सुख, समृद्धि और सफलता की प्राप्ति हेतु करें देवी दक्षिणा स्तोत्र पाठ

सुख, समृद्धि और सफलता की प्राप्ति  हेतु करें देवी दक्षिणा स्तोत्र पाठ

।। दक्षिणास्तोत्रम् ।।

श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराण के प्रकृतिखण्ड में यज्ञपुरुषकृत यह स्तोत्र है । इस स्तोत्र में यज्ञपुरुष द्वारा देवी दक्षिणा की स्तुति की गयी है । देवी दक्षिणा भगवान् श्रीकृष्ण के दाहिने स्कन्ध से प्रस्फुटित हुई हैं । ये मनुष्यों को कर्म का फल प्रदान करती हैं । जो उपासक इस स्तोत्र का पाठ करता है उसे यज्ञादि समस्त शुभकर्मों का फल प्राप्त होता है ।

यज्ञपुरुष उवाच

पुरा गोलोकगोपी त्वं गोपीनां प्रवरा परा । 
राधासमा तत्सखी च श्रीकृष्णप्रेयसी प्रिये ॥१॥

यज्ञपुरुष ने कहा- महाभागे ! तुम पूर्वसमय में गोलोक की एक गोपी थी । गोपियों में तुम्हारा प्रमुख स्थान था । राधा के समान ही तुम उनकी सखी थी। भगवान् श्रीकृष्ण तुमसे प्रेम करते थे ।

कार्तिकीपूर्णिमायां तु रासे राधामहोत्सवे । 
आविर्भूता दक्षिणांशात्कृष्णस्य तेन दक्षिणा ॥२॥

कार्तिकी पूर्णिमा के दिन राधा-महोत्सव के अवसर पर तुम भगवान् श्रीकृष्ण के दक्षिण कन्धे से प्रकट हुई थी, अत एव तुम्हारा नाम दक्षिणा पड़ गया ।

पुरा त्वं सुशीलाख्या शीलेन शोभनेन च । 
कृष्णदक्षांशवासाच्च राधाशापाच्च दक्षिणा ॥३॥ 

गोलोकात्त्वं परिध्वस्ता मम भाग्यादुपस्थिता । 
कृपां कुरु त्वमेवाद्य स्वामिनं कुरु मां प्रिये ॥४॥

तुम इससे पहले मांगलिक शीलवती होने के कारण सुशीला कहलाती थी । भगवान् श्रीकृष्ण के दक्षिणांश में निवास करने के कारण देवी श्रीराधा के शाप से गोलोक से च्युत होकर दक्षिणा नाम से सम्पन्न हो मुझे सौभाग्यवश प्राप्त हुई हो । प्रिये ! आज तुम मुझे अपना स्वामी बनाने की कृपा करो ।

कर्मिणां कर्मणां देवी त्वमेव फलदा सदा । 
त्वया विना च सर्वेषां सर्वं कर्म च निष्फलम् ॥५॥

तुम्हीं यज्ञशाली पुरुषों के कर्म का सदा फल प्रदान करने वाली आदरणीया देवी हो, तुम्हारे बिना सम्पूर्ण प्राणियों के सभी कर्म निष्फल हो जाते हैं ।

फलशाखाविहीनश्च यथा वृक्षो महीतले । 
त्वया विना तथा कर्मकर्मिणां च न शोभते ॥६॥

तुम्हारी अनुपस्थिति में कर्मियों का कर्म उसी प्रकार शोभा नहीं पाता, जिस प्रकार पृथ्वीतल पर फल और शाखा से विहीन वृक्ष शोभा नहीं पाता ।

ब्रह्मविष्णुमहेशाश्च दिक्पालादय एव च । 
कर्मणश्च फलं दातुं न शक्ताश्च त्वया विना ॥७॥

ब्रह्मा, विष्णु, महेश तथा दिक्पालप्रभृति सभी देवता तुम्हारे न रहने से कर्मों का फल देने में असमर्थ रहते हैं ।

कर्मरूपी स्वयं ब्रह्मा फलरूपी महेश्वरः। 
यज्ञरूपी विष्णुरहं त्वमेषां साररूपिणी ॥८॥

ब्रह्मा स्वयं कर्मरूप हैं। शंकर को फलरूप बतलाया गया है। मैं विष्णु स्वयं यज्ञरूप से प्रकट हूँ। इन सब में साररूपा तुम्हीं हो ।

फलदाता परं ब्रह्म निर्गुणः प्रकृतेः परः। 
स्वयं कृष्णश्च भगवान् न च शक्तस्त्वया विना ॥९॥

साक्षात् परब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्ण, जो प्राकृत गुणों से रहित तथा प्रकृति से परे हैं, समस्त फलों के दाता हैं, परंतु वे श्रीकृष्ण भी तुम्हारे बिना कुछ करने में समर्थ नहीं हैं ।

त्वमेव शक्तिः कान्ते मे शश्वज्जन्मनि जन्मनि । 
सर्वकर्मणि शक्तोऽहं त्वया सह वरानने ॥१०॥

कान्ते ! सदा जन्म-जन्म से तुम्हीं मेरी शक्ति हो। वरानने ! तुम्हारे साथ रहकर ही मैं समस्त कर्मों में समर्थ हूँ ।

इत्युक्त्वा तत्पुरस्तस्थौ यज्ञाधिष्ठातृदेवकः । 
तुष्टा बभूव सा देवी भेजे तं कमलाकला ॥११॥

ऐसा कहकर यज्ञ के अधिष्ठाता देवता दक्षिणा के सामने खड़े हो गये । तब कमला की कलास्वरूपा उस देवी ने संतुष्ट होकर यज्ञपुरुष का वरण किया ।

इदं च दक्षिणास्तोत्रं यज्ञकाले च यः पठेत्। 
फलं च सर्वयज्ञानां लभते नात्र संशयः ॥१२॥

यह भगवती दक्षिणा का स्तोत्र है। जो पुरुष यज्ञ के अवसर पर इसका पाठ करता है, उसे सम्पूर्ण यज्ञों के फल सुलभ हो जाते हैं, इसमें संशय नहीं ।

॥ इस प्रकार श्रीब्रह्मवैवर्तमहापुराणके प्रकृतिखण्डमें यज्ञपुरुषकृत दक्षिणास्तोत्र सम्पूर्ण हुआ ॥

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