शिवरक्षास्तोत्रम् का महत्व और इसके प्रभावशाली लाभ

शिवरक्षास्तोत्रम् का महत्व और इसके प्रभावशाली लाभ

।। शिवरक्षास्तोत्रम् ।।

महर्षि याज्ञवल्क्य द्वारा विरचित “श्रीशिवरक्षाकवच” साधक की चारों दिशाओं से रक्षा करती है  । इसमें भगवान् विश्वेश्वर के विभिन्न नामों के द्वारा रक्षा के लिए प्रार्थना की गयी है । इस विद्या का दूसरा नाम “अभयंकर कवच” है । इस स्तोत्र को भगवान् नारायण ने महर्षि याज्ञवल्क्य को स्वप्न में उपदेश दिया ।

विनियोगः – ॐ श्रीशिवरक्षास्तोत्रमन्त्रस्य याज्ञवल्क्य ऋषिः, श्रीसदाशिवो देवता, अनुष्टुप् श्रीसदाशिवप्रीत्यर्थं शिवरक्षास्तोत्रजपे विनियोगः ।

विनियोग - इस शिवरक्षास्तोत्रमन्त्र के याज्ञवल्क्य ऋषि हैं, श्रीसदाशिव देवता हैं और अनुष्टुप् छन्द है, श्रीसदाशिव की प्रसन्नता के लिये शिवरक्षास्तोत्र के जप में इसका विनियोग किया जाता है।

चरितं देवदेवस्य महादेवस्य पावनम् ।
अपारं परमोदारं चतुर्वर्गस्य साधनम् ॥१॥

देवाधिदेव महादेव का यह परम पवित्र चरित्र चतुर्वर्ग (धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष) की सिद्धि प्रदान करने वाला साधन है, यह अतीव उदार है। इसकी उदारता का पार नहीं है ।

गौरीविनायकोपेतं पञ्चवक्त्रं त्रिनेत्रकम् ।
शिवं ध्यात्वा दशभुजं शिवरक्षां पठेन्नर : ॥२॥

साधक को गौरी और विनायक से युक्त, पाँच मुखवाले दश भुजाधारी त्र्यम्बक भगवान् शिव का ध्यान करके शिवरक्षास्तोत्र का पाठ करना चाहिये ।

गङ्गाधरः शिरः पातु भालमर्धेन्दुशेखरः ।
नयने मदनध्वंसी कर्णो सर्पविभूषणः ॥३॥

गंगा को जटाजूट में धारण करने वाले गंगाधर शिव मेरे मस्तक की, शिरोभूषणके रूप में अर्धचन्द्र को धारण करने वाले अर्धेन्दुशेखर मेरे ललाट की, मदन को ध्वंस करने वाले मदनदहन मेरे दोनों नेत्रों की, सर्प को आभूषण के रूप में धारण करने वाले सर्पविभूषण शिव मेरे कानों की रक्षा करें ।

घ्राणं पातु पुरारातिर्मुखं पातु  जगत्पति: ।
जिह्वां वागीश्वरः पातु कन्धरां शितिकन्धर: ॥४॥

त्रिपुरासुर के विनाशक पुराराति मेरे प्राण (नाक)-की, जगत्‌ की रक्षा करने वाले जगत्पति मेरे मुख की, वाणी के स्वामी वागीश्वर जिह्वा की, शितिकन्धर (नीलकण्ठ) मेरी गर्दन की रक्षा करें ।

श्रीकण्ठः पातु मे कण्ठं स्कन्धौ विश्वधुरन्धरः ।
भुजौ भूभारसंहर्ता करौ पातु पिनाकधृक् ॥५॥

श्री अर्थात् सरस्वती यानी वाणी निवास करती हैं जिनके कण्ठ में, ऐसे श्रीकण्ठ मेरे कण्ठ की, विश्व की धुरी को धारण करने वाले विश्वधुरन्धर शिव मेरे दोनों कन्धों की, पृथ्वी के भारस्वरूप दैत्यादि का संहार करने वाले भूभारसंहर्ता शिव मेरी दोनों भुजाओं की, पिनाक धारण करने वाले पिनाकधृक् मेरे दोनों हाथों की रक्षा करें ।

हृदयं शङ्करः पातु जठरं गिरिजापतिः ।
नाभिं मृत्युञ्जयः पातु कटी व्याघ्राजिनाम्बरः ॥६॥

भगवान् शंकर मेरे हृदय की और गिरिजापति मेरे जठरदेश की रक्षा करें । भगवान् मृत्युंजय मेरी नाभि की रक्षा करें तथा व्याघ्रचर्म को वस्त्ररूप में धारण करने वाले भगवान् शिव मेरे कटि-प्रदेश की रक्षा करें ।

सक्थिनी पातु दीनार्तशरणागतवत्सलः ।
ऊरू महेश्वरः पातु जाननी जगदीश्वरः ॥७॥

दीन, आर्त और शरणागतों के प्रेमी-दीनार्तशरणागतवत्सल मेरे समस्त सक्थियों (हड्डियों) की, महेश्वर मेरे ऊरुओं तथा जगदीश्वर मेरे जानुओं की रक्षा करें ।

जंघे पातु जगत्कर्ता गुल्फौ पातु गणाधिपः। 
चरणौ करुणासिन्धुः सर्वाङ्गानि सदाशिवः ॥८॥

जगत्कर्ता मेरे जङ्घाओं की, गणाधिप दोनों गुल्फों (एड़ीकी ऊपरी ग्रन्थि)-की, करुणासिन्धु दोनों चरणों की तथा भगवान् सदाशिव मेरे सभी अंगों की रक्षा करें  ।

एतां शिवबलोपेतां रक्षां यः सुकृती पठेत् ।
स भुक्त्वा सकलान् कामान् शिवसायुज्यमाप्नुयात् ॥९॥

जो सुकृती साधक कल्याणकारिणी शक्ति से युक्त इस शिव- रक्षास्तोत्र का पाठ करता है, वह समस्त कामनाओं का उपभोग कर अन्त में शिवसायुज्य को प्राप्त करता है । 

ग्रहभूतपिशाचाद्यास्त्रैलोक्ये विचरन्ति ये । 
दूरादाशु पलायन्ते शिवनामाभिरक्षणात् ॥१०॥

त्रिलोक में जितने ग्रह, भूत, पिशाच आदि विचरण करते हैं, वे सभी इस शिवरक्षास्तोत्र के पाठमात्र से ही तत्क्षण दूर भाग जाते हैं ।

अभयङ्करनामेदं कवचं पार्वतीपतेः ।
भक्त्या बिभर्ति यः कण्ठे तस्य वश्यं जगत्त्रयम् ॥११॥

जो साधक भक्तिपूर्वक पार्वतीपति शंकर के इस 'अभयंकर' नामक कवच को कण्ठ में धारण करता है, तीनों लोक उसके अधीन हो जाते हैं ।

इमां नारायणः स्वप्ने शिवरक्षां यथाऽऽदिशत् ।
प्रातरुत्थाय योगीन्द्रो याज्ञवल्क्यस्तथाऽलिखत् ॥१२॥

भगवान् नारायण ने स्वप्न में इस 'शिवरक्षास्तोत्र' का जिस प्रकार उपदेश किया, योगीन्द्र मुनि याज्ञवल्क्य ने प्रातःकाल उठकर उसी प्रकार इस स्तोत्र को लिख लिया ।

॥ श्रीयाज्ञवल्क्यप्रोक्तं शिवरक्षास्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

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