विघ्नों की शान्ति, सदा मङ्गल की कामना तथा कारागार से मुक्ति हेतु करें गजानन स्तोत्र पाठ

विघ्नों की शान्ति, सदा मङ्गल की कामना तथा कारागार से मुक्ति हेतु करें गजानन स्तोत्र पाठ

।। श्री गजानन स्तोत्रम् ।।

भगवान् गणेश समस्त देवताओं द्वारा वन्दनीय तथा विश्वव्यापी देवता हैं । भगवान् गणेश की स्तुति हेतु “श्रीमुद्गलपुराण” में देवर्षि द्वारा वर्णित “श्रीगजाननस्तोत्र” है । इस स्तोत्र का पाठ करने से शत्रु जनित भय का नाश, मारण तथा उच्चाटन आदि क्रियाओं से निवृत्ति होती है तथा सर्वत्र विजय प्राप्ति, यात्रा में उत्तम फल एवं कारागार आदि में पड़े हुए आत्मीयजन बंधन मुक्त हो जाते हैं ।

21 दिनों तक इस स्तोत्र का पाठ करने से सम्पूर्ण सिद्धियों और पुरुषार्थ चतुष्ट्य (धर्म,अर्थ,काम और मोक्ष) की प्राप्ति होती है।
   
                          देवर्षय ऊचु:

विदेहरूपं भवबन्धहारं सदा स्वनिष्ठं स्वसुखप्रदं तम् ।
अमेयसाङ्ख्येन च लक्ष्यमीशं गजाननं भक्तियुतं भजामः ॥ १ ॥

देवर्षि बोले- जो विदेह ( देहाभिमानशून्य ) - रूप से स्थित हैं; भवबन्धन का नाश करने वाले हैं; सदा स्वानन्दरूप में स्थित तथा आत्मानन्द प्रदान करने वाले हैं, उन अमेय सांख्यज्ञान के लक्ष्यभूत भगवान् गजानन का हम भक्तिभाव से भजन करते हैं ।

मुनीन्द्रवन्द्यं विधिबोधहीनं सुबुद्धिदं बुद्धिधरं प्रशान्तम् ।
विकारहीनं सकलाङ्गकं वै गजाननं भक्तियुतं भजामः ॥ २ ॥

जो मुनीश्वरों के लिये वन्दनीय, वेदज्ञान से भी अज्ञेय, उत्तम बुद्धि के दाता, बुद्धिधारी, प्रशान्तचित्त, निर्विकार तथा सर्वांगपूर्ण हैं, उन भगवान् गजानन का हम भक्तिपूर्वक भजन करते हैं ।

अमेयरूपं हृदि संस्थितं तं ब्रह्माहमेकं भ्रमनाशकारम् ।
अनादिमध्यान्तमपाररूपं गजाननं भक्तियुतं भजामः ॥ ३ ॥

जिनका स्वरूप अमेय ( मानातीत ) है; जो हृदय में विराजमान हैं; 'मैं एकमात्र अद्वितीय ब्रह्म हूँ' - यह बोध जिनका स्वरूप है; जो भ्रम का नाश करने वाले हैं; जिनका आदि, मध्य और अन्त नहीं है तथा जो अपाररूप हैं, उन भगवान् गजानन का हम भक्ति-भाव से भजन करते हैं ।

जगत्प्रमाणं जगदीशमेव-मगम्यमाद्यं जगदादिहीनम् ।
अनात्मनां मोहप्रदं पुराणं गजाननं भक्तियुतं भजामः ॥ ४॥

जिनका स्वरूप जगत् को मापने वाला अर्थात् विश्वव्यापी है; इस प्रकार जो जगदीश्वर, अगम्य, सभी के आदि तथा जगत् आदि से हीन हैं तथा जो अनात्मा ( अज्ञानी ) पुरुषों को मोह‌ में डालने वाले हैं, उन पुराण पुरुष गजानन का हम भक्तिभाव से भजन करते हैं ।

न पृथ्विरूपं न जलप्रकाशं न तेजसंस्थं न समीरसंस्थम् ।
न खे गतं पञ्चविभूतिहीनं गजाननं भक्तियुतं भजामः ॥ ५॥

जो न तो पृथ्वी रूप हैं, न जल के रूप में प्रकाशित होते हैं; न तेज, वायु और आकाश में स्थित हैं, उन पंचविध विभूतियों से रहित गजानन का हम भक्ति-भाव से भजन करते हैं ।

