विपदाओं की निवृत्ति तथा ऐश्वर्य की वृद्धि हेतु उत्पन्ना एकादशी

विपदाओं की निवृत्ति तथा ऐश्वर्य की वृद्धि हेतु उत्पन्ना एकादशी

।। उत्पन्ना एकादशी व्रत ।। 

उत्पन्ना एकादशी का व्रत मार्गशीर्ष मास के कृष्णपक्ष की एकादशी तिथि को किया जाता है । इस एकादशी का व्रत करने से उपासक को अभिलषित फलों की प्राप्ति होती है । श्रीभविष्योत्तर पुराण के अनुसार यह एकादशी का व्रत समस्त मनोकामनाओं को प्राप्त कराने वाला है इस दिन भगवान् विष्णु की श्रद्धापूर्वक और भक्तियुक्त होकर पूजा करने से सभी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं ।

उत्पन्ना एकादशी  2024 व्रत और पारण का शुभ मुहूर्त :

  • उत्पन्ना एकादशी व्रत का शुभ मुहूर्त 26 नवम्बर को है सभी का । 
  • एकादशी व्रत का पारण द्वादशी तिथि में 27 नवम्बर को करें । 

एकादशी व्रत के दिन क्या करें ?

ब्रह्ममुहूर्त में शीघ्र शयनावस्था को त्यागकर स्नान आदि से निवृत्त हो जाएं और घर के मंदिर या किसी देवालय में जाकर दीप प्रज्ज्वलित करके भगवान् विष्णु की आराधना  करें । 

  • पूजन के समय गंगाजल और पंचामृत से अभिषेक अवश्य करें । 
  • भगवान् को नेवैद्य और फल का भोग अर्पण करें ।
  • भगवान् विष्णु के भोग में तुलसीदल अवश्य सम्मिलित करें । 
  • “ॐ नमो भगवते वासुदेवाय” मंत्र का अधिक से अधिक जप करें ।
  • भगवन् नाम का सुमिरण करें । 

श्रीभविष्योत्तर पुराण में वर्णित “उत्पन्ना एकादशी” व्रत की कथा :

नैमिषारण्य क्षेत्र में श्रीसूतजी ब्राह्मणों से बोले- हे ब्राह्मणों ! विधिसहित इस एकादशीव्रत माहात्म्य को भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा था । प्रेमीजन ही इस व्रत की उत्पत्ति का श्रवण प्रेमपूर्वक करते हैं और इस लोक में अनेकों सुखों को भोगकर अन्त में विष्णुपद को प्राप्त करते हैं। 

श्रीसूतजी बोले- हे ब्राह्मणों ! सर्वप्रथम इस एकादशी माहात्म्य को भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा था, उसी अनुसार मैं आपसे इस व्रत विधि को कहता हूँ । अर्जुन ने पूछा - हे जनार्दन ! इस एकादशी व्रत का महात्म्य क्या है ? इस व्रत के करने से क्या पुण्य फल प्राप्त होता है और इस व्रत को करने की विधि क्या है ? सो आप मुझसे कहिये । ऐसा सुनकर भगवान् श्रीकृष्ण ने कहा- हे अर्जुन ! हेमन्त ऋतु के मार्गशीर्ष माह में कृष्णपक्ष की एकादशी को यह व्रत करना चाहिए ।  व्रत करने वाले साधक को स्नान करने के पश्चात् पापी, चोर, पाखण्डी, दूसरे की बुराई करने वाला, परस्त्री गमन करने वाला, दुराचारी, दूसरे के धन का हरण करने वाला, मंदिरों में चोरी करने वाला आदि इन सभी मनुष्यों से बात नहीं करनी चाहिये । यदि अज्ञानवश इनसे बात हो भी जाये तो इस पाप को दूर करने के लिये भगवान् सूर्यनारायण के दर्शन करने चाहिये । स्नान के बाद धूप,दीप,नैवेद्य से भगवान् का पूजन करना चाहिये तथा रात्रि को दीप दान करना चाहिये । इस रात्रि में निद्रा तथा स्त्री संसर्ग को त्याग देना चाहिये । 

