अश्वमेध यज्ञ की फल प्राप्ति एवं पापों के सम्मार्जन के लिए परिवर्तिनी एकादशी

अश्वमेध यज्ञ की फल प्राप्ति एवं पापों के सम्मार्जन के लिए परिवर्तिनी एकादशी

।। परिवर्तिनी\पद्मा एकादशी ।। 

स्कन्दपुराण के‌ अनुसार भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष में आने वाली एकादशी को परिवर्तिनी एकादशी के नाम से जाना जाता है । जयंती एकादशी, पद्मा एकादशी आदि नामों से भी इस एकादशी को जाना जाता है । यह एकादशी समस्त प्रकार के भोग और मोक्ष को प्रदान करने वाली है। परिवर्तिनी एकादशी के दिन भगवान् विष्णु के वामन अवतार की पूजा की जाती है। इस एकादशी को भारत के कई क्षेत्रों में “पार्श्व एकादशी” के रूप में जाना जाता है। इस एकादशी पर श्रीहरि शयन करते हुए करवट लेते हैं, इसलिए इस एकादशी को “परिवर्तिनी एकादशी” कहा जाता है।  

इस एकादशी व्रत में भगवान् विष्णु के वामन अवतार की पूजा करने से वाजपेय यज्ञ के तुल्य फल प्राप्त होता है और मनुष्य को समस्त अरिष्ट तथा विघ्नों से निवृत्ति मिलती है । यह व्रत देवी लक्ष्मी को प्रसन्न करने हेतु सर्वोत्तम है, इसलिए इस दिन लक्ष्मी पूजा करना भी श्रेष्ठ माना गया है ।

परिवर्तिनी एकादशी 2024 में व्रत और पारण का शुभ मुहूर्त :

  • 14 सितम्बर को स्मार्त और वैष्णव दोनों का व्रत।
  • 15 सितम्बर को द्वादशी तिथि में व्रत का पारण।

व्रत वाले दिन क्या करें ?

  • प्रातः शीघ्र जागकर नित्य क्रियाओं से निवृत हो जाए तथा घर को साफ़-स्वच्छ करके देवालय में भगवान् के समक्ष घृतदीप प्रज्वलित करें । 
  • भगवान् विष्णु का अभिषेक करें ।
  • सामर्थ्यनुसार कमलपुष्प से भगवान् का अर्चन करें ।
  • भगवान् विष्णु को पीला पुष्प एवं तुलसीदल अर्पित करें ।
  • व्रत सम्बन्धी वस्तुओं का भोग तुलसीदल मिलाकर लगायें । 
  • श्री हरि(नारायण ) के साथ माता लक्ष्मी का भी पूजन करें ।
  • “ॐ नमो भगवते वासुदेवाय” इस महामंत्र का जप यथाशक्ति करें ।
  • घर में चावल का पाचन तथा ग्रहण का निषेध करें। 
  • मंदिर में जाकर चावल और दही का दान करना चाहिए।

श्रीस्कन्दपुराण में वर्णित परिवर्तनी एकादशी व्रत की कथा :

धर्मराज युधिष्ठिर बोले कि हे भगवान् ! भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष की एकादशी का नाम तथा उसकी विधि क्या है? उस एकादशी के व्रत को करने से किस फल की प्राप्ति होती है तथा उसका माहात्म्य क्या है ? यह सब कहिये ।

भगवान् श्री कृष्ण बोले- हे राजश्रेष्ठ ! अब मैं अनेक पाप नष्ट करने वाली तथा अन्त में स्वर्ग देने वाली भाद्रपद मास के शुक्लपक्ष में आने वाली परिवर्तिनी नाम की एकादशी की कथा कहता हूँ। इस एकादशी को “जयन्ती एकादशी” भी कहते हैं। इस एकादशी की कथा के सुनने मात्र से ही समस्त पापों का क्षय तथा अरिष्टों का नाश हो जाता है। इस एकादशी के व्रत का फल वाजपेय यज्ञ के फल से भी अधिक है। इस “जयंती एकादशी” की कथा से नीच और पापियों का भी उद्धार हो जाता है।

यदि कोई धर्मपरायण मनुष्य इस एकादशी के दिन मेरी पूजा करता है तो मैं उसे संसार की समस्त पूजाओं का फल प्रदान करता हूँ। जो मनुष्य मेरी पूजा करता है उसे मेरे लोक की प्राप्ति होती है। इसमें किंचित् मात्र भी संदेह नहीं है। जो मनुष्य इस एकादशी के दिन वामन भगवान् की पूजा करता है वह तीनों देवता अर्थात् ब्रह्मा, विष्णु, महेश की पूजा करता है इसलिए जो साधक इस एकादशी का व्रत करते हैं उनके लिए संसार में कुछ भी शेष नहीं रहता है ।

इस एकादशी के दिन भगवान् विष्णु करवट बदलते हैं इसीलिए इसे “परिवर्तिनी एकादशी” भी कहते हैं । इस पर श्रीयुधिष्ठिर बोले- हे भगवन् ! आपके वचनों को सुनकर मुझे महान् सन्देह हो रहा है कि आप किस प्रकार सोते तथा करवट बदलते हैं । आपने बलि को क्यों बाँधा और वामनरूप धारण करके क्या लीलायें कीं ? चातुर्मास्य व्रत की विधि क्या है, तथा आपके शयन करने पर मनुष्य का क्या कर्त्तव्य है, सो यह सब विस्तार पूर्वक कहिये । श्री कृष्ण भगवान् बोले कि हे राजन् अब आप पापों को नष्ट करने वाली इस एकादशी की कथा का श्रवण करो ।

