जन्म-मृत्यु के भय से निवृत्ति और सर्वविध कल्याण प्राप्ति हेतु करें श्री रामचन्द्राष्टकम् स्तोत्र का पाठ

जन्म-मृत्यु के भय से निवृत्ति और सर्वविध कल्याण प्राप्ति हेतु करें श्री रामचन्द्राष्टकम्  स्तोत्र का पाठ

परमपूज्य अमरदास जी द्वारा विरचित यह स्तोत्र है। जैसा की नाम से ही यह स्पष्ट हो जाता है की इस स्तोत्र में आठ श्लोकों के माध्यम से भगवान् श्रीरामचन्द्र की स्तुति की गयी है और अन्तिम के एक श्लोक में “श्रीरामचन्द्राष्टकम्” स्तोत्र पाठ की फलश्रुति बताई गयी है | जो साधक इस स्तोत्र का नित्य प्रातः निर्मल, शुद्ध और सात्विक भाव से पाठ करता है उसे शीघ्र ही तापजनक जन्म-मृत्यु के भय का परित्याग करके श्रेष्ठ तथा कल्याणप्रद भगवान् श्री रघुनाथ का सान्निध्य प्राप्त करता है |   

चिदाकारो धाता परमसुखदः पावनतनु-
                       र्मुनीन्द्रैर्योगीन्द्रैर्यतिपतिसुरेन्द्रैर्हनुमता।     
सदा सेव्यः पूर्णो जनकतनयाङ्गः सुरगुरू
                       रमानाथो रामो रमतु मम चित्ते तु सततम्।।१।।

जो ज्ञानस्वरूप हैं, जगत् का  धारण-पोषण करनेवाले हैं, परमसुख के दाता हैं, जिनका शरीर सबको पवित्र करने वाला है, मुनीन्द्र, योगीन्द्र, यतीश्वर, देवेश्वर और हनुमान् जिनकी सदा सेवा करते हैं, जो पूर्ण हैं, सीताजी जिनकी अर्द्धांगिनी हैं; जो देवताओं के भी गुरु हैं; वे लक्ष्मीपति भगवान् श्रीरामचन्द्र जी मेरे चित्त में सदा रमण(विहार )  करें।

मुकुन्दो गोविन्दो जनकतनयालालितपदः
                      पदं प्राप्ता यस्याधमकुलभवा चापि शबरी।
गिरातीतोऽगम्यो  विमलधिषणैर्वेदवचसा
                        रमानाथो रामो रमतु मम चित्ते तु सततम्।।२।।

जो मुकुन्द, गोविन्द नाम से कहे जाते हैं, सीताजी ने जिनके चरणों का लालन किया है, [जिनका भजन करने से] नीच कुल में उत्पन्न शबरी भी जिनके परमधाम को प्राप्त हो गयी, जो विमल बुद्धि वालों की भी वाणी के परे हैं और वेदों के वचन से भी अगम्य हैं; वे लक्ष्मीपति भगवान् श्रीरामचन्द्रजी मेरे चित्त में सदा रमण(विहार ) करें।

धराधीशोऽधीशःसुरनरवराणां रघुपतिः
                    किरीटी केयूरी कनककपिशः  शोभितवपुः।
समासीनः पीठे रविशतनिभे शान्तमनसो
                     रमानाथो रामो रमतु मम चित्ते तु सततम्।।३।।

जो पृथ्वी के अधीश्वर हैं, श्रेष्ठ देवताओं और मनुष्यों के भी स्वामी हैं, रघुकुल के नाथ हैं, जिन्होंने सिर पर मुकुट और बाहुओं में केयूर धारण किये हैं, जो सोने के समान पीतवर्ण (वस्त्र पहने हुए) हैं, जिनका शरीर शोभित हो रहा है और जो सैकड़ों सूर्य के समान देदीप्यमान सिंहासन पर बैठे हुए हैं; वे लक्ष्मीपति भगवान् श्रीरामचन्द्र जी शान्त हृदय स्वरुप मेरे चित्त में सदा रमण(विहार ) करें।

वरेण्यः शारण्यः कपिपतिसखश्चान्तविधुरो
                     ललाटे काश्मीरो रुचिरगतिभङ्गः शशिमुखः।
नराकारो रामो यतिपतिनुतः संसृतिहरो
                      रमानाथो रामो रमतु मम चित्ते तु सततम्।।४।।

जो श्रेष्ठ हैं, शरण देने वाले हैं, सुग्रीव के मित्र हैं, अन्त से रहित हैं, जिनके ललाट में केशर का तिलक है, जिनकी चाल अति सुन्दर है, मुखारविन्द चन्द्रमा के समान आनन्ददायी है, जो मनुष्य रूप में प्रतीत होने पर भी राम (योगियों के ध्येय परब्रह्म) हैं, यतीश्वरगण जिनकी स्तुति करते हैं, जो जन्म-मृत्यु रूप संसार के हरने वाले हैं; वे लक्ष्मीपति भगवान् श्रीरामचन्द्र मेरे चित्तमें सदा रमण (विहार ) करें।

