पत्नी,पुत्र,विद्या,गृह, सम्पत्ति आदि की प्राप्ति के लिए सुनें या करें श्री गणेश महिम्न स्तोत्र का पाठ

पत्नी,पुत्र,विद्या,गृह, सम्पत्ति आदि की प्राप्ति के लिए सुनें या करें श्री गणेश महिम्न स्तोत्र का पाठ

।। श्री गणेशमहिम्न: स्तोत्र ।। 

भगवान् शिव एवं गणपति के अनन्य भक्त श्रीपुष्पदन्तजी द्वारा विरचित इस स्तोत्र में भगवान् गणेश की महिमा का विस्तृत वर्णन इकत्तीस (31) श्लोकों में किया गया है ।

स्तोत्र पाठ के लाभ :

  • आत्मानन्द की प्राप्ति ।
  • यात्रा की निर्विघ्न पूर्ति तथा उद्देश्य की प्राप्ति ।
  • मोक्ष प्राप्ति ।
  • विद्या-ऐश्वर्य तथा धन की प्राप्ति ।
  • सुलक्षणा पत्नी एवं सुपुत्र की प्राप्ति । 

अनिर्वाच्यं रूपं स्तवननिकरो यत्र गणित-
                  स्तथा वक्ष्ये स्तोत्रं प्रथमपुरुषस्यात्र महतः। 
यतो जातं विश्वं स्थितमपि सदा यत्र विलयः
                  स कीदृग्गीर्वाणः सुनिगमनुतः श्रीगणपतिः ॥१॥ 

श्रीगणेशजी का रूप अनिर्वचनीय है और जिनकी अनेक स्तुतियाँ की गयी हैं तथापि उन महत्तम परम पुरुष का स्तवन् करने को मैं उद्यत हूँ। जिनसे संसार की उत्पत्ति, स्थिति तथा संहारादि कार्य सदा होते रहते हैं, उन वेदवन्दित भगवान् श्रीगणपति की स्तुति वाणी से कैसे सम्भव है ? 

गणेशं गाणेशाः शिवमिति च शैवाश्च विबुधा, 
                   रविं सौरा विष्णुं प्रथमपुरुषं विष्णुभजकाः। 
वदन्त्येके शाक्ता जगदुदयमूलां परशिवां,
                   न जाने किं तस्मै नम इति परं ब्रह्म सकलम् ॥२॥ 

जिन्हें भगवान् गणेश के भक्त गणेश कहते हैं, शिव के विद्वान् भक्त शिव कहते हैं, सूर्य के भक्त सूर्य कहते हैं, विष्णु के भक्त प्रथम पुरुष विष्णु कहते हैं, शक्ति की उपासना करने वाले जगत् की उत्पत्ति का मूल पराशक्ति शिवा कहते हैं, मुझे ज्ञात नहीं वे वस्तुतः क्या हैं ? उन सम्पूर्ण कलायुक्त परब्रह्म को मेरा नमस्कार है । 

तथेशं योगज्ञा गणपतिमिमं कर्म निखिलं,
                   समीमांसा वेदान्तिन इति परं ब्रह्म सकलम् ।
अजां साङ्ख्यो ब्रूते सकलगुणरूपां च सततं
                   प्रकर्तारं न्यायस्त्वथ जगति बौद्धा धियमिति ॥३॥ 

इन श्री गणपति को ही योग के तत्त्व को जानने वाले ईश्वर कहते हैं, पूर्वमीमांसक सम्पूर्ण कर्म कहते हैं, (उत्तर मीमांसक) वेदान्ती लोग पूर्ण परब्रह्म कहते हैं, सांख्यवादी सर्वगुणमयी अनादि प्रकृति कहते हैं, नैयायिक लोग संसार का कर्ता मानते हैं और बौद्ध लोग बुद्धि कहते हैं ।

कथं ज्ञेयो बुद्धेः परतर इयं बाह्यसरणि-
                   र्यथा धीर्यस्य स्यात्स च तदनुरूपो गणपतिः । 
महत्कृत्यं तस्य स्वयमपि महान् सूक्ष्ममणुवद्
                   धृतिर्ज्योतिर्बिन्दुर्गगनसदृशः किञ्च सदसत् ॥४॥

