अपार सम्पत्ति तथा भगवद्भक्ति प्राप्ति हेतु करें भागवत- पुराणान्तर्गत् ध्रुव स्तुति

अपार सम्पत्ति तथा भगवद्भक्ति प्राप्ति हेतु करें भागवत- पुराणान्तर्गत् ध्रुव स्तुति

श्रीमद्भागवत महापुराण के चतुर्थ स्कन्ध के नवम अध्याय में ध्रुव जी के द्वारा श्री भगवत् स्तुति की गयी ही ।  यह स्तुति भगवान् विष्णु को समर्पित है । भगवान् विष्णु के साक्षात्कार से ध्रुव जी को छह शास्त्रों सहित वेदों का ज्ञान हुआ । इस स्तुति के माध्यम से बालक ध्रुव को भगवान् विष्णु का साक्षात्कार प्राप्त हुआ और अंततः ध्रुव (अटल) लोक की प्राप्ति हुई ।

                 ( ध्रुव उवाच )

योऽन्तः प्रविश्य मम वाचमिमां प्रसुप्तां 
                       सञ्जीवयत्यखिलशक्तिधरः स्वधाम्ना
अन्यांश्च हस्तचरणश्रवणत्वगादीन्
                     प्राणान्नमो भगवते पुरुषाय तुभ्यम्।।१।।    
         

ध्रुव जी बोले-जो सर्शक्तिसम्पन्न श्रीहरि मेरे अन्तःकरण में प्रवेश कर अपने तेज से मेरी इस सोयी हुई वाणी को सजीव करते हैं तथा हाथ, पैर, कान और त्वचा आदि अन्य इन्द्रियों को भी चैतन्यता प्रदान करते हैं, वे अन्तर्यामी भगवान् आप ही हैं, आपको प्रणाम है।

एकस्त्वमेव भगवन्निदमात्मशक्त्या
                  मायाख्ययोरुगुणया महदाद्यशेषम् ।
सृष्ट्वानुविश्य पुरुषस्तदसद्गुणेषु
                  नानेव दारुषु विभावसुवद् विभासि।।२।।

भगवन् ! आप अकेले ही अपनी अनन्त गुणमयी मायाशक्ति से इस महदादि सम्पूर्ण जगत् को रचकर उसके इन्द्रियादि असत् गुणों में जीव रूप से अनुप्रविष्ट हो इस प्रकार अनेकवत् भासते हैं, जैसे नाना प्रकार के काष्ठों में प्रकट हुई आग अपनी उपाधिजा के अनुसार भिन्न-भिन्न रूप से भासती है।

त्वद्दत्तया वयुनयेदमचष्ट विश्वं
                 सुप्तप्रबुद्ध इव नाथ भवत्प्रपन्नः।
तस्यापवर्ग्यशरणं  तव पादमूलं
                 विस्मर्यते कृतविदा कथमार्तबन्धो।।३।।

हे नाथ! ब्रह्माजी ने भी आपकी शरण में आकर आपके दिये हुए ज्ञान के प्रभाव से इस जगत् को सोकर उठे हुए पुरुष के समान देखा था। हे दीनबन्धो ! मुक्त पुरुषों के भी आश्रय करने योग्य आपके चरणों को कृतज्ञ पुरुष कैसे भूल सकता है?।

नूनं विमुष्टमतयस्तव मायया ते
                  ये त्वां भवाप्ययविमोक्षणमन्यहेतोः।
अर्चन्ति कल्पकतरुं कुणपोपभोग्य-
                 मिच्छन्ति यत्स्पर्शजं निरयेऽपि नृणाम्।।४।।

जिनके संसर्ग से होने वाला सुख नरकतुल्य योनि में भी प्राप्त हो सकता है, उन शवतुल्य शरीर से भोगे जाने योग्य विषयों की जो पुरुष इच्छा करते हैं और जो जन्म- मरण रूप संसार से मुक्ति दिलाने वाले कल्पवृक्ष रूप आपकी मोक्ष के सिवा किसी और हेतु से उपासना करते हैं, अवश्य ही उनकी बुद्धि को आपकी माया ने ठग लिया है।

या निर्वृतिस्तनुभृतां तव पादपद्म-
                    ध्यानाद् भवज्जनकथाश्रवणेन वा स्यात्।
सा ब्रह्मणि स्वमहिमन्यपि नाथ मा भूत्
                    किं त्वन्तकासिलुलितात् पततां विमानात्।।५।।

आपके चरण कमलों का ध्यान करने से अथवा आप के भक्तों की कथाएँ सुननेसे प्राणियों को जो आनन्द प्राप्त होता है, वह अपने स्वरूप भूत ब्रह्ममें भी नहीं मिल सकता है; फिर जिनको कालकी तलवार खण्डित कर डालती है, उन स्वर्गके विमानों से गिरने वाले पुरुषों को तो वह मिल ही कैसे सकता है।

भक्तिं मुहुः प्रवहतां त्वयि मे प्रसङ्गो
                       भूयादनन्त महताममलाशयानाम्।
येनाञ्जसोल्बणमुरुव्यसनं भवाब्धिं
                         नेष्ये भवद्गुणकथामृतपानमत्तः।।६।।

अतः हे अनन्त ! आप में निरन्तर भक्ति भाव रखने वाले शुद्धचित्त महापुरुषों से ही मेरा बारंबार समागम हो, जिससे मैं आपके गुणों के कथामृत का पान करने से उन्मत्त होकर अतिउग्र और नाना प्रकार के दुःखों से पूर्ण इस संसार- सागर को सुगमता से ही पार कर लूँ।

