उत्तम वर की प्राप्ति तथा समस्त संकटों के शमन हेतु करें “भुवनेश्वरी कात्यायनी स्तोत्र” का पाठ

उत्तम वर की प्राप्ति तथा समस्त संकटों के शमन हेतु करें “भुवनेश्वरी कात्यायनी स्तोत्र” का पाठ

श्री मार्कण्डेय महापुराण के अन्तर्गत् “भुवनेश्वरी कात्यायनी” की स्तुति हमें प्राप्त होती है | भगवती भुवनेश्वरी कात्यायनी की स्तुति तैतीस श्लोकों में की गयी है, जिनमें भगवती की अनन्त शक्ति का विस्तृत वर्णन है | इस स्तोत्र के दैनिक पठन एवम् श्रवण से समस्त पापों का क्षय होता है, तथा सर्वत्र विजय की प्राप्ति होती है |  

ध्यान :- 

बालरविद्युतिमिन्दुकिरीटां, तुङ्गकुचां नयनत्रययुक्ताम्।
स्मेरमुखीं वरदाङ्कुशपाशाभीतिकरां प्रभजे भुवनेशीम् ।।

मैं भुवनेश्वरी देवी का ध्यान करता हूँ। जिनके श्रीअंगों की आभा प्रातःकाल के सूर्य के सदृश है और मस्तक पर चन्द्रमा का मुकुट है। वे उभरे हुए स्तनों और तीन नेत्रों से युक्त हैं। उनके मुखारविन्द पर सदा प्रसन्नता की छटा छायी रहती है और हाथों में वरद, अंकुश, पाश एवं अभय-मुद्रा सुशोभित होते हैं। 

स्तुति :- 

     देवि प्रपन्नार्तिहरे प्रसीद, प्रसीदमातर्जगतोऽखिलस्य ।
     प्रसीद विश्वेश्वरि पाहि विश्वं त्वमीश्वरी देवि चराचरस्य ॥ १ ॥

[देवता बोले- ] शरणागत की पीड़ा दूर करनेवाली देवि ! हम पर प्रसन्न होओ। सम्पूर्ण जगत् की माता ! प्रसन्न होओ । विश्वेश्वरि ! विश्व की रक्षा करो। देवि ! तुम्हीं चराचर जगत् की अधीश्वरी हो |   

     आधारभूता जगतस्त्वमेका महीस्वरूपेण यतः स्थितासि ।
     अपां स्वरूपस्थितया त्वयैत- दाप्यायते कृत्स्नमलङ्घ्यवीर्ये ॥२॥

तुम इस जगत्‌ का एकमात्र आधार हो; क्योंकि पृथ्वी- रूप में तुम्हारी ही स्थिति है। देवि ! तुम्हारा पराक्रम अलंघनीय है। तुम्हीं जलरूप में स्थित होकर सम्पूर्ण जगत् को संतृप्त करती हो |

     त्वं वैष्णवी शक्तिरनन्तवीर्या
                  विश्वस्य बीजं परमासि माया ।
     सम्मोहितं देवि समस्तमेतत्    
                   त्वं वै प्रसन्ना भुवि मुक्तिहेतुः ॥३॥

तुम अनन्त बलसम्पन्न वैष्णवी शक्ति हो। इस विश्व की कारणभूता परा माया हो। देवि ! तुमने इस समस्त जगत् को मोहित कर रखा है। तुम्हीं प्रसन्न होने पर इस पृथ्वी पर मोक्ष की प्राप्ति कराती हो | 

     विद्याः समस्तास्तव देवि भेदाः
                    स्त्रियः समस्ताः सकला जगत्सु ।
     त्वयैकया पूरितमम्बयैतत्
               का ते स्तुतिः स्तव्यपरा परोक्तिः ॥४॥

देवि ! सम्पूर्ण विद्याएँ तुम्हारे ही भिन्न-भिन्न स्वरूप हैं। जगत् में जितनी स्त्रियाँ हैं, वे सब तुम्हारी ही मूर्तियाँ हैं। जगदम्ब ! एकमात्र तुमने ही इस विश्व को व्याप्त कर रखा है। तुम्हारी स्तुति क्या हो सकती है? तुम तो स्तवन करने योग्य पदार्थों से परे एवं परा वाणी हो ॥ ४॥

     सर्वभूता यदा देवी स्वर्गमुक्तिप्रदायिनी । 
     त्वं स्तुता स्तुतये का वा भवन्तु परमोक्तयः ॥५॥

जब तुम सर्वस्वरूपा देवी स्वर्ग तथा मोक्ष प्रदान करने वाली हो, तब इसी रूप में तुम्हारी स्तुति हो गयी । तुम्हारी स्तुति के लिये इससे अच्छी उक्तियाँ और क्या हो सकती हैं?