त्रेतायुग में एक बलि नाम का दानव हुआ। वह अत्यन्त भक्त, दानी, सत्यवादी तथा ब्राह्मणों की सेवा किया करता था । वह अपनी भक्ति, जप तथा तप के प्रभाव से स्वर्ग में इंद्र को भी जीत लिया । इंद्र तथा अन्य देवता इस बात को सहन न कर सके और भगवान् नारायण से प्रार्थना करने लगे । तब भगवान् अपने पञ्चम स्वरुप “वामन रूप” धारण किया और अत्यन्त तेजस्वी ब्राह्मण बालक के रूप में राजा बलि को जीता ।

इस पर युधिष्ठिर बोले-हे जनार्दन ! आपने वामनरूप धारण करके बलि को किस प्रकार जीता ? यह सब सविस्तार पूर्वक समझाइये । श्री कृष्ण भगवान् बोले कि हे राजन् ! मैंने वामन का रूप धारण करके राजा बलि से याचना की कि हे राजन् तुम मुझे तीन पग (पैर) भूमि दे दो इससे तुम्हें तीन लोक के दान का फल प्राप्त होगा । राजा बलि ने इस छोटी सी याचना को स्वीकार किया और तीन पग भूमि देने को तैयार हो गये । तब मैंने अपने आकार को बढ़ाया और भूलोक में पैर, भुवलोक में जंघा, स्वर्गलोक में कमर, महलोक में पेट, जनलोक में हृदय, तपलोक में कंठ और सत्यलोक में मुख रखकर अपने सिर को ऊँचा उठा लिया । उस समय सूर्य, चन्द्र, नक्षत्र, इन्द्र तथा अन्य देवता आदि शास्त्रानुसार मेरी स्तुति करने लगे । उस समय मैंने राजा बलि को पकड़ा और पूछा कि हे राजन् ! अब मैं तीसरा पैर कहा रखूं । इतना सुनकर राजा बलि ने अपना सिर नीचे कर लिया । उस पर मैंने अपना तीसरा पैर रख दिया और वह भक्त दानव पाताल को चला गया । जब मैंने उसे अत्यन्त विनीत पाया तो मैंने उससे कहा कि हे बलि ! मैं सदैव तुम्हारे पास ही रहूँगा ! भाद्रपद के शुक्लपक्ष की एकादशी को परिवर्तिनी नामक एकादशी के दिन मेरी एक प्रतिमा राजा बलि के पास रहती है और एक क्षीर सागर में शेषनाग पर शयन करती रहती है। इस एकादशी को विष्णु भगवान् सोते हुए करवट बदलते हैं। इस दिन त्रिलोकी के नाथ श्रीविष्णु भगवान् की पूजा की जाती है। 

इसमें चावल और दही सहित रूपा का दान दिया जाता है। इस दिन रात्रि को जागरण करना चाहिये । इस प्रकार व्रत करने से मनुष्य समस्त पापों से मुक्त होकर स्वर्गलोक को चला जाता है। जो मनुष्य पापों को नष्ट करने वाली इस कथा को सुनते हैं उन्हें अश्वमेघ यज्ञ का फल मिलता है।

कथासार

इस दिन मनुष्य दान करें किंतु दान के पश्चात् अभिमान न करे । क्योंकि अहंकारपूर्वक किया गया दान के पुण्य का नाश कर देता है । राजा बलि ने अभिमान किया और पाताल को चला गया । इससे यह भी ज्ञात होता है कि अति प्रत्येक कार्य की अच्छी नहीं होती है।

श्री स्कन्दपुराण में वर्णित परिवर्तिनी एकादशी व्रत का माहात्म्य :

स देवलोकं संप्राप्य भ्राजते चन्द्रमा यथा ।
शृणुयाचैव यो मर्त्यः कथां पापहरां पराम् । 
अश्वमेधसहस्रस्य फलं प्राप्नोति मानवः ।।

अर्थात् जो मनुष्य इस एकदशी व्रत को करता है वह देवलोक में जाकर चंद्रमा के समान शोभित होता है और अश्वमेध यज्ञ के सदृश फल को प्राप्त करता है । 

  • यह एकादशी व्रत समस्त पापों का शमन होता है।
  • समस्त प्रकार के भोग और मोक्ष की प्राप्ति होती है।
  • सद्गति की प्राप्ति होती है ।
  • दही और चावल का दान करने से मनुष्य अनेक प्रकार के कुत्सित पापों से मुक्त हो जाता है।
  • इस एकादशी को व्रत करने से एक हजार अश्वमेध यज्ञ करने के‌ तुल्य फल की प्राप्ति होती है । 

।। इस प्रकार श्रीस्कन्द पुराण के अन्तर्गत् परिवर्तिनी एकादशी का माहात्म्य सम्पूर्ण हुआ ।।

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