करें सदैव सर्वविध रक्षा मृतसञ्जीवनी कवच के द्वारा

करें सदैव सर्वविध रक्षा मृतसञ्जीवनी कवच के द्वारा

।। मृतसञ्जीवनकवचम् ।।

महर्षि वशिष्ठ विरचित इस स्तोत्र में उन्नतीस (29) श्लोक हैं जो भक्त इस लोक और परलोक में अक्षय सुख की प्राप्ति चाहते हैं उन्हें  “मृतसञ्जीवनकवच” के द्वारा स्वयं की रक्षा करते हुए भगवान् मृत्युंजय से प्रार्थना करनी चाहिए । 

विशेष :- शिव आराधना के पश्चात् “मृतसञ्जीवनकवच” का पाठ करें ।

एवमाराध्य गौरीशं देवं मृत्युञ्जयेश्वरम् ।
मृतसञ्जीवनं नाम कवचं प्रजपेत् सदा ॥१॥

गौरीपति मृत्युंजयेश्वर भगवान् शंकर की विधिपूर्वक आराधना करने के पश्चात् भक्त को सदा मृतसंजीवन नामक कवच का सुस्पष्ट पाठ करना चाहिये ।

सारात् सारतरं पुण्यं गुह्याद् गुह्यतरं शुभम् । 
महादेवस्य कवचं मृतसञ्जीवनाभिधम् ॥२॥ 

महादेव भगवान् शंकर का यह मृतसंजीवन नामक कवच तत्त्व का भी तत्त्व है, पुण्यप्रद है, गुह्य से भी गुह्य और मंगल प्रदान करने वाला है । 

समाहितमना भूत्वा शृणुष्व कवचं शुभम् ।
श्रुत्वैतद् दिव्यकवचं रहस्यं कुरु सर्वदा ॥३॥ 

[ आचार्य शिष्य को उपदेश करते हैं कि - हे वत्स ! ] अपने मन को एकाग्र करके इस मृतसंजीवन कवच को सुनो । यह परम कल्याणकारी दिव्य कवच है। इसकी गोपनीयता सदा बनाये रखना ।  

जराभयकरो यज्वा सर्वदेवनिषेवितः । 
मृत्युञ्जयो महादेवः प्राच्यां मां पातु सर्वदा ॥४॥

जरा से अभय करने वाले, निरन्तर यज्ञ करने वाले, सभी देवताओं से आराधित हे मृत्युंजय महादेव ! आप पूर्व-दिशा में मेरी सदा रक्षा करें ।

दधानः शक्तिमभयां त्रिमुखः षड्भुजः प्रभुः ।
सदाशिवोऽग्निरूपी मामाग्नेय्यां पातु सर्वदा ॥५॥

अभय प्रदान करने वाली शक्ति को धारण करने वाले, तीन मुखों वाले तथा छः भुजाओं वाले, अग्निरूपी प्रभु सदाशिव अग्निकोण में मेरी सदा रक्षा करें ।

अष्टादशभुजोपेतो दण्डाभयकरो विभुः। 
यमरूपी महादेवो दक्षिणस्यां सदाऽवतु ॥६॥

अट्ठारह भुजाओं से युक्त, हाथ में दण्ड और अभयमुद्रा धारण करने वाले, सर्वत्र व्याप्त यमरूपी महादेव शिव दक्षिण-दिशा में मेरी सदा रक्षा करें ।

खड्गाभयकरो धीरो रक्षोगणनिषेवितः । 
रक्षोरूपी महेशो मां नैऋत्यां सर्वदाऽवतु ॥७॥

हाथ में खड्ग और अभयमुद्रा धारण करने वाले, धैर्यशाली, दैत्यगणों से आराधित रक्षोरूपी महेश नैऋत्यकोण में मेरी सदा रक्षा करें ।

पाशाभयभुजः सर्वरत्नाकरनिषेवितः । 
वरुणात्मा महादेवः पश्चिमे मां सदाऽवतु ॥८॥ 

हाथ में अभयमुद्रा और पाश धारण करने वाले, सभी रत्नाकरों से सेवित, वरुणस्वरूप महादेव भगवान् शंकर पश्चिम-दिशा में मेरी सदा रक्षा करें ।

गदाभयकरः प्राणनायकः सर्वदागतिः ।
वायव्यां मारुतात्मा मां शङ्करः पातु सर्वदा ॥९॥

हाथों में गदा और अभयमुद्रा धारण करने वाले, प्राणों के रक्षक, सर्वदा गतिशील वायुस्वरूप शंकरजी वायव्यकोण में मेरी सदा रक्षा करें ।