न विश्वगं तैजसगं न प्राज्ञं समष्टिव्यष्टिस्थमनन्तगं तम् ।
गुणैर्विहीनं परमार्थभूतं गजाननं भक्तियुतं भजामः ॥ ६ ॥

जो न विश्व में हैं, न तैजस में हैं और न प्राज्ञ ही हैं; जो समष्टि और व्यष्टि-दोनों में विराजमान हैं, उन अनन्तव्यापी, निर्गुण एवं परमार्थस्वरूप भगवान् गजानन का हम भक्ति-भाव से भजन करते हैं ।

गुणेशगं नैव च बिन्दुसंस्थं न देहिनं बोधमयं न ढुण्ढिम् ।
सुयोगहीनं प्रवदन्ति तत्स्थं गजाननं भक्तियुतं भजामः ॥ ७ ॥

जो न तो गुणों के स्वामी (प्रधान) में हैं तथा न बिन्दु में विराजमान हैं; न बोधमय शरीर हैं और न ढुण्ढि ही हैं; जिन्हें ज्ञानीजन सुयोगहीन और योग में स्थित बताते हैं, उन भगवान् गजानन का हम भक्ति-भाव से भजन करते हैं ।

अनागतं ग्रैवगतं गणेशं कथं तदाकारमयं वदामः । 
तथापि सर्वं प्रतिदेहसंस्थं गजाननं भक्तियुतं भजामः ॥ ८॥

जो अनागत (भविष्य) हैं, गज ग्रीवायुक्त हैं, उन भगवान् गणेश को हम उस आकार से युक्त कैसे कहें ! तथापि जो सर्वरूप हैं और प्रत्येक शरीर में अन्तर्यामी रूप से विराजमान हैं, उन भगवान् गजानन का हम भक्ति-भाव से भजन करते हैं । 

यदि त्वया नाथ धृतं न किञ्चि त्तदा कथं सर्वमिदं भजामि ।   
 अतो महात्मानमचिन्त्यमेवं गजाननं भक्तियुतं भजामः ॥ ९॥

हे नाथ ! यदि आपने कुछ भी धारण नहीं किया है, तब हम कैसे इस सम्पूर्ण जगत् की सेवा कर सकते हैं । अतः ऐसे अचिन्त्य महात्मा गजानन का हम भक्ति-भाव से भजन करते हैं ।

सुसिद्धिदं भक्तजनस्य देवं सकामिकानामिह सौख्यदं तम् ।
अकामिकानां भवबन्धहारं गजाननं भक्तियुतं भजामः ॥ १० ॥

जो भक्तजनों को उत्तम सिद्धि देने वाले देवता हैं; सकाम पुरुषों को यहाँ अभीष्ट सौख्य प्रदान करते हैं और निष्काम जनों के भव-बन्धन को हर लेते हैं, उन गजानन का हम भक्ति-भाव से भजन करते हैं ।

सुरेन्द्रसेव्यं ह्यसुरैः सुसेव्यं समानभावेन विराजयन्तम् ।
अनन्तबाहुं मुषकध्वजं तं गजाननं भक्तियुतं भजामः ॥ ११॥ 

जो सुरेन्द्रों के सेव्य हैं और असुर भी जिनकी भलीभाँति सेवा करते हैं; जो समान भाव से सर्वत्र विराजमान हैं; जिनकी भुजाएँ अनन्त हैं और जिनके ध्वज में मूषक का चिह्न है, उन भगवान् गजानन का हम भक्ति-भाव से भजन करते हैं । 

सदा सुखानन्दमयं जले च समुद्रजे इक्षुरसे निवासम् ।
द्वन्द्वस्य यानेन च नाशरूपं गजाननं भक्तियुतं  भजामः ॥ १२ ॥

जो सदा सुखानन्दमय हैं; समुद्र के जल में तथा इक्षुरस में निवास करते हैं; और जो अपने वाहन द्वारा द्वन्द्व का नाश करने वाले हैं, उन भगवान् गजानन का हम भक्ति-भाव से भजन करते हैं । 

चतुःपदार्था विविधप्रकाशास्त एव हस्ताः सचतुर्भुजं तम् ।
अनाथनाथं च महोदरं वै गजाननं भक्तियुतं भजामः ॥ १३ ॥ 