     सर्वस्य बुद्धिरूपेण जनस्य हृदि संस्थिते ।
     स्वर्गापवर्गदे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते ॥ ६ ॥

बुद्धिरूप से सभी के हृदय में विराजमान रहने वाली तथा स्वर्ग एवं मोक्ष प्रदान कराने वाली नारायणि देवि ! तुम्हें नमस्कार है |

     कलाकाष्ठादिरूपेण परिणामप्रदायिनि ।
     विश्वस्योपरतौ शक्ते नारायणि नमोऽस्तु ते ॥ ७ ॥

कला, काष्ठा आदि के रूप से क्रमशः परिणाम (अवस्था-परिवर्तन)- की ओर ले जानेवाली तथा विश्वका उपसंहार करने में समर्थ नारायणि! तुम्हें नमस्कार है |

     सर्वमङ्गलमङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके ।
     शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते ॥ ८ ॥

नारायणि ! तुम सब प्रकारका मंगल प्रदान करनेवाली मंगलमयी हो । कल्याणदायिनी शिवा हो। सब पुरुषार्थोंको सिद्ध करनेवाली, शरणागतवत्सला, तीन नेत्रोंवाली गौरी हो। तुम्हें नमस्कार है |

     सृष्टिस्थितिविनाशानां शक्तिभूते सनातनि।
     गुणाश्रये गुणमये नारायणि नमोऽस्तु ते ॥ ९ ॥

तुम सृष्टि, पालन और संहार की शक्तिभूता, सनातनी देवी, गुणों का आधार तथा सर्वगुणमयी हो। नारायणि ! तुम्हें नमस्कार है |

     शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे ।  
     सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते ॥१०॥

शरणागतों, दीनों एवं पीड़ितों की रक्षा में संलग्न रहने वाली तथा सबकी पीड़ा दूर करनेवाली नारायणि ! तुम्हें नमस्कार है |

     हंसयुक्तविमानस्थे ब्रह्माणीरूपधारिणि । 
     कौशाम्भःक्षरिके देवि नारायणि नमोऽस्तु ते ॥ ११ ॥

नारायणि ! तुम ब्रह्माणी का रूप धारण करके हंसों से जुते हुए विमान पर बैठती तथा कुश-मिश्रित जल छिड़कती रहती हो। तुम्हें नमस्कार है |

     त्रिशूलचन्द्राहिधरे महावृषभवाहिनि । 
     माहेश्वरीस्वरूपेण नारायणि नमोऽस्तु ते ॥ १२ ॥

माहेश्वरीरूप से त्रिशूल, चन्द्रमा एवं सर्प को धारण करने वाली तथा महान् वृषभ की पीठ पर बैठने वाली नारायणी देवि ! तुम्हें नमस्कार है |

     मयूरकुक्कुटवृते महाशक्तिधरेऽनघे ।
     कौमारीरूपसंस्थाने नारायणि नमोऽस्तु ते ॥ १३॥ 

मोरों और मुर्गों से घिरी रहने वाली तथा महाशक्ति धारण करने वाली कौमारीरूपधारिणी निष्पापे नारायणि ! तुम्हें नमस्कार है |

     शङ्खचक्रगदाशार्ङ्गगृहीतपरमायुधे । 
     प्रसीद वैष्णवीरूपे नारायणि नमोऽस्तु ते ॥ १४॥

शंख, चक्र, गदा और शार्ङ्गधनुषरूप उत्तम आयुधोंको धारण करनेवाली वैष्णवी शक्तिरूपा नारायणि ! तुम प्रसन्न होओ। तुम्हें नमस्कार है |

     गृहीतोग्रमहाचक्रे दंष्ट्रोद्धृतवसुंधरे ।
     वराहरूपिणि शिवे नारायणि नमोऽस्तु ते ॥ १५ ॥

हाथ में भयानक महाचक्र लिये और दाढ़ों पर धरती को उठाये वाराहीरूपधारिणी कल्याणमयी नारायणि! तुम्हें नमस्कार है |

     नृसिंहरूपेणोग्रेण हन्तुं दैत्यान् कृतोद्यमे ।
     त्रैलोक्यत्राणसहिते नारायणि नमोऽस्तु ते ॥ १६ ॥

भयंकर नृसिंहरूप से दैत्योंके वध के लिये उद्योग करने वाली तथा त्रिभुवन की रक्षा में संलग्न रहने वाली नारायणि! तुम्हें नमस्कार है |