एकादशी के दिन तथा रात्रि को भजन और सत्संग आदि कर्मों में समय व्यतीत करना चाहिये । उस दिन श्रद्धापूर्वक ब्राह्मणों को दक्षिणा देनी चाहिये और उनसे अपनी गलतियों की क्षमा माँगनी चाहिये । धार्मिकजनों को शुक्ल और कृष्णपक्ष की दोनों एकादशियों को एक जैसा मानना चाहिये । उनमें भेद मानना उचित नहीं है। 

एकादशी का व्रत करने पर ही यज्ञ, दान, तप आदि प्राप्त होते हैं अन्यथा नहीं । अतः एकादशी का व्रत अवश्य करना चाहिये । इस व्रत में शंख से जलपान नहीं करना चाहिये । एकादशी व्रत का फल सहस्र यज्ञों से भी अधिक है । एकादशी का इस प्रकार वर्णन सुनकर अर्जुन ने कहा - हे भगवन् ! आपने इस एकादशी के पुण्य को अनेक तीर्थों के पुण्य से श्रेष्ठ तथा पवित्र क्यों बतलाया है, सो सब कहिये ?

भगवान् श्रीकृष्ण बोले हे अर्जुन ! सतयुग में एक महाभयंकर मुर नाम का दैत्य था । उस मुर दैत्य से सभी देवता अत्यन्त भयभीत रहते थे। दैत्य इन्द्र आदि देवताओं को जीतकर उन्हें उनके स्थान से हटा दिया करता था । तब देवेन्द्र ने महेन्द्र से प्रार्थना की- हे शिवशंकर हम सब लोग इस समय मुर दैत्य के अत्याचारों से मृत्युलोक में अपना जीवन व्यतीत कर रहे हैं । कृपाकर इस दुःख से मुक्ति का उपाय बताइये। महादेव बोले- हे देवेन्द्र ! आप भगवान् नारायण के पास जाइए । इन्द्र तथा अन्य देवताक्षीर सागर, जहाँ पर है भगवान् विष्णु शेषशय्या पर शयन करते हैं वहाँ गये और देवताओं सहित इन्द्र ने उनकी इस प्रकार स्तुति की – 

हे देवताओं के देवता और देवताओं के देवताओं द्वारा स्तुति करने योग्य आपको बारम्बार प्रणाम है। हे दैत्यों के संहारक ! हे मधुसूदन ! आप हमारी रक्षा करें। हे जगन्नाथ ! समस्त देव दैत्यों से भयभीत होकर आपकी शरण में आये हैं। आप ही इस संसार के कारक और कर्त्ता हैं, सब के माता पिता हैं। जगत की उत्पत्ति, पालन और संहारकर्त्ता तथा देवताओं की सहायता करने वाले और शान्ति प्रदान करने वाले हैं। आकाश, पाताल आप ही हैं। तीनों लोकों को उत्पन्न करने वाले ब्रह्मा, सूर्य, चन्द्र, अग्नि, हव्य, स्मरण, मन्त्र, यजमान, यज्ञ, कर्म कर्ता,भोक्ता आदि आप ही हैं। हे देव ! शरण में आये हुए की आप रक्षा करने वाले हैं। इस प्रकार स्तुति के पश्चात् देवता बोले – हे भगवन् इस समय दैत्यों ने हमें स्वर्ग से निष्कासित कर दिया है। अब आप हमारी रक्षा कीजिये ! देवताओं की करुण वाणी सुनकर भगवान् नारायण बोले- हे देवताओं ! वह कौन सा दैत्य है जिसने देवताओं को जीत लिया है? वह कहाँ रहता है तथा उसमें कैसा बल है? यह सब मुझसे कहो ! भगवान् के वचनों को सुनकर इन्द्र बोले-हे भगवान् ! प्राचीन समय में नाड़ीजंग नाम का एक दैत्य था। उस दैत्य की ब्रह्मवंश से उत्पत्ति हुई थी । उसी दैत्य के लड़के का नाम मुर है। वह अपनी राजधानी चन्द्रावती में रहता है। वह अपने बल से समस्त विश्व को जीतकर और सब देवताओं को देवलोक से निकालकर इन्द्र, अग्नि, यम, वरुण, चन्द्रमा, सूर्य बनकर पृथ्वी को तपाता है। मेघ बनकर जल की वर्षा करता है। अतः आप उस दैत्य का संहार कर देवताओं को विजय दिलाइये । इन्द्र के इस प्रकार वचन सुनकर श्रीविष्णु भगवान् बोले- हे देवताओं ! मैं तुम्हारे शत्रुओं का शीघ्र ही संहार करूँगा । अब सब चन्द्रावती नगरी को जाइये । इस प्रकार भगवान् विष्णु देवताओं से कहकर उनके पीछे- पीछे चन्द्रावती नगरी को चल दिये। उस समय मुर अनेक दैत्यों के साथ युद्धभूमि में गरज रहा था । युद्ध होने पर असंख्य दानव अनेकों अस्त्र-शस्त्रों को धारणकर देवताओं से युद्ध करने लगे परन्तु देवता दानवों के आगे एक क्षण भी न ठहर सके । तब भगवान् विष्णु भी युद्धभूमि में आ गये । दानवों ने भगवान् विष्णु को देखा तो वे उन पर अस्त्र-शस्त्रों का प्रहार करने लगे । भगवान् विष्णु भी चक्र और गदा से उनके शस्त्रों को नष्ट करने लगे । इस युद्ध में अनेकों दानव सदैव के लिये सो गये परन्तु दैत्यों का राजा मुर भगवान् के साथ निश्चल भाव से युद्ध करता रहा। भगवान् विष्णु मुर को मारने के लिये जिन- जिन शस्त्रों का प्रयोग करते वे सब उसके तेज से नष्ट होकर उस पर पुष्पों के समान गिरने लगे। वह आपस में मल्लयुद्ध करने लगे परन्तु उस दैत्य को न जीत सके। अन्त में भगवान् विष्णु शांत होकर विश्राम करने की इच्छा से बद्रिकाश्रम गए। उस समय  अड़तालीस कोस लम्बी एक द्वारवाली हेमवती नाम की गुफा में शयन करने के लिए विष्णु भगवान् चले गए ।