विविध रूप से प्रकाशित होने वाले जो चार पदार्थ (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष) हैं, वे ही जिनके हाथ हैं और उन्हीं हाथों के कारण जो चतुर्भुज हैं, उन अनाथनाथ महोदर भगवान् गजानन का हम भक्ति-भाव से भजन करते हैं ।

महाखुमारूढमकालकालं विदेहयोगेन च लभ्यमानम् ।
अमायिनं मायिकमोहदं तं  गजाननं भक्तियुतं भजाम: ।।१४।।

जो विशाल मूषक पर आरूढ़ हैं, अकालकाल हैं; विदेहात्मक योग से जिनकी उपलब्धि होती है; जो मायावी नहीं हैं, अपितु मायावियों को मोह में डालने वाले हैं, उन भगवान् गजानन का हम भक्तिभाव से भजन करते हैं ।

रविस्वरूपं रविभासहीनं हरिस्वरूपं हरिबोधहीनम् ।
शिवस्वरूपं शिवभासनाशं गजाननं भक्तियुतं भजामः ॥ १५ ॥ 

जो सूर्यस्वरूप होकर भी सूर्य के प्रकाश से रहित हैं; हरिस्वरूप होकर भी हरिबोध से हीन हैं; तथा जो शिवस्वरूप होकर भी शिवप्रकाश के नाशक (उसे तिरोहित कर देनेवाले) हैं, उन भगवान् गजानन का हम भक्तिभाव से भजन करते हैं ।

महेश्वरीस्थं च सुशक्तिहीनं प्रभुं परेशं परवन्द्यमेवम् ।
अचालकं चालकबीजरूपं गजाननं भक्तियुतं भजामः ॥ १६ ॥

महेश्वरी के साथ रहकर भी जो उत्तम शक्ति से हीन हैं; प्रभु, परमेश्वर और पर (दूसरों ) के लिये भी वन्दनीय हैं; अचालक होकर भी जो चालक बीजरूप हैं, उन भगवान् गजानन का हम भक्ति-भाव से भजन करते हैं ।

शिवादिदेवैश्च खगैश्च वन्द्यं नरैर्लतावृक्षपशुप्रमुख्यैः।
चराचरैर्लोकविहीनमेकं गजाननं भक्तियुतं भजामः ॥ १७॥

जो शिवादि देवताओं, पक्षियों, मनुष्यों, लताओं, वृक्षों, प्रमुख पशुओं तथा चराचर प्राणियों के लिये वन्दनीय हैं; ऐसे होते हुए भी जो लोकरहित हैं, उन एक-अद्वितीय भगवान् गजानन का हम भक्ति-भाव से भजन करते हैं ।

मनोवचोहीनतया सुसंस्थं निवृत्तिमात्रं ह्यजमव्ययं तम् ।
तथापि देवं पुरसंस्थितं तं गजाननं भक्तियुतं भजामः ॥ १८ ॥ 

जो मन और वाणी की पहुँच से परे विद्यमान हैं; निवृत्तिमात्र जिनका स्वरूप है; जो अजन्मा और अविनाशी हैं तथापि जो नगर में स्थित देवता हैं, उन भगवान् गजानन का हम भक्ति-भाव से भजन करते हैं ।

वयं सुधन्या गणपस्तवेन तथैव मर्त्यार्चनतस्तथैव । 
गणेशरूपाय कृतास्त्वया तं गजाननं भक्तियुतं भजामः ॥ १९॥

हम गणपति की स्तुति से परम धन्य हो गये । मर्त्यलोक की वस्तुओं से उनका अर्चन करके भी हम धन्य हैं । जिन्होंने हमें गणेशस्वरूप बना लिया है, उन भगवान् गजानन का हम भक्ति-भाव से भजन करते हैं ।

गजास्यबीजं प्रवदन्ति वेदा स्तदेव चिह्नेन च योगिनस्त्वाम् ।
गच्छन्ति तेनैव गजानन त्वां गजाननं भक्तियुतं भजामः ॥ २०॥ 

हे गजानन ! आपके गजमुखरूपी बीज-मन्त्रको वेद बताते हैं; उसी बीजरूप चिह्न से योगी पुरुष आपको प्राप्त होते हैं । आप भगवान् गजानन का हम भक्ति-भाव से भजन करते हैं ।