उस परतर परमात्मा के वास्तविक रूप का ज्ञान बुद्धिगम्य नहीं है, क्योंकि यह बुद्धि के बाहर की बात है। जिसकी जैसी धारणा होती है, उसे गणपति उसी रूप में प्राप्त होते हैं। उनके कृत्य महान् हैं, वे स्वयं भी महत्तम तथा अणु से भी सूक्ष्मतम हैं। धृति, ज्योति, बिन्दु, आकाश आदि सब उन्हीं के रूप हैं। वे ही सत् तथा असत् रूप से सर्वत्र विद्यमान हैं ।

अनेकास्योऽपाराक्षिकरचरणोऽनन्तहृदय-
                   स्तथा नानारूपो विविधवदनः श्रीगणपतिः । 
अनन्ताह्व: शक्त्या विविधगुणकर्मैकसमये 
                   त्वसङ्ख्यातानन्ताभिमतफलदोऽनेकविषये ॥५॥

श्री गणपति अनेक मुखों से युक्त हैं, अपार नेत्र, हाथ तथा चरणों वाले हैं, वे अनन्त हृदय वाले हैं, विविध रूपों वाले हैं, विविध प्रकार के मुखों वाले हैं, उनके न नामों का अन्त है और न शक्ति का अन्त है, क्योंकि नाना प्रकार के गुण एवं कर्मों का सम्पादन वे एक काल में करते हैं । अपने भक्तों को अनेक प्रकार के असंख्य, अनन्त मनोवांछित फल वे एक साथ प्रदान करते रहते हैं ।

न यस्यान्तो मध्यो न च भवति चादिः सुमहता-
                   मलिप्तः कृत्वेत्थं सकलमपि खंवत् स च पृथक् । 
स्मृतः संस्मतॄणां सकलहृदयस्थः प्रियकरो
                   नमस्तस्मै देवाय सकलसुरवन्द्याय महते ॥६॥

परमात्मास्वरूप श्रीगणेशजी का न आदि है, न अन्त है और न मध्य है। वे सब कुछ करते हुए भी आकाश की तरह अलिप्त रहते हैं । वे स्मरण करने वाले भक्तों द्वारा सदा वन्दित होकर उनके हृदयों में अन्तर्यामी रूप से विराजमान रहते हैं तथा उनका कल्याण करते रहते हैं। सभी देवताओं के वन्दनीय उन महान् देव को मेरा नमस्कार है ।

गणेशाद्यं बीजं दहनवनितापल्लवयुतं 
                   मनुश्चैकार्णोऽयं प्रणवसहितोऽभीष्टफलदः । 
सबिन्दुश्चाङ्गाद्यां गणकऋषिछन्दोऽस्य च निचृत्, 
                   स देवः प्राग्बीजं विपदपि च शक्तिर्जपकृताम् ॥७॥

हे गणेश ! आपका मूल बीजमन्त्र (गं) एकाक्षर है, जो बिन्दु, अंगादि और प्रणव के सहित अभीष्ट फल को प्रदान करता है। इस मन्त्र के ऋषि गणक, छन्द निचृत् एवं देवता गणपति हैं। विपत्तिकाल में बीजाक्षर सहित इस मन्त्र (ॐ गं गणपतये नमः) का जप करने से भक्तों को शक्ति प्राप्त होती है ।

गकारो हेरम्बः सगुण इति पुन्निर्गुणमयो, 
                  द्विधाऽप्येको जातः प्रकृतिपुरुषो ब्रह्म हि गणः ।
स चेशश्चोत्पत्तिस्थितिलयकरोऽयं प्रथमको,
                  यतो भूतं भव्यं भवति पतिरीशो गणपतिः ॥८॥

