सर्वविध रक्षा हेतु करें संसारमोहन गणेशकवच का पाठ

सर्वविध रक्षा हेतु करें संसारमोहन गणेशकवच का पाठ

।। संसार मोहन गणेश कवचम् ।।

श्रीब्रह्मवैवर्तपुराण के अन्तर्गत गणपतिखण्ड में संसारमोहन नामक गणेशकवच प्राप्त होता है जिसका उपदेश वृन्दावन में रासलीला के समय भगवान् कृष्ण ने भगवान् विष्णु को प्रदान किया ।  इस कवच के द्वारा मनोभिलषित वस्तु एवं मनुष्य को अपने अधिकार में किया जा सकता है । 

विष्णुरुवाच

संसारमोहनस्यास्य कवचस्य प्रजापतिः । 
ऋषिश्छन्दश्च बृहती देवो लम्बोदरः स्वयम् ॥१॥

विष्णु बोले - [हे शनैश्चर!] इस 'संसारमोहन' नामक कवच के प्रजापति ऋषि हैं, बृहती छन्द है और स्वयं लम्बोदर गणेश देवता हैं ।

धर्मार्थकाममोक्षेषु विनियोगः प्रकीर्तितः । 
सर्वेषां कवचानां च सारभूतमिदं मुने ॥२॥

धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष में इसका विनियोग कहा गया है। हे मुने (नारद)! यह सम्पूर्ण कवचों का सारभूत है ।

ॐ गं हं श्रीगणेशाय स्वाहा मे पातु मस्तकम् ।
द्वात्रिंशदक्षरो मन्त्रो ललाटं मे सदावतु ॥३॥

'ॐ गं हूं श्रीगणेशाय स्वाहा' यह मेरे मस्तक की रक्षा करे । बत्तीस अक्षरों वाला मन्त्र सदा मेरे ललाट को बचाये ।

श्रीं ॐ ह्रीं क्लीं गमिति वै संततं पातु लोचनम् ।
तालुकं पातु विघ्नेशः संततं धरणीतले ॥४॥

'ॐ ह्रीं क्लीं श्रीं गम्' यह निरन्तर मेरे नेत्रों की रक्षा करे । विघ्नेश भूतल पर सदा मेरे तालु की रक्षा करें । 

ॐ ह्रीं श्रीं क्लीमिति च संततं पातु नासिकाम् ।
ॐ गौं गं शूर्पकर्णाय स्वाहा पात्वधरं मम ॥५॥

'ॐ ह्रीं श्रीं क्लीं' यह निरन्तर मेरी नासिका की रक्षा करे तथा 'ॐ गौं गं शूर्पकर्णाय स्वाहा' - यह मेरे ओठ को सुरक्षित रखे ।

दन्तांश्च तालुकां जिह्वां पातु मे षोडशाक्षरः ॥६॥

षोडशाक्षर - मन्त्र मेरे दाँत, तालु और जीभ को बचाये ।

ॐ लं श्रीं लम्बोदरायेति स्वाहा गण्डं सदावतु ।
ॐ क्लीं ह्रीं विघ्ननाशाय स्वाहा कर्णं सदावतु ॥७॥

'ॐ लं श्रीं लम्बोदराय स्वाहा' सदा गण्डस्थल की रक्षा करे। 'ॐ क्लीं ह्रीं विघ्ननाशाय स्वाहा' सदा कानों की रक्षा करे ।

ॐ श्रीं गं गजाननायेति स्वाहा स्कन्धं सदावतु ।
ॐ ह्रीं विनायकायेति स्वाहा पृष्ठं सदावतु ॥८॥

'ॐ श्रीं गं गजाननाय स्वाहा' सदा कन्धों की रक्षा करे। 'ॐ ह्रीं विनायकाय स्वाहा' सदा पृष्ठभाग की रक्षा करे ।

ॐ क्लीं ह्रीमिति कङ्कालं पातु वक्षःस्थलं च गम् ।
करौ पादौ सदा पातु सर्वाङ्ग विघ्ननिघ्नकृत् ॥९॥