     किरीटिनि महावज्रे सहस्रनयनोज्ज्वले । 
     वृत्रप्राणहरे चैन्द्रि नारायणि नमोऽस्तु ते ॥ १७ ॥

मस्तक पर किरीट और हाथ में महावज्र धारण करने वाली, सहस्र नेत्रों के कारण उद्दीप्त दिखायी देने वाली और वृत्रासुरके प्राणों का अपहरण करने वाली इन्द्र शक्तिरूपा नारायणी देवि ! तुम्हें नमस्कार

     शिवदूतीस्वरूपेण हतदैत्यमहाबले ।
     घोररूपे महारावे नारायणि नमोऽस्तु ते ॥ १८ ॥

शिवदूती रूप से दैत्यों की विशाल सेना का संहार करने वाली, भयंकर रूप धारण तथा विकट गर्जना करने वाली नारायणि ! तुम्हें नमस्कार है |

     दंष्ट्राकरालवदने शिरोमालाविभूषणे । 
     चामुण्डे मुण्डमथने नारायणि नमोऽस्तु ते॥१९॥

दाढ़ों के कारण विकराल मुखवाली, मुण्डमाला से विभूषित मुण्ड- मर्दिनी चामुण्डारूपा नारायणि ! तुम्हें नमस्कार है |

     लक्ष्मि लज्जे महाविद्ये श्रद्धे पुष्टिस्वधे ध्रुवे। 
     महारात्रि महाऽविद्ये नारायणि नमोऽस्तु ते ॥ २०॥

लक्ष्मी, लज्जा, महाविद्या, श्रद्धा, पुष्टि, स्वधा, ध्रुवा, महारात्रि तथा महा अविद्यारूपा नारायणि! तुम्हें नमस्कार है |

     मेधे सरस्वति वरे भूति बाभ्रवि तामसि ।
     नियते त्वं प्रसीदेशे नारायणि नमोऽस्तु ते ॥ २१॥

मेधा, सरस्वती, वरा (श्रेष्ठा), भूति (ऐश्वर्यरूपा), बाभ्रवी (भूरे रंगकी अथवा पार्वती), तामसी (महाकाली), नियता (संयमपरायणा) तथा ईशा (सबकी अधीश्वरी) - रूपिणी नारायणि! तुम्हें नमस्कार है |

     सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्तिसमन्विते । 
     भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तु ते ॥ २२॥

सर्वस्वरूपा, सर्वेश्वरी तथा सब प्रकार की शक्तियों से सम्पन्न दिव्यरूपा दुर्गे देवि ! सब भयोंसे हमारी रक्षा करो; तुम्हें नमस्कार है |

     एतत्ते वदनं सौम्यं लोचनत्रयभूषितम् ।
     पातु नः सर्वभीतिभ्यः कात्यायनि नमोऽस्तु ते ॥ २३ ॥

कात्यायनि ! यह तीन लोचनोंसे विभूषित तुम्हारा सौम्य मुख सब प्रकार के भयों से हमारी रक्षा करे। तुम्हें नमस्कार है |

     ज्वालाकरालमत्युग्रमशेषासुरसूदनम् ।
     त्रिशूलं पातु नो भीतेर्भद्रकालि नमोऽस्तु ते ॥ २४॥

भद्रकालि ! ज्वालाओं के कारण विकराल प्रतीत होने वाला, अत्यन्त भयंकर और समस्त असुरों का संहार करने वाला तुम्हारा त्रिशूल भय से हमें बचाये । तुम्हें नमस्कार है |

     हिनस्ति दैत्यतेजांसि स्वनेनापूर्य या जगत्। 
     सा घण्टा पातु नो देवि पापेभ्योऽनः सुतानिव ॥ २५ ॥

देवि ! जो अपनी ध्वनि से सम्पूर्ण जगत् को व्याप्त करके दैत्योंके तेज नष्ट किये देता है, वह तुम्हारा घण्टा हम लोगों की पापों से उसी प्रकार रक्षा करे, जैसे पिता अपने पुत्रोंकी बुरे कर्मोंसे रक्षा करता है |

     असुरासृग्वसापङ्कचर्चितस्ते करोज्ज्वलः ।
     शुभाय खड्गो भवतु चण्डिके त्वां नता वयम् ॥ २६ ॥  
 

चण्डिके ! तुम्हारे हाथों में सुशोभित खड्ग, जो असुरोंके रक्त और चर्बी से युक्त है, हमारा मंगल करे। हम तुम्हें नमस्कार करते हैं |