गकार हेरम्ब (माता अम्बा के पुत्र) सगुण प्रकृति तत्त्व हैं और निर्गुण पुरुषतत्त्व भी हैं। एक होते हुए भी प्रकृति और पुरुष रूप में दो प्रकार से विभक्त हुआ वह ब्रह्म ही गण है। वे ही परमात्मा उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलय करने वाले हैं, वे गणपति ही आदिदेव हैं, जिनसे भूत, भविष्य तथा वर्तमान होते हैं, ये गणपति सबके पति तथा ईश हैं ।

गकारः कण्ठोर्ध्वं गजमुखसमो मर्त्यसदृशो
                  णकारः कण्ठाधो जठरसदृशाकार इति च ।
अधोभागः कट्यां चरण इति हीशोऽस्य च तनु-
                  र्विभातीत्थं नाम त्रिभुवनसमं भूर्भुवः सुवः ॥९॥ 

गजमुखाकार 'ग' कण्ठ के ऊर्ध्वभाग में स्थित मृत्युलोक सदृश है, 'णकार' जठराकार होकर कण्ठ के अधोभाग में स्थित है और शकार कटि के अधोभाग में चरण बनकर स्थित है। इस प्रकार श्रीगणपति का गणेश नाम भूर्भुवः तथा सुवरूप त्रिभुवन के समान सुशोभित हो रहा है ।

गणेशेति त्र्यर्णात्मकमपि वरं नाम सुखदं, 
                 सकृत्प्रोच्चैरुच्चारितमिति नृभिः पावनकरम् । 
गणेशस्यैकस्य प्रतिजपकरस्यास्य सुकृतं, 
                 न विज्ञातो नाम्नः सकलमहिमा कीदृशविधः ॥१०॥

तीन वर्णों का जो यह 'गणेश' ऐसा सुखद एवं सुन्दर नाम है, वह मनुष्यों के द्वारा एक बार भी उच्च स्वर से उच्चारण किये जाने पर उन्हें पवित्र कर देता है। एक बार भी 'गणेश' नाम का जप करने वाले का पुण्य फल नहीं जाना जा सकता है, तो उनके नाम की सम्पूर्ण महिमा कितनी है, इसे कौन जान सकता है ।

गणेशेत्याह्वां यः प्रवदति मुहुस्तस्य पुरतः, 
                प्रपश्यंस्तद्वक्त्रं स्वयमपि गणस्तिष्ठति तदा ।
स्वरूपस्य ज्ञानं त्वमुक इति नाम्नास्य भवति, 
                प्रबोधः सुप्तस्य त्वखिलमिह सामर्थ्यममुना ॥११॥

जिस भक्त की जिह्वा में 'गणेश' ऐसा नाम उच्चरित होता है, सम्पूर्ण गणरूपा सृष्टि उसके सामने उसके मुख की ओर बार-बार निहारती रहती है। इस नाम जप में स्वरूप ज्ञान कराने का ऐसा सामर्थ्य है - जैसे किसी सोये हुए व्यक्ति को उसका नाम लेकर पुकारने पर हो जाता है । 

गणेशो विश्वेऽस्मिन्स्थित इह च विश्वं गणपतौ 
                गणेशो यत्रास्ते धृतिमतिरमैश्वर्यमखिलम् । 
समुक्तं नामैकं गणपतिपदं मङ्गलमयं 
                तदेकास्यं दृष्टेः सकलविबुधास्येक्षणसमम् ॥१२॥ 

ब्रह्मरूप श्रीगणपति सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त हैं एवं सम्पूर्ण विश्व उन गणपति में व्याप्त है। जहाँ मूर्तिमान् श्रीगणेशजी अधिष्ठित होते हैं, वहाँ नैसर्गिक धृति, मति तथा सम्पूर्ण समृद्धि विद्यमान रहती है। श्रीगणेशजी का सम्यक् रीति से उच्चारण किया हुआ एक भी नाम सभी मंगलों का दाता है एवं श्रीगणपति जी का एक बार दर्शन भी समस्त देवताओं के दर्शन के समान कल्याणकारी है । 

