जातकर्म संस्कार क्यों किया जाता है? जानें महत्व एवं विधि

जातकर्म संस्कार क्यों किया जाता है? जानें महत्व एवं विधि

प्राचीन काल में समाज का प्रत्येक कार्य संस्कारों के पश्चात प्रारंभ होता था। जिस कारण भारतीय संस्कृति पर संस्कारों की झलक प्रायः दृष्टिगोचर होती है। हमारे शास्त्रों में सोलह संस्कारों का उल्लेख है। संस्कार सामाजिक परिप्रेक्ष्य में मानव द्वारा स्वीकृत की जाने वाली ऐसी क्रिया पद्धति है, जिसके माध्यम से मनुष्य को पुरुषार्थ चतुष्टय की प्राप्ति होती है। संस्कारों की प्रकृति अत्यंत स्वाभाविक है, मनुष्य के कल्याण और मोक्ष से संबंधित विविध कार्यों को प्रतिबिंबित करने वाले गृह्यसूत्र, शुल्बसूत्र, धर्मसूत्र एवं स्मृतिग्रन्थों में संस्कारों के विषय से संबंधित पर्याप्त सामग्री प्राप्त होती है।  

सोलह संस्कारों में चतुर्थ संस्कार "जातकर्म संस्कार" है। “जाते-जात क्रिया भवेत्” बालक के जन्म से पूर्व गर्भाधान, पुंसवन एवं सीमन्तोन्नयन संस्कारों का विधान है, तत्पश्चात् जातकर्म संस्कार करना चाहिए। यह संस्कार एक या डेढ़ माह के अनन्तर, जब प्रसवकाल होता है और शिशु का जन्म हो जाता है उसके अनन्तर सर्वप्रथम “जातकर्म संस्कार” किया जाता है।  

जातकर्म संस्कार का महत्व 

गर्भस्थ शिशु जब माता के आहार आदि के रस से गर्भ में स्वयं का पोषण करता है, तब उस आहार के माध्यम से बालक में जो दोष आ जाते हैं, उन दोषों की निवृत्ति जातकर्म संस्कार के माध्यम से की जाती है। 

स्मृति संग्रह में लिखा हुआ है - "गर्भाम्बुपानजो दोषो, जातात् सर्वोऽपि नश्यति"। 

गृह्यसूत्र में महर्षि पारस्कर लिखते हैं, "जातस्य कुमारस्याच्छिन्नायां नाड्यां, मेधाजननायुष्ये करोति"  अर्थात् शिशु के नाल छेदन से पूर्व पिता के द्वारा शिशु का मेधाजनन और आयुष्यकर्म करता है। मनुस्मृतिकार भी कहते हैं, कि नालच्छेदन के पूर्व ही यह संस्कार करना चाहिए- 'प्राक् नाभिवर्द्धनात् पुंसो जातकर्म विधीयते। नालछेदन के अनंतर जननाशौच अर्थात् सूतक लग जाता है, अतः सूतककाल में जातकर्म करना निषिद्ध है– 

यावन्न छिद्यते नालं, तावन्नाप्नोति सूतकम्।  

छिन्ने नाले ततः पश्चात्सूतकं तु विधीयते॥  (वीरमित्रोदय-संस्कारप्रकाश) 

संतानोत्पत्ति के अनंतर नाल छेदन कितने समय तक करना चाहिए, इसके विषय में भी आचार्य बताते हैं कि बारह घड़ी (चार घंटे) अथवा सोलह घड़ी (लगभग साढ़े ६ घंटे) के अनन्तर नालछेदन करना चाहिए। इतने समय में जातकर्म संबंधी समस्त कर्म पूर्ण किए जा सकते हैं।  

वीरमित्रोदय संस्कारप्रकाश में ब्रह्म पुराण के वचन से बताया गया है कि शिशु का जन्म जिस घर में होता है वहां पितृगण और देवगण स्वतः ही प्रसन्नतापूर्वक निवास करते हैं, जिससे वह शुभ दिन पुण्यशाली तथा पूजनीय हो जाता है। अतः इस दिन भगवान का पूजन करना चाहिए एवं ब्राह्मणों को स्वर्ण, भूमि, गौ इत्यादि का दान करना चाहिए। याज्ञवल्क्य जी ने लिखा है कि शिशु जन्म के दिवस पर ब्राह्मणों को दान लेना चाहिए। 