     रोगानशेषानपहंसि तुष्टा रुष्टा तु कामान् सकलानभीष्टान् ।
     त्वामाश्रितानां  न विपन्नराणां त्वामाश्रिता ह्याश्रयतां प्रयान्ति ॥ २७॥

देवि ! तुम प्रसन्न होने पर सब रोगों को नष्ट कर देती हो और कुपित होने पर मनोवांछित सभी कामनाओं का नाश कर देती हो । जो लोग तुम्हारी शरण में हैं, उन पर विपत्ति तो आती ही नहीं; तुम्हारी शरण में गये हुए मनुष्य दूसरों को शरण देने वाले हो जाते हैं | 

     एतत्कृतं यत्कदनं त्वयाद्य धर्मद्विषां देवि महासुराणाम् ।
     रूपैरनेकैर्बहुधाऽऽत्ममूर्तिं कृत्वाम्बिके तत्प्रकरोति कान्या ॥ २८ ॥

देवि ! अम्बिके ! तुमने अपने स्वरूप को अनेक रूपों में विभक्त करके नाना प्रकार से जो इस समय इन धर्मद्रोही महादैत्यों का संहार किया है, वह सब दूसरा कौन कर सकता है ? 

     विद्यासु शास्त्रेषु विवेकदीपे- ष्वाद्येषु वाक्येषु च का त्वदन्या ।
     ममत्वगर्ते ऽतिमहान्धकारे विभ्रामयत्येतदतीव विश्वम् ॥ २९ ॥

विद्याओं में, ज्ञान को प्रकाशित करने वाले शास्त्रों में तथा आदिवाक्यों (वेदों)-में तुम्हारे सिवा और किसका वर्णन है ? तथा तुमको छोड़कर दूसरी कौन ऐसी शक्ति है, जो इस विश्व को मोह-ममता के घने अन्धकार-चक्र में निरन्तर भटका सके | 

     रक्षांसि यत्रोग्रविषाश्च नागा यत्रारयो दस्युबलानि यत्र । 
     दावानलो यत्र तथाब्धिमध्ये तत्र स्थिता त्वं परिपासि विश्वम् ॥ ३० ॥ 

जहाँ राक्षस, भयंकर विष वाले सर्प, शत्रु, लुटेरों की सेना और दावानल हो, वहाँ तथा समुद्र के बीच में भी साथ रहकर तुम सब की रक्षा करती हो |

     विश्वेश्वरि त्वं परिपासि विश्वं विश्वात्मिका धारयसीति विश्वम् ।
     विश्वेशवन्द्या भवती भवन्ति विश्वाश्रया ये त्वयि भक्तिनम्राः ॥ ३१ ॥

विश्वेश्वरि ! तुम विश्व का पालन करती हो | विश्वारूपा हो | इसलिये सम्पूर्ण विश्व को धारण करती हो। तुम भगवान् विश्वनाथ की भी वन्दनीया हो। जो लोग भक्तिपूर्वक तुम्हारे सामने मस्तक झुकाते हैं, वे सम्पूर्ण विश्वको आश्रय देनेवाले होते हैं | 

     देवि प्रसीद परिपालय नोऽरिभीते: नित्यं यथासुरवधादधुनैव सद्यः। 
     पापानि सर्वजगतां प्रशमं नयाशु उत्पातपाकजनितांश्च महोपसर्गान् ॥ ३२ ॥

देवि ! प्रसन्न होओ । जैसे इस समय असुरों का वध करके तुमने शीघ्र ही हमारी रक्षा की है, उसी प्रकार सदा हमें शत्रुओं के भय से बचाओ । सम्पूर्ण जगत् का  पाप नष्ट कर दो और उत्पात एवं पापों के फलस्वरूप प्राप्त होनेवाले महामारी आदि बड़े-बड़े उपद्रवों को शीघ्र दूर करो |

     प्रणतानां प्रसीद त्वं देवि विश्वार्तिहारिणि ।
     त्रैलोक्यवासिनामीड्ये लोकानां वरदा भव ॥ ३३॥

विश्वकी पीड़ा दूर करनेवाली देवि ! हम तुम्हारे चरणोंपर पड़े हुए है, हमपर प्रसन्न होओ। त्रिलोकनिवासियोंकी पूजनीया परमेश्वरि ! सब लोगोंको वरदान दो |

“इस प्रकार श्री मार्कण्डेय महापुराण के अन्तर्गत् “भुवनेश्वरी कात्यायनी” स्तुति सम्पूर्ण हुई” |  

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