पुराणवेदाः शिवविष्णुकाद्याः शुक्रादयो ये गणपस्तवे वै । 
विकुण्ठिताः किं च वयं स्तुवीमो गजाननं भक्तियुतं भजामः ॥ २१ ॥

वेद, पुराण, शिव, विष्णु और ब्रह्मा आदि तथा शुक्र आदि भी गणपति की स्तुति में कुण्ठित हो जाते हैं, फिर हम लोग उनकी क्या स्तुति कर सकते हैं? हम गजानन का केवल भक्ति-भाव से भजन करते हैं ।      

                       मुद्गल उवाच

एवं स्तुत्वा गणेशानं नेमुः सर्वे पुनः पुनः। 
तानुत्थाप्य वचो रम्यं गजानन उवाच ह ॥ २२॥

मुद्गल बोले- इस प्रकार गणेश की स्तुति करके समस्त देवर्षियों ने उन्हें बारम्बार नमस्कार किया । तब गजानन ने उन सबको उठाकर उनसे यह मधुर वचन कहा । 
    
                        गजानन उवाच 

बरं ब्रूत महाभागा देवाः सर्षिगणाः परम् । 
स्तोत्रेण प्रीतिसंयुक्तो दास्यामि वाञ्छितं परम् ॥ २३ ॥

गजानन बोले- हे महाभाग देवताओं तथा देवर्षियो ! तुम कोई उत्तम वर माँगो । तुम्हारे इस स्तोत्र से प्रसन्न होकर मैं तुम्हें उत्तम मनोवांछित वर दूँगा ।

गजाननवचः श्रुत्वा हर्षयुक्ताः सुरर्षयः । 
जगुस्तं भक्तिभावेन साश्रुनेत्राः प्रजापते ॥ २४ ॥

हे प्रजापते ! गजानन की यह बात सुनकर देवता और देवर्षि हर्ष से उल्लसित हो, नेत्रों से प्रेमाश्रु बहाते हुए भक्ति-भाव से उनसे इस प्रकार बोले ।
                                 
                      देवर्षय ऊचुः

गजानन यदि स्वामिन् प्रसन्नो वरदोऽसि मे । 
तदा भक्तिं दृढां देहि लोभहीनां त्वदीयकाम् ॥ २५ ॥ 

देवर्षियों ने कहा- हे गजानन ! हे स्वामिन् ! यदि आप प्रसन्न होकर हमें वर देना चाहते हैं तो अपनी लोभशून्य सुदृढ़ भक्ति प्रदान कीजिये ।

लोभासुरस्य देवेश कृता शान्तिः सुखप्रदा । 
तया जगदिदं सर्वं वरयुक्तं कृतं त्वया ॥ २६ ॥ 

हे देवेश्वर ! आपने जो लोभासुर की शान्ति की है, वह परम सुखदायिनी है । उसी से आपने सम्पूर्ण जगत् को वरयुक्त कर दिया ।

अधुना देवदेवेश कर्मयुक्ता द्विजातयः। 
भविष्यन्ति धरायां वै वयं स्वस्थानगास्तथा ॥ २७॥

हे देवदेवेश्वर ! अब द्विजातिगण इस भूतल पर अपने-अपने कर्म में संलग्न होंगे और हम भी अपने-अपने स्थानों में सुख से रहेंगे ।

स्वस्वधर्मरताः सर्वे कृतास्त्वया गजानन । 
अतः परं वरं ढुण्ढे याचमानाः किमप्यहो ॥ २८ ॥ 

हे गजानन ! आपने सब लोगों को अपने-अपने धर्म में तत्पर कर दिया है । हे दुण्ढिराज ! अब इसके बाद भी हम कोई उत्तम वर माँग रहे हैं ।

यदा ते स्मरणं नाथ करिष्यामो वयं प्रभो। 
तदा सङ्कटहीनान् वै कुरु त्वं नो गजानन ॥ २९ ॥ 

हे नाथ ! हे प्रभो ! जब हम आपका स्मरण करें, हे गजानन ! तब आप हम सबको संकटहीन कर दिया करें ।

एवमुक्त्वा प्रणेमुस्तं गजाननमनामयम् । 
तानुवाचाथ प्रीतात्मा भक्ताधीनः स्वभावतः ॥ ३०॥