बहुक्लेशैर्व्याप्तैः स्मृत उत गणेशे च हृदये, 
                 क्षणात्क्लेशान्मुक्तो भवति सहसा त्वभ्रचयवत् । 
वने विद्यारम्भे युधि रिपुभये कुत्र गमने, 
                 प्रवेशे प्राणान्ते गणपतिपदं चाशु विशति ॥१३॥

हृदय में गणेश का स्मरण करने पर अनेक कष्टों से सन्तप्त व्यक्ति भी क्षणभर‌ में [वेगपूर्वक वायु के द्वारा बिखेरे गये] बादल के समान क्लेश से मुक्त हो जाता है। इसी प्रकार दुर्गम वनप्रान्त में, विद्यारम्भ में, युद्धादि में, शत्रुभय में, [देश-देशान्तर की] यात्रामें, प्रवेशकाल में, मृत्यु के समय में गणपति का नामस्मरण करने से साधक भक्त शीघ्र ही गणेशजी के पादपद्मों की शरण प्राप्त कर लेता है ।

गणाध्यक्षो ज्येष्ठः कपिल अपरो मङ्गलनिधि- 
                र्दयालुहेरम्बो वरद इति चिन्तामणिरजः । 
वरानीशो ढुण्ढिर्गजवदननामा शिवसुतो 
                 मयूरेशो गौरीतनय इति नामानि पठति ॥१४॥

गणाध्यक्ष, ज्येष्ठ, कपिल, अपर, मंगलनिधि, दयालु, हेरम्ब, वरद, चिन्तामणि, अज, वरानीश (श्रेष्ठ अनीश्वर), ढुंढि, गजवदन, शिवसुत, मयूरेश, गौरीतनय-इन नामों का जो पाठ करता है, [उसका कल्याण होता है]। 

महेशोऽयं विष्णुः सुकविरविरिन्दुः कमलजः 
                क्षितिस्तोयं वह्निः श्वसन इति खं त्वद्रिरुदधिः । 
कुजस्तारः शुक्रो गुरुरुडुबुधोऽगुश्च धनदो 
                यमः पाशी काव्यः शनिरखिलरूपो गणपतिः ॥१५॥

ये गणपति ही शिव, विष्णु, प्रकाशरूप सूर्य, चन्द्र, ब्रह्मा, पृथिवी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, पर्वत, समुद्र, मंगल, शुक्र, गुरु, बुध, राहु तथा शनि [आदि ग्रह नक्षत्र], कुबेर, यम, वरुण आदि-इन सभी रूपों में विराजमान हैं ।

मुखं वह्निः पादौ हरिरपि विधाता प्रजननं 
              रविर्नेत्रे चन्द्रो हृदयमपि कामोऽस्य मदनः। 
करौ शक्रः कट्यमवनिरुदरं भाति दशनं 
               गणेशस्यासन्वै क्रतुमयवपुश्चैव सकलम् ॥१६ ॥

गणेशजी का मुख अग्निस्वरूप है, उनके दोनों चरण विष्णु स्वरूप हैं, उनकी जननेन्द्रिय ब्रह्मा स्वरूप है, उनके दोनों नेत्र सूर्य एवं चन्द्रस्वरूप हैं, उनका हृदय कामदेव स्वरूप है, उनके हाथ इन्द्रस्वरूप हैं, कटिप्रदेश पृथ्वी स्वरूप और उदर कवच की भाँति सुशोभित है। श्रीगणेश का सम्पूर्ण विग्रह यज्ञस्वरूप है ।

अनर्घ्यालङ्कारैररुणवसनैर्भूषिततनुः 
               करीन्द्रास्यः सिंहासनमुपगतो भाति बुधराट् । 
स्मितः स्यात्तन्मध्येऽप्युदितरविबिम्बोपमरुचिः 
               स्थिता सिद्धिर्वामे मतिरितरगाचामरकरा ॥१७॥

बहुमूल्य अलंकारों तथा अरुण वर्ण के वस्त्रों से भूषित शरीर वाले, गजराज के समान मुख वाले और ज्ञानियों में सर्वश्रेष्ठ गणेशजी सिंहासन पर बैठे हुए सुशोभित हो रहे हैं। उनकी खिली मुसकान में उदयकालीन सूर्य बिम्ब के समान कान्ति है। हाथों में चामर धारण किये भगवती सिद्धि उनके वाम भाग में तथा बुद्धि दायें भाग में स्थित हैं ।

