वैभव-लक्ष्मी, यश, ऐश्वर्य आदि की स्थिरता के लिए करें शिवतांडव स्तोत्र से शिवोपासना

वैभव-लक्ष्मी, यश, ऐश्वर्य आदि की स्थिरता के लिए करें शिवतांडव स्तोत्र से शिवोपासना

भगवान् शिव के परम तेजस्वी भक्त रावण के द्वारा विरचित है । रावण भगवान् शिव की आराधना करता था इसलिए भगवान् शिव को प्रसन्न करने के लिए अनेकों स्तोत्र, स्तुतियों की रचना की तथा उन स्तुतियों से प्रसन्न होकर भगवान् शिव ने रावण को अनेकों वरदान प्रदान किये । उन्हीं स्तोत्र में से भगवान् शिव का यह “शिवताण्डव स्त्रोत” अतिप्रिय है । शिवमहापुराण के अनुसार जब रावण ने शिवताण्डव स्त्रोत का गायन किया तत्क्षण भगवान् शिव ने प्रसन्न होकर ताण्डव किया और रावण को “चंद्रहास” नामक अस्त्र प्रदान किया । 

जो साधक रावण द्वारा विरचित इस स्तोत्र का पाठ करता है भगवान् शिव उस साधक को रथ,हाथी,घोड़ों से युक्त सदा स्थिर रहने वाली अनुकूल लक्ष्मी (सम्पति) प्रदान करते हैं । 

जटाटवीगलज्जलप्रवाहपावितस्थले
                  गलेऽवलम्ब्य लम्बितां भुजङ्गतुङ्गमालिकाम् ।
डमड्डमड्डमड्डमन्निनादवड्डमर्वयं
                    चकार चण्डताण्डवं तनोतु नः शिवः शिवम् ॥१॥

जिन्होंने जटारूपी अटवी (वन) से निकलती हुई गंगा जी के गिरते हुए प्रवाहों से पवित्र किये गये गले में सर्पों की लटकती हुई विशाल माला को धारणकर, डमरू के डम-डम शब्दों से मण्डित प्रचण्ड ताण्डव (नृत्य) किया, वे शिवजी हमारे कल्याण का विस्तार करें ॥

जटाकटाहसम्भ्रमभ्रमन्निलिम्पनिर्झरी-  
                     विलोलवीचिवल्लरी विराजमानमूर्द्धनि ।
 धगद्धगद्धगज्ज्वलल्ललाटपट्टपावके 
                       किशोरचन्द्रशेखरे  रतिः प्रतिक्षणं मम ॥२॥

जिनका मस्तक जटारूपी कड़ाह में वेग से घूमती हुई गंगा की चंचल तरंग-लताओं से सुशोभित हो रहा है, ललाटाग्नि धक्- धक् जल रही है, सिर पर बाल चन्द्रमा विराजमान हैं, उन (भगवान् शिव)-में मेरा निरन्तर अनुराग हो ॥

धराधरेन्द्रनन्दिनीविलासबन्धुबन्धुर- 
                      स्फुरद्दिगन्तसन्ततिप्रमोदमानमानसे । 
कृपाकटाक्षधोरणीनिरुद्धदुर्धरापदि
                         क्वचिद्दिगम्बरे मनो विनोदमेतुवस्तुनि ॥३॥

गिरिराजकिशोरी पार्वती के विलास का लोपयोगी शिरोभूषण से समस्त दिशाओं को प्रकाशित होते देख जिनका मन आनन्दित हो रहा है, जिनकी निरन्तर कृपा दृष्टि से कठिन आपत्ति का भी निवारण हो जाता है, ऐसे किसी दिगम्बर तत्त्व में मेरा मन विनोद करे ॥

जटाभुजङ्गपिङ्गलस्फुरत्फणामणिप्रभा-
                  कदम्बकुङ्कुमद्रवप्रलिप्तदिग्वधूमुखे ।
मदान्धसिन्धुरस्फुरत्त्वगुत्तरीयमेदुरे
                     मनो विनोदमद्भुतं बिभर्तु भूतभर्तरि ॥४॥

जिनके जटाजूटवर्ती भुजंगमों के फणों की मणियों का फैलता हुआ पिंगल प्रभापुंज दिशारूपिणी अंगनाओं के मुख पर कुंकुमराग का अनुलेप कर रहा है, मतवाले हाथी के हिलते हुए चमड़े का उत्तरीय वस्त्र (चादर) धारण करने से स्निग्धवर्ण हुए उन भूतनाथ में मेरा चित्त अद्भुत विनोद करे ॥