जातकर्म संस्कार की विधि 

गर्भस्थ शिशु के नाभि में एक नाल (नली) लगी होती है, जिसका संबंध सीधे माता के हृदय के साथ होता है। इसी रस वाहिनी नाल के माध्यम से माता के द्वारा ग्रहण किए गए आहार से शिशु का गर्भ में पालन पोषण होता है। जन्म के अनन्तर बालक इसी नाल के साथ गर्भ से बाहर आता है। जातकरण संस्कार के द्वारा इसी नाल का छेदन किया जाता है, तदनंतर माता का बालक से विच्छेद किया जाता है। शास्त्रों में बताया गया है कि शिशु का पिता जिस क्षण पुत्रोत्पत्ति का समाचार सुने, तत्क्षण ही उसे अपने मान्य देवी देवता और बड़े बुजुर्गों को प्रणाम कर आशीर्वाद प्राप्त करना चाहिए, तत्पश्चात् गंगादि नदियों के पवित्र जल में उत्तराभिमुख होकर सचैल (वस्त्रों सहित) स्नान करना चाहिए।  

सचैल स्नान क्या है 

इस विधि में वस्त्रों सहित स्नान किया जाता है, परंतु यदि यह संभव न हो तो मार्जन अवश्य करना चाहिए तथा पूर्व पहने वस्त्रों का त्याग करना चाहिए।  यदि पुत्र मूल जेष्ठा अथवा व्यतिपात इत्यादि अशुभ योग में उत्पन्न हुआ हो तो उसका मुख देखे बिना ही पिता को स्नान करना चाहिए एवं यदि किसी को संतान की प्राप्ति रात्रि के समय होती है तो उस स्थिति में भी स्नान का नियम है। रात्रि में स्नान निषिद्ध होता है, परन्तु शास्त्र कहता है कि यह स्नान नैमित्तिक है, अर्थात् रात्रि में भी किया जा सकता है। 

*रात्रौ स्नानं न कुर्वीत दानं चैव विशेषतः।  

नैमित्तिकं तु कुर्वीत स्नानं दानं च रात्रिषु ।। 

 स्नान आदि कर लेने के पश्चात् पिता की शुद्धि पूर्णतया पुत्र के स्पर्श हेतु हो जाती है, परंतु माता की शुद्धि दस दिनों के बाद ही होती है। 

"जाते पुत्रे पितुः स्नानं सचैलं तु विधीयते।  

 माता शुध्येद्दशाहेन स्नानात्तु स्पर्शनं पितुः॥” (वीरमित्रोदय-महर्षि संवर्त का वचन) 

जातकर्म संस्कार के लिए बालक के पिता अपनी पत्नी की गोद में बालक को पूर्वाभिमुख (पूर्वी मुख) बिठाकर स्वस्तिवाचन के बाद गणेश पूजन आदि पंचांगपूजन करके सर्वप्रथम मेधाजनन संस्कार करें। जैसा कि मेधा जनन के नाम से ही स्पष्ट है, यह बालक को मेधावी अर्थात प्रखर बुद्धि और विचारवान बनाने के निमित्त किया जाता है। इस संस्कार में किसी सोने अथवा चांदी के पात्र में मधु को लेकर चटाना चाहिए अथवा केवल व्रत को लेकर स्वर्ण की शलाका से या दाहिने हाथ की अनामिका उंगली के अग्रभाग में स्वर्ण रखकर स्वर्ण सहित उंगली से मधु चटाया जाता है। इस क्रिया को मेधा जनन संस्कार कहते हैं। मधु और स्वर्ण यह अमृत स्वरूप में हैं, इनके योग में अद्भुत शक्ति होती है और इनका प्रभाव भी अमोघ है, जो कि बच्चों की आयु एवं मेधा में वृद्धि करने वाली रासायनिक औषधि की भांति कार्य करता है। अतः इनके योग से प्रखर बुद्धि का निर्माण होता है। जातक में यह मेधा जन्म की प्रक्रिया और मंत्रों के अभिमंत्रण का प्रभाव शिशु का उपकार करता है एवं उसे दीर्घजीवन प्रदान करता है। 