समन्तात्तस्यासन्प्रवरमुनिसिद्धाः सुरगणाः 
              प्रशंसन्तीत्यग्रे विविधनुतिभिः साञ्जलिपुटाः । 
विडौजाद्यैर्ब्रह्मादिभिरनुवृतो भक्तनिकरै-
              र्गणक्रीडामोदप्रमुदविकटाद्यैः सहचरैः ॥१८॥

श्रीगणेशजी को सभी ओर से घेरकर उनके सम्मुख श्रेष्ठ मुनिगण, सिद्धगण, देवतागण अंजलिबद्ध होकर नाना प्रकार की स्तुतियों से उनकी वन्दना कर रहे हैं। इन्द्र तथा ब्रह्मा आदि देवताओं, भक्त-वृन्दों, क्रीडा- आमोद-प्रमोद करने वाले विकट आदि गणों तथा अन्य सहचरों से ये गणेश जी सदा घिरे रहते हैं ।

वशित्वाद्यष्टादशदिगखिलाल्लोलमनुवाग्- 
              दृतिः पादूःखड्गोऽञ्जनरसबलाः सिद्धय इमाः ।
सदा पृष्ठे तिष्ठन्त्यनिमिषदृशस्तन्युखलया,
              गणेशं सेवन्तेऽप्यतिनिकटसूपायनकराः ॥१९॥

वशित्व आदि अठारह सिद्धियाँ समस्त दिशाओं में पदत्राण, खड्ग अंजन आदि से विभूषित होकर वेदध्वनि करती हुई, हाथों में उपहार-सामग्री लेकर सदा पीठ की ओर रहकर निर्निमेष ( विना पलक झपकाये)दृष्टि से गणेशजी की ओर उन्मुख होकर उनके समीप में सेवारत रहती हैं ।

मृगाङ्कास्या रम्भाप्रभृतिगणिका यस्य पुरतः 
              सुसंगीतं कुर्वन्त्यपि कुतुकगन्धर्वसहिताः । 
मुदः पारो नात्रेत्यनुपमपदे दोर्विगलिता 
              स्थिरं जातं चित्तं चरणमवलोक्यास्य विमलम् ॥२०॥

चन्द्रमा के समान मुख वाली रम्भा आदि अप्सराएँ कुतुक गन्धर्वों के साथ जिन श्रीगणेश के समक्ष उत्तम नृत्य-संगीत प्रस्तुत कर रही थीं, उनके विमल चरणों का दर्शन कर लेने पर उनका चित्त शान्त हो गया और अनुपम स्थिति में विलीन होने के कारण उनके आनन्द की सीमा न रही तथा उनके हस्तसंचालन शिथिल हो गये ।

हरेणायं ध्यातस्त्रिपुरमथने चासुरवधे 
               गणेशः पार्वत्या बलिविजयकालेऽपि हरिणा ।
 विधात्रा संसृष्टावुरगपतिना क्षोणिधरणे 
               नरैः सिद्धौ मुक्तौ त्रिभुवनजये पुष्पधनुषा ॥२१॥

भगवान् शंकर ने त्रिपुरासुर के नाश करते समय इन श्रीगणेश का ध्यान किया था, पार्वतीजी ने असुरों के संहार के समय तथा भगवान् विष्णु ने [असुरराज] बलि पर विजय प्राप्त करने के समय इन गणाधिप का स्मरण किया था । ब्रह्मा ने सृष्टि के समय में तथा शेषजी ने पृथिवी धारण करते समय गणेशजी का स्मरण किया था । कामदेव ने त्रिभुवन विजय के लिये तथा मनुष्यों ने सिद्धि एवं मुक्ति प्राप्ति हेतु श्रीगणेशजी का स्मरण किया है ।

