्वत्र जय, लाभ, लक्ष्मी तथा वांछित सम्पदाएँ अवश्य विद्यमान रहती हैं; बताइये, फिर वहाँ आपदाएँ कहाँ से रह सकती हैं? 

सङ्कल्पितं कार्यमविघ्नमीश द्राक्सिद्धिमायातु ममाखिलेश ।
पापत्रयं मे हर सन्मतीश तापत्रयं मे जहि शान्त्यधीश ॥७॥ 

हे ईश ! हे अखिलेश ! मेरा संकल्पित कार्य अतिशीघ्र सिद्धि को प्राप्त हो। हे बुद्धिमानों के स्वामी ! आप मेरे [कायिक, वाचिक, मानसिक] तीनों प्रकार के पापों का हरण करें। हे शान्ति के स्वामी! आप मेरे [दैहिक, दैविक, भौतिक] तीनों प्रकार के तापोंका हरण करें ।

गणाधीशोऽधीशो हरिहरविधीशोऽभयकरो 
        गुणाधीशो धीशो विजयतु उमाहृत्सुखकरः ।
बुधाधीशोऽनीशो निजभजकविघ्नौघहरणो
        मुदाधीशोऽपीशो यशस उभयर्धेश्च शरणम् ॥८॥ 

गणोंके स्वामी, सबके अधीश्वर, ब्रह्मा-विष्णु-महेशके अधिपति, अभय प्रदान करनेवाले, गुणोंके अधीश, बुद्धिके स्वामी तथा पार्वतीके हृदयमें आनन्द उत्पन्न करनेवाले [गणेश] की जय हो। बुद्धिमानोंके अधिपति, अनीश्वर, अपने भक्तोंके विघ्नसमूहोंका हरण करनेवाले, आनन्दके अधीश्वर तथा यश और ऋद्धि- दोनोंके स्वामी गणेशजीकी मैं शरण ग्रहण करता हूँ ।

॥ इति श्रीवासुदेवानन्दसरस्वतीविरचितं गणपतिस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

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