'ॐ क्लीं ह्रीं' कंकाल की और 'गं' वक्षःस्थल की रक्षा करें । विघ्ननिहन्ता हाथ, पैर तथा सर्वांग को सुरक्षित रखें ।

प्राच्यां लम्बोदरः पातु चाग्नेय्यां विघ्ननायकः ।
दक्षिणे पातु विघ्नेशो नैर्ऋत्यां तु गजाननः ॥१०॥

पूर्वदिशा में लम्बोदर और अग्निकोण में विघ्ननायक रक्षा करें । दक्षिण में विघ्नेश और नैऋत्यकोण में गजानन रक्षा करें ।

पश्चिमे पार्वतीपुत्रो वायव्यां शङ्करात्मजः ।
कृष्णस्यांशश्चोत्तरे च परिपूर्णतमस्य च ॥११॥

ऐशान्यामेकदन्तश्च हेरम्बः पातु चोर्ध्वतः ।
अधो गणाधिपः पातु सर्वपूज्यश्च सर्वतः ॥१२॥ 

स्वप्ने जागरणे चैव पातु मां योगिनां गुरुः ॥१३॥

पश्चिम में पार्वतीपुत्र, वायव्यकोण में शंकरात्मज, उत्तर में परिपूर्णतम श्रीकृष्ण का अंश, ईशानकोण में एकदन्त और ऊर्ध्वभाग में हेरम्ब रक्षा करें । अधोभाग में सर्वपूज्य गणाधिप सब ओर से मेरी रक्षा करें। शयन और जागरणकाल में योगियों के गुरु मेरा पालन करें । 

इति ते कथितं वत्स सर्वमन्त्रौघविग्रहम् ।
संसारमोहनं नाम कवचं  परमाद्भुतम् ॥१४॥

हे वत्स ! इस प्रकार जो सम्पूर्ण मन्त्रसमूहों का विग्रह-स्वरूप है, उस परम अद्भुत संसारमोहन नामक कवच का मैंने तुमसे वर्णन कर दिया ।

श्रीकृष्णेन पुरा दत्तं गोलोके रासमण्डले ।
वृन्दावने विनीताय मह्यं दिनकरात्मज ॥१५॥

मया दत्तं च तुभ्यं च यस्मै कस्मै न दास्यसि ।
परं वरं सर्वपूज्यं सर्वसङ्कटतारणम् ॥१६॥

हे सूर्यनन्दन ! इसका उपदेश प्राचीनकाल में गोलोक के वृन्दावन में रासमण्डल के अन्तर्गत श्रीकृष्ण ने मुझ विनीत को दिया था; वही मैंने तुम्हें प्रदान किया है। तुम इसे जिस-किसी को मत दे डालना । यह परम श्रेष्ठ, सर्वपूज्य और सम्पूर्ण संकटों से उबारने वाला है ।

गुरुमभ्यर्च्य विधिवत् कवचं धारयेत्तु यः।
कण्ठे वा दक्षिणे बाहौ सोऽपि विष्णुर्न संशयः ॥१७॥

जो मनुष्य विधिपूर्वक गुरु की अभ्यर्चना करके इस कवच को गले में अथवा दक्षिण भुजा पर धारण करता है, वह निस्संदेह विष्णु ही है ।

अश्वमेधसहस्त्राणि वाजपेयशतानि च ।
ग्रहेन्द्र कवचस्यास्य कलां नार्हन्ति षोडशीम् ॥१८॥

हे ग्रहेन्द्र ! हजारों अश्वमेध और सैकड़ों वाजपेय यज्ञ इस कवच की सोलहवीं कला की भी समानता नहीं कर सकते ।

इदं कवचमज्ञात्वा यो भजेच्छङ्करात्मजम् ।
शतलक्षप्रजप्तोऽपि न मन्त्रः सिद्धिदायकः ॥१९॥ 

जो मनुष्य इस कवच को जाने बिना शंकर-सुवन गणेश की भक्ति करता है, उसके लिये सौ लाख जपने पर भी मन्त्र सिद्धिदायक नहीं होता । 

॥ इति श्रीब्रह्मवैवर्तपुराणे गणपतिखण्डे संसारमोहनं नाम गणेशकवचं सम्पूर्णम् ॥

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