हे अर्जुन ! अतः मैने उस गुफा में शयन किया। वह दैत्य भी वहाँ आया । मुझको शयन करता देख मारने को तैयार हो गया । उसी समय मेरी देह से एक अत्यन्त सुन्दर कन्या दिव्य अस्त्र धारण करके उत्पन्न हुई और दैत्य के सामने आकर युद्ध करने लगी । वह दैत्य इस कन्या से लगातार युद्ध करता रहा । कुछ समय व्यतीत हो जाने पर इस कन्या ने क्रोध में आकर उस दैत्य के अस्त्र-शस्त्रों के टुकड़े-टुकड़े कर दिये एवं रथ भी तोड़ दिया । तब वह दैत्य महान् क्रोध करके उससे मल्लयुद्ध करने लग गया । युद्ध करते हुए कन्या ने उस राक्षस को धक्का मारा और वह मूर्च्छित हो गया । जब वह दैत्य मूर्च्छा से जगा तो उस कन्या ने उसका सिर काटकर यमपुर पहुँचा दिया । अन्य समस्त दानव भी ऐसा देखकर पाताललोक चले गये। जब भगवान् विष्णु की निद्रा टूटी तो उस दैत्य को मरा देखकर अत्यंत आश्चर्य करने लगे और विचार करने लगे इस दैत्य को किसने मारा है ? तब कन्या भगवान् से हाथ जोड़कर बोली कि हे भगवान् ! यह दैत्य आपका वध करने के लिए आया था, तब मैंने आपके शरीर से उत्पन्न होकर इसका वध कर दिया । इस पर भगवान् बोले- हे कन्या ! तूने इसको मारा है, अतः मैं तेरे ऊपर अत्याधिक प्रसन्न हूँ। तूने तीनों लोकों के देवताओं को सुखी किया है इसलिए तू अपनी इच्छानुसार वरदान माँग । कन्या बोली- हे भगवान् ! मुझे यह वरदान दीजिये कि जो मेरा व्रत करे उसके समस्त पाप नष्ट हों और अन्त में वह स्वर्ग को जाये । मेरे व्रत का आधा फल रात्रि को मिले और उससे आधा फल एक समय भोजन करने वाले को प्राप्त हो ।

जो मनुष्य भक्तिपूर्वक मेरे व्रत को करे, उसे निश्चय ही आपके लोक की प्राप्ति हो । इस प्रकार का वरदान हे प्रभु आप मुझे प्रदान करें ।