अयं सुप्रासादे सुर इव निजानन्दभुवने 
              महान् श्रीमानाद्ये लघुतरगृहे रङ्कसदृशः। 
शिवद्वारे द्वाःस्थो नृप इव सदा भूपतिगृहे 
              स्थितो भूत्वोमाङ्के शिशुगणपतिर्लालनपरः ॥२२॥

श्रीगणेशजी देवालयों में देवता के रूप में, निजानन्द भुवन में महान् एवं श्रीमान् के रूप में तथा अकिंचनों के गृह में तापस रूप में, भगवान् शंकर के द्वार पर द्वारपाल के रूप में, राजाओं के राजमहलों में राजा के रूप में और माता उमा की गोद में प्यार लेने के लिये शिशु के रूप में विराजते हैं [अर्थात् वे सर्वव्यापी हैं ] ।

अमुष्मिन्सन्तुष्टे गजवदन एवापि विबुधे 
               ततस्ते सन्तुष्टास्त्रिभुवनगताः स्युर्बुधगणाः । 
दयालुहेरम्बो न च भवति यस्मिंश्च पुरुषे 
               यथा सर्वं तस्य प्रजननमतः सान्द्रतमसि ॥२३॥

इन गजानन भगवान् गणेश के प्रसन्न रहने पर त्रिलोकी के सभी देवता प्रसन्न होते हैं। जिस मनुष्य के ऊपर गणेश की कृपा नहीं होती, उसका सम्पूर्ण जन्म व्यर्थ हो जाता है तथा वह घोर अन्धकार में भटकता रहता है ।

वरेण्यो भूशुण्डिर्भृगुगुरुकुजमुद्गलमुखा-
                ह्यपारास्तद्भक्ता जपहवनपूजास्तुतिपराः । 
गणेशोऽयं भक्तप्रिय इति च सर्वत्र गदितं 
                विभक्तिर्यत्रास्ते स्वयमपि सदा तिष्ठति गणः ॥२४॥

श्रेष्ठ भुशुण्डि, भृगु, गुरु, मंगल, मुद्गल आदि अनेक प्रधान भक्त हुए हैं, जो उनके जप, हवन, पूजन, स्तवन् आदि में सदा संलग्न रहते थे। ये श्रीगणनाथ भक्तवत्सल हैं- यह बात सर्वत्र कही गयी है। जहाँ [भक्तों के द्वारा ] उनकी विशेष भक्ति होती है, वहाँ गणपति स्वयं विराजमान रहते हैं ।

मृदः काश्चिद्धातोश्छदविलिखिता वापि दृषदः 
                स्मृता व्याजान्मूर्तिः पथि यदि बहिर्येन सहसा । 
अशुद्धोऽद्धा द्रष्टा प्रवदति तदाह्वां गणपतेः 
                 रुतः शुद्धो मर्त्यो भवति दुरिताद्विस्मय इति ॥२५॥

यात्रा के समय, बाहर मार्ग में यदि गणेशजी की मूर्ति मिट्टी की या धातु की अथवा शिला पर अंकित ही मिल जाय, तो उनके दर्शन से गणपति-ऐसा नाम लेने से अथवा स्मरण करने से दुष्कर्म करने वाला मन्दभाग्य मनुष्य भी पाप से मुक्त होकर शुद्ध हो जाता है - यह आश्चर्य है ।

बहिर्द्वारस्योर्ध्वं गजवदनवर्षोन्धनमयं 
                 प्रशस्तं वा कृत्वा विविधकुशलैस्तत्र निहतम् ।
 प्रभावात्तन्मूर्त्या भवति सदनं मङ्गलमयं 
                 त्रिलोक्यानन्दस्तां भवति जगतो विस्मय इति ॥२६॥

बाहर द्वार के ऊपर यदि गजानन गणेशजी की पाषाण की, काष्ठ की या किसी भी प्रशस्त धातु की प्रतिमा कुशल कारीगरों से निर्मित कराकर लगायी जाये, तो उस मूर्ति के प्रभाव से सम्पूर्ण भवन मंगलमय हो जाता है तथा उसे देखकर जगत् में आनन्द व्याप्त होता है- यह आश्चर्य है । 

