दु:ख-द्रारिद्रय की निवृत्ति तथा धन-धान्य की वृद्धि हेतु करें श्री गणेश स्तुति

दु:ख-द्रारिद्रय की निवृत्ति तथा धन-धान्य की वृद्धि हेतु करें श्री गणेश स्तुति

।। श्री गणेश स्तुति ।। 

श्रीब्रह्मपुराण में देवताओं के द्वारा भगवान् गणेश की यह स्तुति की गयी है । भगवान् गणेश को समर्पित इस स्तुति में चौदह (14) श्लोक हैं । इस स्तोत्र का नित्यप्रति प्रातः जो साधक पाठ करता है उसके सभी दुःख-दारिद्रय और कल्मष दूर होते हैं तथा कार्यों में आ रही विघ्न-बाधाओं से मुक्ति प्राप्त होती है ।  

                      देवा ऊचुः

यः सर्वकार्येषु सदा सुराणा- मपीशविष्ण्वम्बुजसम्भवानाम् ।
पूज्यो नमस्यः परिचिन्तनीय: तं विघ्नराजं शरणं व्रजामः ॥१॥

देवता बोले- सदा सब कार्यों में सम्पूर्ण देवता तथा शिव, विष्णु और ब्रह्माजी भी जिनका पूजन, नमस्कार और चिन्तन करते हैं, उन विघ्नराज गणेश की हम शरण ग्रहण करते हैं ।

न विघ्नराजेन समोऽस्ति कश्चिद्- देवो मनोवाञ्छितसम्प्रदाता ।
निश्चित्य  चैतत्त्रिपुरान्तकोऽपि तं पूजयामास वधे पुराणाम् ॥२॥ 

विघ्नराज गणेश के समान मनोवांछित फल देने वाला कोई देवता नहीं है,ऐसा निश्चय करके त्रिपुरारि महादेव जी ने भी त्रिपुरवध के समय पहले उनका पूजन किया था । 

करोतु सोऽस्माकमविघ्नमस्मिन् महाक्रतौ सत्वरमाम्बिकेयः ।
ध्यातेन येनाखिलदेहभाजां पूर्णा भविष्यन्ति मनोऽभिलाषाः ॥३॥

जिनका ध्यान करने से सम्पूर्ण देहधारियों के मनोरथ पूर्ण हो जाते हैं, वे अम्बिकानन्दन गणेश इस (संसृतिरूप) महायज्ञ में शीघ्र ही हमारे विघ्नों का निवारण करें । 

महोत्सवोऽभूदखिलस्य देव्या जातः सुतश्चिन्तितमात्र एव । 
अतोऽवदन् सुरसंघाः कृतार्थाः सद्योजातं विघ्नराजं नमन्तः ॥४॥

देवी पार्वती के चिन्तन मात्र से ही गणेश जी जैसा पुत्र उत्पन्न हो गया, इससे सम्पूर्ण जगत् में महान् उत्सव छा गया है- यह बात उन देवताओं ने अपने मुख से कही थी, जो नवजात शिशु रूप में गणेशजी को नमस्कार करके कृतार्थ हुए थे ।

यो मातुरुत्सङ्गगतोऽथ मात्रा निवार्यमाणोऽपि बलाच्च चन्द्रम् ।
संगोपयामास पितुर्जटासु गणाधिनाथस्य विनोद एषः ॥५॥

माता की गोद में बैठे हुए और माता के मना करने पर भी जिन्होंने पिता के ललाट में  स्थित चन्द्रमा को बलपूर्वक पकड़कर उनकी जटाओं में छिपा दिया, यह गणेशजी का बालविनोद था ।

पपौ स्तनं मातुरथापि तृप्तो यो भ्रातृमात्सर्यकषायबुद्धिः ।
लम्बोदरस्त्वं भव विघ्नराज लम्बोदरं नाम चकार शम्भुः ॥६॥

यद्यपि वे पूर्ण तृप्त थे, तब भी अधिक देर तक माता के स्तनों का दूध इसलिये पीते रहे कि कहीं बड़े भैया कार्तिकेय भी आकर न पीने लगें । उनकी बुद्धि में बालस्वभाववश भाई के प्रति ईर्ष्या भर गयी थी । यह देखकर भगवान् शंकर ने विनोदवश कहा- विघ्नराज ! तुम बहुत दूध पीते हो, इसलिये लम्बोदर हो जाओ ऐसा कहकर उन्होंने उनका नाम 'लम्बोदर' रख दिया । 

संवेष्टितो देवगणैर्महेशः प्रवर्ततां नृत्यमितीत्युवाच ।
सन्तोषितो नूपुररावमात्राद् गणेश्वरत्वेऽभिषिषेच पुत्रम् ॥७॥