ते न स्मरन्त्यतितरां प्रियमीश मर्त्यं
                  ये चान्वदः सुतसुहृद्गृहवित्तदाराः।
ये त्वब्जनाभ भवदीयपदारविन्द-
                  सौगन्ध्यलुब्धहृदयेषु कृतप्रसङ्गाः।।७।।

हे कमल नाभ! आपके चरणकमलों की सुगन्ध में जिनका चित्त लुभाया हुआ है, उन महापुरुषों का जो लोग समागम करते हैं, हे ईश ! वे अपने इस अत्यन्त प्रिय शरीर और इसके सम्बन्धी पुत्र, मित्र, गृह और स्त्री आदि का स्मरण भी नहीं करते।

तिर्यङ्नगद्विजसरीसृपदेवदैत्य-
                  मर्त्यादिभिः परिचितं सदसद्विशेषम्।
रूपं स्थविष्ठमज ते महदाद्यनेकं
                   नातः परं परम वेद्मि न यत्र वादः।।८।।

हे अज ! मैं तो पशु आदि तिर्यग्योनि, पर्वत, पक्षी, सर्प, देवता, दैत्य और मनुष्य आदि से परिपूर्ण तथा महत्तत्त्वादि अनेकों कारणों से सम्पादित आपके इस सदसत्स्वरूप स्थूल शरीर को ही जानता हूँ। इसके परे जो आपका परम स्वरूप है, जिसमें वाणी की गति नहीं है, उसको मैं नहीं जानता।

कल्पान्त एतदखिलं जठरेण गृह्णन्
                   शेते पुमान् स्वदृगनन्तसखस्तदङ्के।
यन्नाभिसिन्धुरुहकाञ्चनलोकपद्म-
                   गर्भे द्युमान् भगवते प्रणतोऽस्मि तस्मै।।९।।

हे नाथ! कल्प के अन्त में जो स्वयं प्रकाश परमपुरुष भगवान् इस सम्पूर्ण जगत् को अपने उदर में लीन करके शेषनाग का सहारा ले उनकी गोद में शयन करते हैं तथा जिनके नाभिसिन्धु से प्रकट हुए सकल लोकों के उत्पत्तिस्थान सुवर्णमय कमल से परम तेजोमय ब्रह्माजी उत्पन्न हुए हैं, उन्हीं आप परमेश्वर को मैं प्रणाम करता हूँ।

त्वं नित्यमुक्तपरिशुद्धविबुद्ध आत्मा
                 कूटस्थ आदिपुरुषो भगवांस्त्र्यधीशः।
यद् बुद्धयवस्थितिमखण्डितया स्वदृष्ट्या
                  द्रष्टा स्थितावधिमखो व्यतिरिक्त आस्से।।१०।।

हे प्रभो ! आप जीवात्मा से भिन्न अर्थात् पुरुषोत्तम हैं; क्योंकि आप नित्य मुक्त, नित्य शुद्ध, चेतन, आत्मा, निर्विकार, आदि पुरुष, षडैश्वर्य सम्पन्न, तीनों लोकों के स्वामी और अपनी दृष्टि से बुद्धि की अवस्थाओं को अखण्डरूप से देखने वाले हैं। संसार की स्थिति के लिये ही आप यज्ञपुरुष श्रीविष्णु भगवान् के रूप से स्थित हैं।

यस्मिन् विरुद्धगतयो ह्यनिशं पतन्ति
                  विद्यादयो विविधशक्तय आनुपूर्व्यात्।
तद् ब्रह्म विश्वभवमेकमनन्तमाद्य-
                  मानन्दमात्रमविकारमहं प्रपद्ये।।११।।

जिनसे विद्या, अविद्या आदि विरुद्ध गतियों वाली अनेक शक्तियाँ क्रमशः अहर्निश प्रकट होती हैं, उन विश्व की उत्पत्ति करने वाले एक, अनन्त, आद्य, आनन्द मात्र एवं निर्विकार ब्रह्म की मैं शरण लेता हूँ।

सत्याऽऽशिषो हि भगवंस्तव पादपद्म-
                     माशीस्तथानुभजतः पुरुषार्थमूर्तेः।
अप्येवमर्य भगवान् परिपाति दीनान्
                      वाश्रेव वत्सकमनुग्रहकातरोऽस्मान्।।१२।।

हे भगवन्! 'आप परम पुरुषार्थ स्वरूप हैं' ऐसा समझकर जो निष्काम भाव से निरन्तर आपका भजन करते हैं, उन श्रेष्ठ भक्तों के लिये राज्यादि भोगों की अपेक्षा पुरुषार्थ स्वरूप आपके चरण कमलों की प्राप्ति ही भजन का यथार्थ फल है। यद्यपि यही ठीक है तो भी गौ सदृश अपने तुरंत के जन्मे हुए बछड़े को दूध पिलाती और व्याघ्रादि से बचाती है, उसी प्रकार भक्तों पर अनुग्रह करने के लिये सदा विकल रहने वाले आप हम-जैसे सकाम भक्तों को भी हमारी कामना पूर्ण करके संसार सागर से बचाते हैं।

“इस प्रकार श्रीमद्भागवत महापुराण के चतुर्थ स्कन्ध के नवम अध्याय में ध्रुव जी के द्वारा श्री भगवत् स्तुति सम्पूर्ण हुई” । 

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