जो मनुष्य दिन तथा रात्रि को एक बार भोजन करे वह धन-धान्य से भरपूर रहे । इस पर भगवान् विष्णु उस कन्या से बोले- हे कल्याणि ! ऐसा ही होगा । मेरे और तेरे भक्त एक ही होंगे और अंत में संसार प्रसिद्धि को प्राप्त होकर मेरे लोक को प्राप्त करेंगे । हे कन्या ! एकादशी को पैदा होने से तेरा नाम भी एकादशी हुआ । जो मनुष्य तेरा इस दिन का व्रत करेंगे उनके समस्त पाप नष्ट हो जायेंगे और अंन्त में मुक्ति को प्राप्त करेंगे । तू मेरे लिए अब तीज, आठें, नवमी और चौदस से भी अधिक प्रिय है। तेरे व्रत का फल सब तीर्थों के फल से महान होगा यह मेरा कथन सत्य है। ऐसे कहकर भगवान् उसी स्थान पर अन्तर्ध्यान हो गये। एकादशी भी भगवान् के उत्तम वचनों को सुनकर अत्यन्त प्रसन्न हुई।

हे अर्जुन ! सब तीर्थो, दानों, व्रतों के फल से एकादशी व्रत का फल सर्वश्रेष्ठ है। मैं एकादशी व्रत करने वाले मनुष्यों के शत्रुओं को, विघ्नों को नष्ट कर देता हूँ और उन्हें मोक्ष दिलाता हूँ। हे अर्जुन ! यह मैंने तुमसे एकादशी की उत्पत्ति के बारे में बताया है। एकादशी पापों को नष्ट करने वाली तथा समस्त सिद्धियाँ प्रदान करने वाली है। 

जो मनुष्य भक्तिपूर्वक कथा सुनते हैं वे विष्णुलोक को जाते हैं और करोड़ों वर्षों तक उनकी उस जगह पूजा होती है। जो एकादशी माहात्म्य के चौथाई भाग को सुनते हैं उनके ब्रह्महत्या सदृश   महान् पाप नष्ट हो जाते हैं। विष्णुधर्म के सदृश संसार में कोई दूसरा धर्म नहीं है और एकादशी व्रत के तुल्य कोई दूसरा व्रत नहीं है।

कथासार 

यह एकादशी भगवान् विष्णु की साक्षात् शक्ति है, जिस शक्ति ने उस राक्षस का वध किया जिसे भगवान् के पापरूपी राक्षस भला कैसे ठहर सकते हैं ? जिस शक्ति ने देवताओं को सुख दिया वह प्राणिमात्र को क्या नहीं दे सकती- सुख, समृद्धि, शांति और मोक्ष - सभी कुछ सहज प्राप्त हो जाता है।

श्री भविष्योत्तर पुराण में वर्णित उत्पन्ना एकादशी व्रत का माहात्म्य :

  • एकादशी व्रत करने से समस्त प्रकार के कष्टों का शमन होता है।
  • मोक्ष की प्राप्ति ।
  • समस्त प्रकार के कष्टों और विपदाओं की परिसमाप्ति ।
  • भौतिक सुख,समृद्धि और ऐश्वर्य आदि में अभिवृद्धि ।
  • चन्द्र व सूर्यग्रहण में दान देने से और कुरुक्षेत्र में स्नान करने से जो पुण्य प्राप्त होता है वहीं पुण्य मनुष्य को एकादशी का व्रत करने से मिलता है। 
  • अश्वमेध यज्ञ करने से जो पुण्य प्राप्त होता है उससे सौगुना पुण्य एकादशी को उपवास रखने से मिलता है। 
  • एक हजार तपस्वियों को साठ वर्ष तक भोजन कराने से जो फल प्राप्त होता है, वह फल इस एकादशी का व्रत करने से प्राप्त होता है।
  • जो पुण्य वेद पाठी ब्राह्मण को एक हजार गौदान करने से मिलता है, उससे दस गुना अधिक पुण्य एकादशी का व्रत करने से मिलता है।
  • दस श्रेष्ठ ब्राह्मणों को भोजन कराने से जो पुण्य मिलता है, वह एकादशी के पुण्य के दसवें भाग के बराबर होता है। 

इस प्रकार मनुष्य का सर्वविध कल्याण करने वाली उत्पन्ना एकादशी का व्रत माहात्म्य सम्पूर्ण हुआ । इस व्रत को करने से साक्षात् नारायणलोक की प्राप्ति होती है तथा व्रती के समस्त मनोरथ सम्पूर्ण होते हैं । 

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