ऐसा कहकर देवर्षियों ने रोगादि विकारों से रहित गजानन गणेश को प्रणाम किया । तब स्वभावतः भक्तों के अधीन रहने वाले गणेश ने प्रसन्नचित्त होकर उनसे कहा -

                 गजानन उवाच

यद्यच्च प्रार्थितं देवा मुनयः सर्वमञ्जसा । 
भविष्यति न संदेहो मत्स्मृत्या सर्वदा हि वः ॥ ३१ ॥ 

गजानन बोले- हे देवताओं तथा ऋषियो ! आप लोगों ने जो-जो प्रार्थना की है, मेरे स्मरण से आपकी वे सारी प्रार्थनाएँ सर्वदा एवं अनायास पूर्ण हो जायेंगी, इसमें संदेह नहीं है ।

भवत्कृतं मदीयं वै स्तोत्रं सर्वत्र सिद्धिदम् । 
भविष्यति विशेषेण मम भक्तिप्रदायकम् ॥ ३२॥

आप लोगों द्वारा किया गया मेरा यह स्तोत्र सर्वत्र सिद्धि देने वाला होगा, विशेषतः यह स्तोत्र मेरी भक्ति प्रदान करेगा ।

पुत्रपौत्रप्रदं पूर्ण धनधान्यप्रवर्धनम्। 
सर्वसम्पत्करं देवाः पठनाञ्छ्रवणान्नृणाम्।।३३।।

हे देवताओ ! यह स्तोत्र पढ़ने और सुनने से मनुष्यों को पुत्र-पौत्र प्रदान करने वाला, पूर्ण धन-धान्य की वृद्धि करने वाला तथा सम्पूर्ण सम्पदाओं को देने प्रदान करने वाला होगा । 

मारणोच्चाटनादीनि नश्यन्ति स्तोत्रपाठतः । 
परकृत्यं च विप्रेन्द्रा अशुभं नैव बाधते ॥ ३४॥

इस स्तोत्र के पाठ से शत्रुओं द्वारा किये गये मारण और उच्चाटन आदि के प्रयोग नष्ट हो जायँगे । हे विप्रेन्द्र ! दूसरों का किया हुआ आभिचारिक प्रयोग और अशुभ कर्म उसमें कभी बाधा नहीं दे सकेगा ।

संग्रामे जयदं चैव यात्राकाले फलप्रदम् । 
शत्रूच्चाटनादिषु च प्रशस्तं तद्भविष्यति ॥ ३५ ॥ 

*यह स्तोत्र संग्राम में विजय और यात्राकाल में उत्तम फल देनेवाला होगा । शत्रु के उच्चाटन आदि के लिये किया गया इसका प्रयोग श्रेष्ठ सिद्ध होगा ।

कारागृहगतस्यैव बन्धनाशकरं भवेत् । 
असाध्यं साधयेत् सर्वमनेनैव सुरर्षयः ॥ ३६ ॥ 

*जो कारागार में पड़ा हुआ है, उसके द्वारा पढ़ा गया यह स्तोत्र उसके बन्धनों का नाश करने वाला होगा । हे देवर्षियों ! इस स्तोत्र से ही सारा असाध्य साधन करना चाहिये ।

*एकविंशतिवारं च एकविंशदिनावधिम् । 
प्रयोगं यः करोत्येव स सर्वसिद्धिभाग् भवेत् ॥ ३७॥

जो इक्कीस दिनों तक प्रतिदिन इक्कीस बार इसका प्रयोग करता है, वह सम्पूर्ण सिद्धियों का भागी होगा ।

धर्मार्थकाममोक्षाणां ब्रह्मभूतस्य दायकम् । 
भविष्यति न संदेहः स्तोत्रं मद्भक्तिवर्धनम् ॥ ३८ ॥

मेरी भक्ति को बढ़ाने वाला यह स्तोत्र धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष तथा ब्रह्मभाव प्रदान करने वाला होगा; इसमें संदेह नहीं है ।

एवमुक्त्वा गणाधीशस्तत्रैवान्तरधीयत ॥ ३९॥ 

ऐसा कहकर भगवान् गणेश वहीं अन्तर्ध्यान हो गये ।

॥ इति श्रीमुद्गलपुराणे देवर्षिकृतं श्रीगजाननस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

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