विरूपाक्षः काश्यामुपदिशति यन्नाम शिवदं
                       सहस्रं यन्नाम्नां पठति गिरिजा प्रत्युषसि वै।
स्वलोके गायन्तीश्वरविधिमुखा यस्य चरितं
                        रमानाथो रामो रमतु मम चित्ते तु सततम्।।५।।

काशी में भगवान् शंकर जिनके कल्याणप्रद नाम का [ मुमूर्षु प्राणियों को] उपदेश करते हैं, श्रीपार्वतीजी प्रतिदिन प्रभात-काल में जिनके सहस्र-नाम का पाठ करती हैं, शिव, ब्रह्मा आदि (देवगण) अपने-अपने लोकों में जिनके दिव्य चरित्र का गान करते हैं, वे लक्ष्मीपति भगवान् श्रीरामचन्द्र मेरे चित्त में सदा रमण (विहार) करें।

परो धीरोऽधीरोऽसुरकुलभवश्चासुरहरः
                     परात्मा सर्वज्ञो नरसुरगणैर्गीतसुयशाः।
अहल्याशापघ्नः शरकरऋजुः कौशिकसखो
                     रमानाथो रामो रमतु मम चित्ते तु सततम्।।६।।

जो अत्यन्त धीर होकर भी अधीर (अविद्या को दूर करनेवाले) हैं, असुर (सूर्य) के कुल में उत्पन्न होकर भी असुर (राक्षसकुल) का संहार करनेवाले हैं, परमात्मा हैं, सर्वज्ञ हैं, मनुष्य तथा देवतागण जिनके सुयश का गान करते हैं, जिन्होंने अहल्या के शाप का नाश किया, जिनके हाथ में बाण शोभित है, जो सरल स्वभाव वाले और विश्वामित्र के मित्र हैं, वे लक्ष्मीपति भगवान् श्रीरामचन्द्र मेरे चित्त में सदा रमण(विहार) करें।

हृषीकेशः शौरिर्धरणिधरशायी मधुरिपु-
                           रुपेन्द्रो वैकुण्ठो गजरिपुहरस्तुष्टमनसा।
बलिध्वंसी वीरो दशरथसुतो नीतिनिपुणो
                          रमानाथो रामो रमतु मम चित्ते तु सततम्।।७।।

जो हृषीकेश, शौरि, शेषशायी, मधुसूदन, उपेन्द्र, वैकुण्ठ आदि नाम से कहे जाते हैं, जिन्होंने प्रसन्न होकर गजराज के शत्रु (ग्राह) का नाश किया, जो बलि को पदच्युत करने वाले हैं, वीर हैं, वे नीतिनिपुण, लक्ष्मीपति, दशरथनन्दन, भगवान् श्रीरामचन्द्र मेरे चित्त में सदा रमण(विहार) करें।

कविः सौमित्रीड्यः कपटमृगघाती वनचरो
                       रणश्लाघी दान्तो धरणिभरहर्ता सुरनुतः।
अमानी मानज्ञो निखिलजनपूज्यो हृदिशयो
                       रमानाथो रामो रमतु मम चित्ते तु सततम्।।८।।

जो कवि (त्रिकाल- दर्शी) हैं, लक्ष्मणजी के पूज्य हैं, जिन्होंने वन में भ्रमण करते हुए मायामृग (मारीच) का वध किया है, जो युद्धप्रिय हैं, दान्त (मन औरइन्द्रियोंका दमन करनेवाले) हैं, पृथ्वीके भार को हरने वाले तथा देवताओं से स्तुत हैं, जो स्वयं मानरहित होकर दूसरों के सम्मान के ज्ञाता (कृतज्ञ) हैं, सब लोगों के पूज्य हैं, सबके हृदय में निवास करने वाले हैं, वे लक्ष्मीपति भगवान् श्रीरामचन्द्र मेरे चित्त में सदा रमण करें।

इदं रामस्तोत्रं वरममरदासेन रचित–
               मुषःकाले भक्त्या यदि पठति यो भावसहितम्।
मनुष्यः स क्षिप्रं जनिमृतिभयं तापजनकं
                  परित्यज्य श्रेष्ठं रघुपतिपदं याति शिवदम्।।९।।

जो मनुष्य प्रातःकाल भक्ति और श्रद्धा के साथ अमरदास कवि द्वारा विरचित  इस सुन्दर रामस्तोत्र का पाठ करेगा, वह बहुत शीघ्र ही तापजनक जन्म-मृत्यु के भय का परित्याग कर श्रेष्ठ तथा कल्याणप्रद रघुनाथ के पद (सानिध्य ) को प्राप्त करेगा। 

।।इस प्रकार अमरदासजी द्वारा विरचित श्री रामचन्द्राष्टकम् सम्पूर्ण हुआ।। 

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