गर्भाधान संस्कार क्या है? जानें महत्व, नियम एवं मुहूर्त

गर्भाधान संस्कार क्या है? जानें महत्व, नियम एवं मुहूर्त

प्राचीन काल में भी लोग संतान सम्बन्धी समस्याओं से परेशान रहते थे, इस स्थिति को ध्यान में रखते हुए हमारे ऋषि-मुनियों ने सोलह संस्कारों की व्यवस्था की। इन्हीं सोलह संस्कारों के अंतर्गत जो प्रथम तीन (गर्भाधान, पुंसवन और सीमन्तोन्नयन) जो संस्कार हैं, ये जन्म के पूर्व में ही किये जाते हैं। इनमें जो प्रथम गर्भाधान संस्कार है उस संस्कार को यदि विधिपूर्वक करके गर्भधारण किया जाये तो इसके पश्चात होने वाली संतान श्रेष्ठ और सर्वगुण संपन्न होगी। इस प्रकार का विचार ऋषि मुनियों के द्वारा हमें प्राप्त हुआ। इस लेख के अंतर्गत हम इन्हीं सोलह संस्कारों में से सर्वप्रथम गर्भाधान संस्कार के बारे में जानेंगे, क्योंकि गृहस्थ जीवन का सबसे महत्वपूर्ण उद्देश्य श्रेष्ठ संतानोत्पत्ति है।  

गर्भाधान संस्कार क्या है 

गर्भाधान शब्द ही हमें गर्भ की स्थिति का बोध करता है। जैसा की हम जानते हैं गर्भाधान शब्द दो शब्दों के योग से बना है -गर्भ+आधान। आधान शब्द का सामान्य अर्थ है स्थापित करना या रखना। इस प्रकार हम कह सकते हैं की जब पुरुष के माध्यम से स्त्री के गर्भ में शुक्र का स्थापन किया जाता है तो इस प्रक्रिया को हम गर्भाधान कहते हैं। गर्भाधान संस्कार में स्त्री को क्षेत्र और पुरुष को ओज की संज्ञा दी गयी है, जिस प्रकार बीजारोपण के लिए भूमि या क्षेत्र की आवश्यकता होती है उसी प्रकार पुरुष रूपी ओज को स्त्री रूपी क्षेत्र में स्थापित करने की विधि गर्भाधान संस्कार है।   

इस सृष्टि प्रक्रिया को आध्यात्मिक, धार्मिक और यज्ञ रूप में बनाना, अर्थात् उसे सुसभ्य और संस्कृत करना संस्कारों का मूल उद्देश्य है। सामान्य रूप से यदि हम देखते हैं तो संसार में रहने वाला प्रत्येक जीवधारी चाहे वह स्त्रीवर्ग का हो, या पुरुषवर्ग का, सभी में प्राकृतिक रूप से सहवास होता है, उस सहवास का परिणाम संतानोत्पत्ति होता है। सृष्टि के प्रारंभ से ही मनुष्य पशुओं से भिन्न विवेक सम्पन्न प्राणी है फिर भी मनुष्य की दुषप्रवृतियों पर अंकुश लगाने के लिए ऋषि मुनियों ने गर्भाधान आदि संस्कारों का विधान किया, ताकि मनुष्य के स्वेच्छाचार और कामाचारपर नियंत्रण हो एवं सुसंस्कृत माता पिता के माध्यम से सुसंस्कृत और आध्यात्मिकता से परिपूर्ण संतान की उत्पत्ति हो।  

जिस प्रकार मनुष्य अपने आंतरिक ह्रदय की शुद्धि के लिए भगवद भक्ति, कीर्तन, नाम-जप, आदि करता है, ठीक उसी प्रकार शरीर और बाह्य करणों की शुद्धि संस्कारों के माध्यम से होती है। गर्भाधान संस्कार की जो क्रिया है वह शरीर की बाह्य क्रिया है परन्तु उसका प्रभाव पूर्ण रूप से होने वाली संतान के मन, बुद्धि, चित्त एवं ह्रदय पर अवश्य देखने को मिलता है।    

गर्भाधान संस्कार कब करना चाहिए  

  • आचार्य पारस्कर अपने गृहयसूत्र में लिखते हैं कि ‘तामुदुह्य यथर्तु-प्रवेशनम्।' अर्थात वधू के साथ विवाह के पश्चात् ऋतुकाल में प्रवेश होने पर गर्भाधान संस्कार करना चाहिए।   
  • गर्भाधान संस्कार ऋतुकाल में जो वर्जित तिथियाँ हैं उनको छोडकर जो तिथियाँ बताई गयी हैं उन तिथियों में ही करना चाहिए।  
  • जब पति और पत्नी दोनों संतान उत्पत्ति के योग्य हों तथा पूर्णतया स्वस्थ्य हों।  