आयुष्यकरण मेधाजनन के बाद आयुष करण कर्म को किया जाता है, इस कर्म के प्रभाव से बालक दीर्घजीवी बनता है। जिस प्रकार अग्नि, सोम, ब्रह्मा,  देवगण और समुद्र आयुष्मान हैं, उसी प्रकार यह बालक भी आयुष्मान हो, ऐसी प्रार्थना मंत्रों के माध्यम से आयुषक्रिया में की जाती है। आयुष्यकरण एक उपांग कर्म होता है, जिसका उद्देश्य है कि बालक दीर्घायु तक स्वास्थपूर्ण हो, उसे शारीरिक रूप से कोई हानि ना हो, रोग ना हो तथा किसी भी प्रकार की कोई मानसिक क्षति न हो। इसके लिए यजुर्वेद की बारह ऋचाओं में से प्रारंभ की ग्यारह ऋचाओं का उच्चारण करते हुए बालक के समस्त शरीर का स्पर्श किया जाता है। 

बालक के जन्म भूमि की प्रार्थना 

जिस भूमि अथवा स्थान पर माता के गर्भ से शिशु का स्पर्श सर्वप्रथम होता है वह स्थान उस बालक का जन्म भूमि स्थान कहलाता है। पिता के माध्यम से यह माना जाता है कि यह बालक मुझे भगवती भूमि से ही प्राप्त हुआ है, अतः इसका मेरे ऊपर बहुत महान ऋण है। इसी भावना को ध्यान में रखकर बालक का पिता मंत्रों का पाठ श्रवण करते हुए भगवती भूमि का स्पर्श करता है। 

बालक की कुमारग्रह, बालग्रहों से रक्षा के उपाय 

बालक यदि जन्म के अनंतर रोना, हंसना, स्पंदन आदि क्रियाएं न करे, एवं प्रसन्न न रहे, म्लान रहे, उसका मुखमंडल भावशून्य रहे, तो यह माना जाता है कि उसे किसी बालग्रह ने ग्रस लिया है। इन दोषों से निवृत्ति हेतु सुश्रुतसंहिता में उपाय बताया गया है । 

नालछेदन कब करना चाहिए 

इन सभी क्रियाओं के पश्चात आठ अंगुल छोड़कर नालछेदन करना चाहिए एवं मंत्र पाठ, अभिषेक इत्यादि करके जातकर्म संस्कार संपन्न करें। 

कुछ शास्त्रकार प्रसव के समय नालछेदन से पूर्व ही इस संस्कार को सम्पादित करना चाहिए ऐसा कहा है परन्तु वर्तमान समय में नरघटी अथवा सोलह घटी तक कर लेना चाहिए।  

  • ग्राह्य तिथियाँ:- प्रतिपदा, (कृष्णपक्ष), द्वितीया, तृतीया, पंचमी, सप्तमी, दशमी, त्रयोदशी, (शुक्लपक्ष)। 
  • शुभवार:- चन्द्रवार, बुधवार, गुरुवार, शुक्रवार। 
  • नक्षत्र:- अश्विनी, रोहिणी, मृगशिरा, पुनर्वसु, पुष्य, तीनों-उत्तरा, हस्त, चित्रा, स्वाति, अनुराधा, श्रवण, धनिष्ठा, शतभिषा, रेवती। 
  • कुछ लोग परम्परा के अनुसार 11 वें अथवा 12 वें दिन कर लेते हैं।  

स्तनपान का मुहूर्त:- जन्मान्तर 5 वें या 7 वें किसी दिन नीचे लिखे भद्रा, व्यति, वैधृति, व्याघात आदि योगों को छोडकर, निम्न शुभ मुहूर्त में माता संतान को प्रथम बार स्तनपान कराएं।  

  • शुभ तिथि:- प्रतिपदा (कृष्णपक्ष), द्वितीया, तृतीया, पंचमी, सप्तमी, दशमी, एकादशी, त्रयोदशी, (शुक्लपक्ष)। 
  • शुभनक्षत्र:- रोहिणी, मृगशिरा, पुनर्वसु, पुष्य, तीनों उत्तरा, हस्त, चित्रा,  अनुराधा, श्रवण, धनिष्ठा, रेवती। 
  • शुभवार:- चन्द्रवार, बुधवार, गुरुवार, शुक्रवार। 
  • शुभ लग्न:- 2, 3, 4, 6, 7, 9, 12 राशि लग्न। 
  • सूतिका पथ्य में भी उपरोक्त मुहूर्त ग्राह्य हैं।  

तो इस प्रकार से जातकर्म संस्कार संपन्न किया जाता है, जो कि शिशु के शारीरिक एवं मानसिक विकास में अहम भूमिका निभाता है, ध्यान रहे कि यह क्रियाएं केवल वैदिक विधि द्वारा ही संपन्न करवानी चाहिए। 

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