देवसमुदाय से घिरे हुए महेश्वर ने कहा- बेटा ! तुम्हारा नृत्य होना चाहिये । यह सुनकर उन्होंने अपने घुँघरू की आवाज से ही शंकरजी को सन्तुष्ट कर दिया । इससे प्रसन्न होकर शिव ने अपने पुत्र को गणेश के पद पर अभिषिक्त कर दिया । 

यो विघ्नपाशं च करेण बिभ्रत् स्कन्धे कुठारं च तथा परेण ।
अपूजितो विघ्नमथोऽपि मातुः करोति को विघ्नपतेः समोऽन्यः ॥८॥  

जो एक हाथ में विघ्नपाश और दूसरे हाथ से कंधे पर कुठार लिये रहते हैं तथा पूजन न पाने पर अपनी माता के कार्य में भी विघ्न डाल देते हैं, उन विघ्नराजके समान दूसरा कौन है ? 

धर्मार्थकामादिषु पूर्वपूज्यो देवासुरैः पूज्यत एव नित्यम् । 
यस्यार्चनं नैव विनाशमेति तं पूर्वपूज्यं प्रथमं नमामि ॥९॥

जो धर्म, अर्थ और काम आदि में सबसे पहले पूजनीय हैं तथा देवता और असुर भी प्रतिदिन जिनकी पूजा करते हैं, जिनके पूजन का फल कभी नष्ट नहीं होता, उन प्रथम पूजनीय गणेश को हम पहले मस्तक नवाते हैं ।

यस्यार्चनात्प्रार्थनयानुरूपां दृष्ट्वा तु सर्वस्य फलस्य सिद्धिम् ।
स्वतन्त्रसामर्थ्यकृतातिगर्वं भ्रातृप्रियं त्वाखुरथं तमीडे ॥१०॥

जिनकी पूजा से सबको प्रार्थना के अनुरूप सब प्रकार के फल की सिद्धि प्राप्त होती है, जिन्हें अपने स्वतन्त्र सामर्थ्य पर अत्यन्त गर्व है, उन बन्धुप्रिय मूषक-वाहन गणेशजी की हम स्तुति करते हैं ।

यो मातरं सरसैर्नृत्य गीतै: तथाभिलाषैरखिलैर्विनोदैः।
सन्तोषयामास तदातितुष्टं तं श्रीगणेशं शरणं प्रपद्ये ॥११॥

जिन्होंने अपने सरस संगीत, नृत्य, समस्त मनोरथों की सिद्धि तथा विनोद के द्वारा माता पार्वती को पूर्ण सन्तुष्ट किया है, उन अत्यन्त सन्तुष्ट हृदय वाले श्रीगणेशजी की हम शरण लेते हैं ।

सुरोपकारैरसुरैश्च युद्धैः स्तोत्रैर्नमस्कारपरैश्च मन्त्रैः ।
पितृप्रसादेन सदा समृद्धं तं श्रीगणेशं शरणं प्रपद्ये ॥१२॥

देवताओं के प्रति किये गये उपकारों, असुरों के साथ किये गये युद्धों, स्तोत्रों तथा नमस्कार युक्त मन्त्रों और पिता के कृपा-प्रसाद से समृद्धिशाली उन श्रीगणेश की हम शरण ग्रहण करते हैं ।

जये पुराणामकरोत् प्रतीपं पित्रापि हर्षात् प्रतिपूजितो यः।
निर्विघ्नतां चापि पुनश्चकार तस्मै गणेशाय नमस्करोमि ॥१३॥

त्रिपुरासुर के साथ युद्ध के समय शिवजी के भी विजय में जिन्होंने विघ्न उत्पन्न कर दिया, तत्पश्चात् पिताजी के द्वारा प्रेमपूर्वक पूजित होनेपर जिन्होंने पुनः कार्य को निर्विघ्न कर दिया, उन श्रीगणेश को हम नमस्कार करते हैं ।
                  गणेश उवाच 

स्तोत्रेणानेन ये भक्त्या मां स्तोष्यन्ति यतव्रताः । 
तेषां दारिद्र्यदुःखानि न भवेयुः कदाचन ॥ १४॥ 

गणेशजी बोले- जो संयमी इस स्तोत्र से भक्तिपूर्वक मेरा स्तवन् करेंगे, उन्हें दरिद्रता और दुःख कभी नहीं प्राप्त होगा । 

॥ इति श्रीब्रह्मपुराणे देवकृता श्रीगणेशस्तुतिः सम्पूर्णा ॥

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