गर्भाधान के लिए शुभ अशुभ समय 

(01) गण्डान्तं त्रिविधं त्यजेन्निधनजन्मर्क्षे च मूलान्तकं, 

           दास्त्रं पौष्णमथोपरागदिवसं पातं तथा वैधृतिम्। 

   पित्रोः श्राद्धदिनं दिवा च परिघाद्यर्थं स्वपत्नीगमे, 

              भान्युत्पातहतानि मृत्युभवनं जन्मर्क्षतः पापभम्॥ 

(02) भद्राषष्ठीपर्वरिक्ताश्च सन्ध्या- 

            भौमार्कार्कीनाद्यरात्रीश्चतस्त्रः। 

  गर्भाधानं त्र्युत्तरेन्द्वर्कमैत्र- 

              ब्राह्मस्वातीविष्णुवस्वम्बुभे सत्॥  

वर्जित काल:-  अर्थात नक्षत्र, तिथि तथा लग्न के गण्डान्त, निधन-तारा, जन्म-तारा, मूल, भरणी, अश्वनी, रेवती, ग्रहण दिन, व्यतीपात, वैधृति, माता पिता का श्राद्ध-दिन, दिन के समय, परिघयोग के आदि भाग का आधा भाग, उत्पात से दूषित नक्षत्र, जन्मराशि या जन्मनक्षत्र से आठवाँ लग्न, पापयुक्त नक्षत्र या लग्न, भद्रा, षष्ठी, चतुर्दशी, अष्टमी, अमावस्या, पूर्णिमा, संक्रांति, संध्या के दोनों समय, मंगलवार, शनिवार और रविवार, रजोदर्शन से आरम्भ करके चार दिन – ये सब पत्नी गमन में वर्जित हैं।    

ग्राह्य काल 

ग्राह्य तिथि :- प्रतिपदा, द्वितीया, तृतीया, चतुर्थी, पंचमी, सप्तमी, नवमी, दशमी, एकादशी, द्वादशी, त्रयोदशी।  

ग्राह्य दिन :- सोमवार, बृहस्पतिवार, शुक्रवार, बुधवार। 

ग्राह्य नक्षत्र :- तीनों उत्तरा, मृगशिरा, हस्त, अनुराधा, रोहिणी ,स्वाती, श्रवण, धनिष्ठा।  

गर्भाधान के समय मनः स्थिति 

सहवास के समय स्त्री और पुरुष की भावनाएं नितान्त-निर्मल–स्वच्छ होनी चाहिए एवं उनकी चेष्टाएँ, आहार, व्यवहार भी सात्विक होना चाहिए क्योंकि जैसी मनः स्थिति में सहवास होगा वैसा ही आचार, व्यवहार और भाव संतान का होगा। इसलिए शुद्धता का बहुत महत्व शास्त्रों में प्रतिपादित किया गया है।  

आहाराचारचेष्टाभिर्यादृशीभिः समन्वितौ। 

       स्त्रीपुंसौ समुपेयातां तयोः पुत्रोऽपि तादृशः॥  ( सुश्रुत संहिता , शारीरस्थान- 2|46 )।   

गर्भिणी स्त्री के पालनीय नियम

  • जिस प्रकार की भावना गर्भिणी के मन और मस्तिष्क में होगी वैसी ही प्रभाव संतान पर होगा अतः गर्भिणी की मनः स्थिति अत्यंत स्वच्छ और निर्मल होनी चाहिए। 
  • गंदे, अश्लील और नकारात्मक चित्रों एवं विचारों का त्याग करके देवदर्शन और संत दर्शन करना चाहिए।  
  • आधुनिकता में चल रहे गीतों का त्याग करके हरि नाम संकीर्तन ही सुनना चाहिए।  
  • अनर्थक प्रलाप को छोडकर उत्तम ग्रन्थ यथा - रामायण, भागवत, भगवद्गीता आदि का ही अध्यन और श्रवण करना चाहिए।  
  • तामसिक भोजन का त्याग करके सात्त्विक अन्न का ही ग्रहण करना चाहिए।  
  • अधिक मसाला युक्त भोजन नहीं करना चाहिए।  
  • अधिक हास-परिहास नहीं करना चाहिए।    
  • गर्भिणी स्त्री को संध्याकाल में भोजन नहीं करना चाहिए। 
  • गर्भिणी स्त्री को न कभी वृक्ष के मूल पर बैठना चाहिए और न ही कभी वृक्ष के समीप जाना चाहिए।  
  • घर की सामग्री जैसे मूसल, ओखली आदि पर न बैठें।  
  • जल में प्रवेश करके स्नान न करें।  
  • अकेले घर में प्रवेश न करें।  
  • नख से, और राख से भूमि पर रेखा न खींचें। 
  • आलस्य में न रहें और लोगों के साथ वाद विवाद से बचें। 
  • बाल खोलकर न बैठें और न ही कभी अपवित्र रहें। 
  • उत्तर दिशा में कभी सिर करके न सोयें एवं कहीं भी नीचे सिर करके न सोयें। 
  • अमंगल सूचक वाणी न बोलें।  

विशेष 

  • तृतीया तिथि को दान करें। 
  • पर्व सम्बन्धी व्रत एवं नक्त व्रत का पालन करें।  
  • हेमाद्रि के चतुर्वर्ग चिंतामणि में कहा गया है की गर्भिणी के पति को मुंडन, पिंडदान, और प्रेतक्रिया नहीं करनी चाहिए।  
  • गर्भ के समय गर्भिणी की जो सात्त्विक इच्छाएँ हों उसे अवश्य पूर्ण करना चाहिए, अन्यथा इच्छा पूर्ण न होने पर गर्भ नष्ट होने की सम्भावना होती है।  

उद्देश्य:- पितृ ऋण से मुक्ति की इच्छा गर्भधान संस्कार का पवित्र एवं आध्यात्मिक उद्देश्य है।  

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