शङ्खाभयकरस्थो मां नायकः परमेश्वरः । 
सर्वात्मान्तरदिग्भागे पातु मां शङ्करः प्रभुः ॥१०॥

हाथों में शंख और अभयमुद्रा धारण करने वाले नायक (सर्वमार्गद्रष्टा) सर्वात्मा सर्वव्यापक परमेश्वर भगवान् शिव समस्त दिशाओं के मध्य में मेरी रक्षा करें ।

शूलाभयकरः सर्वविद्यानामधिनायकः । 
ईशानात्मा तथैशान्यां पातु मां परमेश्वरः ॥११॥

हाथों में त्रिशूल और अभयमुद्रा को धारण करने वाले, सभी विद्याओं के स्वामी, ईशानस्वरूप भगवान् परमेश्वर शिव ईशानकोण में मेरी रक्षा करें । 

ऊर्ध्वभागे ब्रह्मरूपी विश्वात्माऽधः सदाऽवतु ।
शिरो मे शङ्करः पातु ललाटं चन्द्रशेखरः ॥१२॥ 

ब्रह्मरूपी शिव मेरे ऊर्ध्वभाग में तथा विश्वात्मस्वरूप शिव अधोभाग में मेरी सदा रक्षा करें । शंकर मेरे सिर की और चन्द्रशेखर मेरे ललाट की रक्षा करें ।

भ्रूमध्यं सर्वलोकेशस्त्रिनेत्रोऽवतु लोचने । 
भ्रूयुग्मं गिरिशः पातु कर्णौ पातु महेश्वरः ॥१३॥

मेरे भौंहों के मध्य में सर्वलोकेश और दोनों नेत्रों की त्रिनेत्र भगवान् शंकर रक्षा करें, दोनों भौंहों की रक्षा गिरिश एवं दोनों कानों की रक्षा भगवान् महेश्वर करें ।

नासिकां मे महादेव ओष्ठौ पातु वृषध्वजः ।
जिह्वां मे दक्षिणामूर्तिर्दन्तान् मे गिरिशोऽवतु ॥१४॥

महादेव मेरी नासिका की तथा वृषभध्वज मेरे दोनों ओठों की सदा रक्षा करें । दक्षिणामूर्ति मेरी जिह्वा की तथा गिरिश मेरे दाँतों की रक्षा करें ।

मृत्युञ्जयो मुखं पातु कण्ठं मे नागभूषणः । 
पिनाकी मत्करौ पातु त्रिशूली हृदयं मम ॥१५॥

मृत्युंजय मेरे मुख की एवं नागभूषण भगवान् शिव मेरे कण्ठ की रक्षा करें । पिनाकी मेरे दोनों हाथों की तथा त्रिशूली मेरे हृदय की रक्षा करें ।

पञ्चवक्त्रः स्तनौ पातु उदरं जगदीश्वरः । 
नाभिं पातु विरूपाक्षः पार्श्वे मे पार्वतीपतिः ॥१६॥ 

पंचवक्त्र मेरे दोनों स्तनों की और जगदीश्वर मेरे उदर की रक्षा करें । विरूपाक्ष नाभि की और पार्वतीपति पार्श्वभाग की रक्षा करें ।

कटिद्वयं गिरीशो मे पृष्ठं में प्रमथाधिपः। 
गुह्यं महेश्वरः पातु ममोरू पातु भैरवः ॥१७॥

गिरीश मेरे दोनों कटिभागों की तथा प्रमथाधिप पृष्ठभाग की रक्षा करें । महेश्वर मेरे गुह्यभाग की और भैरव मेरे दोनों ऊरुओं की रक्षा करें । 

जानुनी मे जगद्धर्ता जड्घे मे जगदम्बिका ।
पादौ मे सततं पातु लोकवन्द्य: सदाशिव  ॥१८॥  

जगद्धर्ता मेरे दोनों घुटनों की, जगदम्बिका मेरे दोनों जंघों की तथा लोकवन्दनीय सदाशिव निरन्तर मेरे दोनों पैरों की रक्षा करें ।  

गिरीशः पातु मे भार्या भवः पातु सुतान् मम ।
मृत्युञ्जयो  ममायुष्यं चित्तं मे गणनायक  ॥१९॥

गिरीश मेरी भार्या की रक्षा करें तथा भव मेरे पुत्रों की रक्षा करें। मृत्युंजय मेरे आयु की तथा गणनायक मेरे चित्त की रक्षा करें । 

