दुःख, दरिद्रता तथा शत्रु बाधा को दूर करने के लिए करें परमेश्वर स्तोत्र का पाठ

दुःख, दरिद्रता तथा शत्रु बाधा को दूर करने के लिए करें परमेश्वर स्तोत्र का पाठ

इस स्तोत्र में कुल आठ श्लोक हैं । यह स्तोत्र भगवान् नारायण को समर्पित है, इस स्तोत्र का गुरुवार के दिन पाठ करने से पूर्वजन्म तथा वर्तमान में हुए अपराधों से मुक्ति प्राप्त होती है। और अनन्त दुख, दरिद्रता,शत्रुबाधा इत्यादि समाप्त हो जाती है ।

जगदीश सुधीश भवेश विभो परमेश परात्पर पूत पितः । 
प्रणतं पतितं हतबुद्धिबलं जनतारण तारय तापितकम् ।।१।।

हे जगदीश ! हे सुमतियों के स्वामी ! हे विश्वेश ! हे सर्वव्यापिन् ! हे परमेश्वर ! हे प्रकृति आदि से अतीत ! हे परमपावन ! हे पितः ! हे जीवों का निस्तार करने वाले ! इस शरणागत, पतित और बुद्धि-बल से हीन संसारसन्तप्त दास का उद्धार कीजिये ।

गुणहीनसुदीनमलीनमतिं त्वयि पातरि दातरि चापरतिम् । 
तमसा रजसावृतवृत्तिमिमं जनतारण तारय तापितकम् ।।२।।

जो सर्वथा गुणहीन, अत्यन्त दीन और मलिनमति है तथा अपने रक्षक और दाता आप से पराङ्मुख है, हे जीवों का निस्तार करने वाले ! इस संसार सन्तप्त उस तामस-राजस वृत्ति वाले दास का आप उद्धार कीजिये ।

मम जीवनमीनमिमं पतितं मरुघोरभुवीह सुवीहमहो ।  
करुणाब्धिचलोर्मिजलानयनं जनतारण तारय तापितकम् ।।३।।

हे जीवों का निस्तार करने वाले ! इस भयानक मरुभूमि में पड़कर नितान्त निश्चेष्ट हुए मेरे इस अति सन्तप्त जीवनरूप मीन का अपने करुणावारिधि की चंचल तरंगों का जल लाकर उद्धार कीजिये ।

भववारण कारण कर्मततौ भवसिन्धुजले शिव मग्नमतः।   
करुणाञ्च समर्य्य तरिं त्वरितं जनतारण तारय तापितकम् ।।४।।

अतः हे संसार की निवृत्ति करने वाले ! हे कर्मविस्तार के कारण स्वरुप ! हे कल्याणमय ! हे जीवों का निस्तार करने वाले ! संसार समुद्र के जल में डूबकर सन्तप्त होते हुए इस दास को अपनी करुणारूप नौका समर्पण करके यहाँ से तुरंत उद्धार कीजिये ।

अतिनाश्य जनुर्मम पुण्यरुचे दुरितौघभरै: परिपूर्णभुव: ।
सुजघन्यमगण्यमपुण्यरुचिं जनतारण तारय तापितकम् ।।५।।

हे पुण्यरुचे ! हे जीवोद्धारक ! जिसकी पापराशि के भार से पृथ्वी परिपूर्ण है, ऐसे मुझ अधम के जन्म को सदा के लिये मिटाकर मुझ अत्यन्त निन्दनीय, नगण्य, पाप में रुचि रखने वाले और संसार के दुःखों से दुःखित का उद्घार कीजिये ।

भवकारक नारकहारक हे भवतारक पातकदारक हे । 
हर शङ्कर किङ्करकर्मचयं जनतारण तारय तापितकम् ।।६।।

हे जगत् कर्ता ! हे नारकीय यन्त्रणाओं का अपहरण करने वाले ! हे संसार का उद्धार करने वाले ! हे पापराशि को विदीर्ण करने वाले ! हे शंकर! इस दास की कर्मराशि का हरण कीजिये और हे जीवों का निस्तार करने वाले ! इस संसार सन्तप्त जन का उद्धार कीजिये ।

तृषितश्चिरमस्मि सुधां हित मे-ऽच्युत चिन्मय देहि वदान्यवर ।
 अतिमोहवशेन विनष्टकृतं जनतारण तारय तापितकम् ।।७।।

हे अच्युत ! हे चिन्मय ! हे उदारचूडामणि ! हे कल्याणस्वरूप ! मैं अत्यन्त तृषित हूँ, मुझे ज्ञानरूप अमृत का पान कराइये । मैं अत्यन्त मोह के वशीभूत होकर नष्ट हो रहा हूँ । हे जीवों का उद्धार करने वाले ! मुझ संसार सन्तप्त को पार लगाइये ।

प्रणमामि नमामि नमामि भवं भवजन्मकृतिप्रणिषूदनकम् ।
गुणहीनमनन्तमितं शरणं जनतारण तारय तापितकम् ।।८।।

संसार में जन्मप्राप्ति के कारणभूत कर्मों का नाश करने वाले आपको मैं बारंबार प्रणाम और नमस्कार करता हूँ । हे जीवों का उद्धार करने वाले ! आप निर्गुण और अनन्त की शरण को प्राप्त हुए इस संसार सन्तप्त जन का उद्धार कीजिये ।

।। इस प्रकार “परमेश्वर स्तोत्र” सम्पूर्ण हुआ ।। 

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