इन्द्र के समतुल्य ऐश्वर्य एवं वैभव प्राप्ति हेतु करें इन्द्रकृत श्री रामस्तोत्र का पाठ

इन्द्र के समतुल्य ऐश्वर्य एवं वैभव प्राप्ति हेतु करें इन्द्रकृत श्री रामस्तोत्र का पाठ

यह स्तोत्र श्री मदध्यात्मरामायण के युद्धकाण्ड के त्रयोदश सर्ग में इन्द्रजी के द्वारा रचित है। इस स्तोत्र का नित्यप्रति प्रातः या सांय पाठ करता है उसे भगवान् राम की कृपा से सुख, शांति, अनुराग, यश, और कीर्ति प्राप्ति होती है एवं भगवान् श्री राम का सायुज्य प्राप्त करता है | 

इन्द्र उवाच 

भजेऽहं सदा राममिन्दीवराभं भवारण्यदावानलाभाभिधानम् ।  
भवानीहृदा भावितानन्दरूपं  भवाभावहेतुं भवादिप्रपन्नम्।।१।।

इन्द्र बोले- जो नील कमल की-सी आभा वाले हैं, संसार रूप वन के लिये जिनका नाम दावानल के सदृश  है, श्री पार्वती जी जिनके आनन्दस्वरूप का हृदय में ध्यान करती हैं, जो (जन्म-मरण रूप) संसार से छुड़ाने वाले हैं और शंकरादि देवों के आश्रय हैं, उन भगवान् राम को मैं भजता हूँ।

सुरानीकदुःखौघनाशैकहेतुं नराकारदेहं निराकारमीड्यम्।
परेशं परानन्दरूपं वरेण्यं हरिं राममीशं भजे भारनाशम्।।२।।

जो देवमण्डल के दुःख समूह का नाश करने के एकमात्र कारण हैं तथा जो मनुष्य रूपधारी, आकारहीन और स्तुति किये जाने योग्य हैं, पृथ्वी का भार उतारने वाले उन परमेश्वर परमानन्द रूप पूजनीय भगवान् राम को मैं भजता हूँ।

प्रपन्नाखिलानन्ददोहं प्रपन्नं प्रपन्नार्तिनिःशेषनाशाभिधानम्।
तपोयोगयोगीशभावाभिभाव्यं कपीशादिमित्रं भजे राममित्रम्।।३।।

जो शरणागतों को सब प्रकार आनन्द देने वाले और उनके आश्रय हैं, जिनका नाम शरणागत भक्तों के सम्पूर्ण दुःखों को दूर करने वाला है, जिनका तप और योग एवं बड़े-बड़े योगीश्वरों की भावनाओं द्वारा चिन्तन किया जाता है तथा जो सुग्रीवादि के मित्र हैं, उन मित्र रूप भगवान् राम को मैं भजता हूँ।

सदा भोगभाजां सुदूरे विभान्तं सदा योगभाजामदूरे विभान्तम्।
चिदानन्दकन्दं सदा राघवेशं  विदेहात्मजानन्दरूपं प्रपद्ये।।४।। 

जो भोगपरायण लोगों से सदा दूर रहते हैं और योगनिष्ठ पुरुषों के सदा समीप ही विराजते हैं, श्रीजानकी जी के लिये आनन्दस्व रूप उन चिदानन्द घन श्रीरघुनाथ जी को मैं सर्वदा भजता हूँ।

महायोगमायाविशेषानुयुक्तो विभासीश लीलानराकारवृत्तिः।
त्वदानन्दलीलाकथापूर्णकर्णाः सदानन्दरूपा भवन्तीह लोके।।५।।

हे भगवन् ! आप अपनी महायोग- माया के गुणों से युक्त होकर लीला से ही मनुष्य रूप प्रतीत हो रहे हैं। जिनके कर्ण आपकी इन आनन्दमयी लीलाओं के कथामृत से पूर्ण होते हैं, वे संसार में नित्यानन्द रूप हो जाते हैं।

अहं मानपानाभिमत्तप्रमत्तो न वेदाखिलेशाभिमानाभिमानः।
इदानीं भवत्पादपद्मप्रसादात् त्रिलोकाधिपत्याभिमानोविनष्टः।।६।।

प्रभो! मैं तो सम्मान और सोमपान के उन्माद से मतवाला हो रहा था, सर्वेश्वरता के अभिमान वश मैं अपने आगे किसी को कुछ भी नहीं समझता था। अब आपके चरण कमलों की कृपा से मेरा त्रिलोकाधिपतित्व का अभिमान चूर हो गया।

स्फुरद्रत्नकेयूरहाराभिरामं धराभारभूतासुरानीकदावम्।
शरच्चन्द्रवक्त्रं लसत्पद्मनेत्रं दुरावारपारं भजे राघवेशम्।।७।।

जो चमचमाते हुए रत्नजटित भुजबंद और हारों से सुशोभित हैं, वे पृथ्वी के भार रूप राक्षसों की सेना के लिये दावानल के तुल्य हैं, जिनका शरच्चन्द्र के समान मुख और अति मनोहर नेत्र कमल हैं तथा जिनका आदि-अन्त जानना अत्यन्त कठिन है, उन रघुनाथ जी को मैं भजता हूँ।

सुराधीशनीलाभ्रनीलाङ्गकान्तिं विराधादिरक्षोवधाल्लोकशान्तिम्।
किरीटादिशोभं पुरारातिलाभं भजे रामचन्द्रं रघूणामधीशम्।।८।।

जिनके शरीर की इन्द्रनीलमणि और मेघ के समान श्याम कान्ति है, जिन्होंने विराध आदि राक्षसों को मारकर सम्पूर्ण लोकों में शान्ति स्थापित की है, उन किरीटादि से सुशोभित और श्रीमहादेवजी के परमधन रघुकुलेश्वर श्रीरामचन्द्रजी को मैं भजता हूँ।

लसच्चन्द्रकोटिप्रकाशादिपीठे समासीनमङ्के समाधाय सीताम्।
स्फुरद्धेमवर्णां तडित्पुञ्जभासां भजे रामचन्द्रं निवृत्तार्तितन्द्रम्।।९।।

जो तेजोमय सुवर्णके-से वर्णवाली और बिजलीके समान कान्तिमयी जानकी जी को गोद में लिये करोड़ों चन्द्रमाओं के समान देदीप्यमान सिंहासन पर विराजमान हैं, उन दुःख और आलस्य से हीन भगवान् राम को मैं भजता हूँ।

।।इस प्रकार श्रीमत् अध्यात्मरामायण के युद्धकाण्ड के तेरहवें सर्ग में वर्णित “इन्द्रकृत श्री रामस्तोत्र” सम्पूर्ण हुआ ।।

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