सर्वाङ्गं मे सदा पातु कालकालः सदाशिवः ।
एतत्ते कवचं पुण्यं देवतानां च दुर्लभम् ॥२०॥ 

कालों के काल सदाशिव मेरे सभी अंगों की रक्षा करें। [हे वत्स !] देवताओं के लिये भी दुर्लभ इस पवित्र कवच का वर्णन मैंने तुमसे किया है ।

मृतसञ्जीवनं नाम्ना महादेवेन कीर्तितम् ।
सहस्त्रावर्तनं चास्य पुरश्चरणमीरितम् ॥२१॥

महादेवजी ने मृतसंजीवन नामक इस कवच को कहा है। इस कवच की सहस्र आवृत्ति को पुरश्चरण कहा गया है ।

य: पठेच्छृणुयान्नित्यं श्रावयेत् सुसमाहितः ।
सोऽकालमृत्यु निर्जित्य सदायुष्यं समश्नुते ॥२२॥

जो अपने मन को एकाग्र करके नित्य इसका पाठ करता है, सुनता अथवा दूसरों को सुनाता है, वह अकाल मृत्यु को जीतकर पूर्ण आयु का उपभोग करता है ।

हस्तेन वा यदा स्पृष्ट्वा मृतं सञ्जीवयत्यसौ । 
आधयो व्याधयस्तस्य न भवन्ति कदाचन ॥२३॥

जो व्यक्ति अपने हाथ से मरणासन्न व्यक्ति के शरीर का स्पर्श करते हुए इस मृतसंजीवन कवच का पाठ करता है, उस आसन्नमृत्यु प्राणी के भीतर चेतनता आ जाती है। फिर उसे कभी आधि-व्याधि नहीं होतीं ।

कालमृत्युमपि प्राप्तमसौ जयति सर्वदा ।
अणिमादिगुणैश्वर्यं लभते मानवोत्तमः ॥२४॥

यह मृतसंजीवन कवच काल के गाल में गये हुए व्यक्ति को भी जीवन प्रदान कर देता है और वह मानवोत्तम अणिमा आदि गुणों से युक्त ऐश्वर्य को प्राप्त करता है ।

युद्धारम्भे पठित्वेदमष्टाविंशतिवारकम् ।
युद्धमध्ये स्थितः शत्रुः सद्यः सर्वैर्न दृश्यते ॥२५॥

युद्ध आरम्भ होने के पूर्व जो इस मृतसंजीवन कवच का २८ बार पाठ करके रणभूमि में उपस्थित होता है, वह उस समय सभी शत्रुओं से अदृश्य रहता है ।

न ब्रह्मादीनि चास्त्राणि क्षयं कुर्वन्ति तस्य वै ।
विजयं लभते देवयुद्धमध्येऽपि सर्वदा ॥२६॥

यदि देवताओं के भी साथ युद्ध छिड़ जाय तो उसमें उसका विनाश ब्रह्मास्त्र भी नहीं कर सकते, वह विजय प्राप्त करता है । 

प्रातरुत्थाय सततं यः पठेत कवचं शुभम् ।
अक्षय्यं लभते सौख्यमिह लोके परत्र च ॥२७॥

जो प्रातःकाल उठकर इस कल्याणकारी कवच का सदा पाठ करता है, उसे इस लोक तथा परलोक में भी अक्षय्य सुख प्राप्त होता है । 

सर्वव्याधिविनिर्मुक्तः सर्वरोगविवर्जितः।
अजरामरणो भूत्वा सदा षोडशवार्षिकः ॥२८॥

वह सम्पूर्ण व्याधियों से मुक्त हो जाता है, सब प्रकार के रोग उसके शरीर से भाग जाते हैं। वह अजर-अमर होकर सदा के लिये सोलह वर्ष वाला व्यक्ति बन जाता है ।

विचरत्यखिलॉल्लोकान् प्राप्य भोगांश्च दुर्लभान् ।
तस्मादिदं महागोप्यं कवचं समुदाहृतम् ।
मृतसञ्जीवनं नाम्ना दैवतैरपि दुर्लभम् ॥२९॥ 

इस लोक में दुर्लभ भोगों को प्राप्त कर सम्पूर्ण लोकों में विचरण करता रहता है। इसलिये इस महागोपनीय कवच को मृतसंजीवन नाम से कहा है। यह देवताओं के लिये भी दुर्लभ है ।

॥ इति महर्षिवसिष्ठविरचितं मृतसञ्जीवन कवचं सम्पूर्णम्॥

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