सिते भाद्रे मासि प्रतिशरदि मध्याह्नसमये 
                 मृदो मूर्तिं कृत्वा गणपतितिथौ दुण्ढिसदृशीम् । 
समर्चत्युत्साहः प्रभवति महान् सर्वसदने 
                 विलोक्यानन्दस्तां प्रभवति नृणां विस्मय इति ॥२७॥

प्रत्येक वर्ष शरद् ऋतु में भाद्रमास के शुक्लपक्ष की गणेशचतुर्थी को दुण्ढिसदृश मिट्टी की मूर्ति बनाकर मध्याह्न में पूजन-अर्चन करने से सभी सदनों में महान् उत्साह व्याप्त होता है और उस मूर्ति को देखकर मनुष्यों को आनन्द प्राप्त होता है- यह आश्चर्य है । 

तथा ह्येक: श्लोको वरयति महिम्नो गणपतेः 
                 कथं स श्लोकेऽस्मिन् स्तुत इति भवेत्सम्प्रपठिते । 
स्मृतं नामास्यैकं सकृदिदमनन्ताह्वयसमं 
                  यतो यस्यैकस्य स्तवनसदृशं नान्यदपरम् ॥२८॥ 

इस श्रीगणपति के महिम्न का एक श्लोक भी स्तवन् में प्रयोग करने से गणेशजी अच्छी प्रकार से पाठ किये गये सम्पूर्ण स्तोत्र के समान कैसे संस्तुत हो जाते हैं ? गणेशजी का एक नाम भी एक बार स्मरण करने से अनन्त नामोच्चारण का फल प्राप्त हो जाता है। इसलिये इन एक [श्रीगणेश]-के स्तवन् के समान अन्य कुछ नहीं है ।

गजवदन विभो यद्वर्णितं वैभवं ते
                 त्विह जनुषि ममेत्थं चारु तद्दर्शयाशु । 
त्वमसि च करुणायाः सागरः कृत्स्नदाता- 
                 प्यति तव भृतकोऽहं सर्वदा चिन्तकोऽस्मि ॥२९॥

हे गजवदन ! अपनी शक्ति और बुद्धि के अनुसार मैंने आपकी महिमा का वर्णन किया, आप कृपा करके मुझे इसी जन्म में शीघ्र उस वैभव का दर्शन कराइये। आप कृपा के सागर हैं, आप भक्तों‌ को सब कुछ दे देते हैं, मैं आप का दास हूँ और सदा आपका चिन्तन करने वाला हूँ ।

सुस्तोत्रं प्रपठतु नित्यमेतदेव 
                 स्वानन्दं प्रतिगमनेऽप्ययं सुमार्गः ।
 सन्चिन्त्य स्वमनसि तत्पदारविन्दं
                 स्थाप्याग्रे स्तवनफलं नतीः करिष्ये ॥३०॥

इस मंगलमय स्तोत्र का नित्य पाठ करने से आत्मानन्द प्राप्त होता है। यात्रा के समय पाठ करने से मार्ग शुभ हो जाता है। मैं श्रीगणेशजी के चरणकमल का चिन्तन करता हुआ इस स्तवन् के फल को सामने रखकर प्रणाम करता हूँ । 

गणेशदेवस्य माहात्म्यमेत
                  द्यः श्रावयेद्वापि पठेच्च तस्य ।
क्लेशा लयं यान्ति लभेच्च शीघ्रं
                  स्त्रीपुत्रविद्यार्थगृहं च मुक्तिम् ॥३१॥

जो भगवान् गणेशजी के इस महिम्न को दूसरों को सुनायेगा अथवा स्वयं इसका पाठ करेगा, उसके सभी दुःख समाप्त हो जायँगे और वह शीघ्र ही स्त्री, पुत्र, विद्या, सम्पत्ति, गृह तथा मोक्ष को प्राप्त करेगा । 

॥ इति श्रीपुष्पदन्तविरचितं श्रीगणेशमहिम्नः स्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

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