सहस्त्रलोचनप्रभृत्यशेषलेखशेखर-
                       प्रसूनधूलिधोरणीविधूसराङ्घ्रिपीठ भूः। 
भुजङ्गराजमालया निबद्धजाटजूटकः 
                         श्रियै चिराय जायतां चकोरबन्धुशेखरः ॥५॥

जिनकी चरणपादुकाएँ इन्द्र आदि समस्त देवताओं के [प्रणाम करते समय] मस्तकवर्ती कुसुमों की धूलि से धूसरित हो रही हैं; नागराज (शेष)-के हार से बँधी हुई जटावाले वे भगवान् चन्द्रशेखर मेरे लिये चिरस्थायिनी सम्पत्ति के साधक हों ॥

ललाटचत्वरज्वलद्धनञ्जय स्फुलिङ्गभा- 
                        निपीतपञ्चसायकं नमन्निलिम्पनायकम् ।
सुधामयूखलेखया विराजमानशेखरं 
                         महाकपालि सम्पदे शिरो जटालमस्तु नः ॥ ६॥ 

जिसने ललाट-वेदी पर प्रज्वलित हुई अग्नि के स्फुलिंगों के तेज से कामदेव को नष्ट कर डाला था, जिसे इन्द्र नमस्कार किया करते हैं, सुधाकर की कला से सुशोभित मुकुट वाला वह [ श्रीमहादेव जी का] उन्नत विशाल ललाट वाला जटिल मस्तक हमारी सम्पत्ति का साधक हो ॥

करालभालपट्टिकाधगद्धगद्धगज्ज्वल-
                  द्धनञ्जयाहुतीकृतप्रचण्डपञ्चसायके ।           
 धराधरेन्द्रनन्दिनी कुचाग्रचित्रपत्रक –
                   प्रकल्पनैकशिल्पिनि  त्रिलोचने रतिर्मम ॥ ७॥

जिन्होंने अपने विकराल भालपट्ट पर धक्-धक् जलती हुई अग्नि में प्रचण्ड कामदेव को हवन कर दिया था, गिरिराज किशोरी के स्तनों पर पत्रभंगरचना करने के एकमात्र कारीगर उन भगवान् त्रिलोचन में मेरी धारणा लगी रहे ॥ 

नवीनमेघमण्डलीनिरुद्धदुर्धरस्फुर
                त्कुहूनिशीथिनीतमः प्रबन्धबद्धकन्धरः ।
निलिम्पनिर्झरीधरस्तनोतु कृत्तिसिन्धुरः
                 कलानिधानबन्धुरः श्रियं जगद्धुरन्धरः ॥८॥

जिनके कण्ठ में नवीन मेघमाला से घिरी हुई अमावास्या की आधी रात के समय फैलते हुए दुरूह अन्धकार के समान श्यामता अंकित है; जो गजचर्म लपेटे हुए हैं, वे संसार भार को धारण करने वाले चन्द्रमा [-के सम्पर्क]-से मनोहर कान्ति वाले भगवान् गंगाधर मेरी सम्पत्ति का विस्तार करें ॥

प्रफुल्लनीलपङ्कजप्रपञ्चकालिमप्रभा-
                 वलम्बिकण्ठकन्दलीरुचिप्रबद्धकन्धरम् । 
स्मरच्छिदं पुरच्छिदं भवच्छिदं मखच्छिदं
                   गजच्छिदान्धकच्छिदं तमन्तकच्छिदं भजे ॥९॥

जिनका कण्ठदेश खिले हुए नीलकमल समूह की श्याम प्रभा का अनुकरण करने वाली हरिणी की-सी छवि वाले चिह्न से सुशोभित है तथा जो कामदेव, त्रिपुर, भव (संसार), दक्षयज्ञ, हाथी, अन्धकासुर और यमराज का भी उच्छेदन (संहार) करने वाले हैं, उन्हें मैं भजता हूँ ॥

अखर्वसर्वमङ्गलाकलाकदम्बमञ्जरी- 
                  रसप्रवाहमाधुरीविजृम्भणामधुव्रतम् । 
स्मरान्तकं पुरान्तकं भवान्तकं मखान्तकं
                     गजान्तकान्धकान्तकं तमन्तकान्तकं भजे ॥१०॥

जो अभिमान रहित पार्वती की कलारूप कदम्ब मंजरी के मकरन्द-स्रोत की बढ़ती हुई माधुरी के पान करने वाले मधुप हैं तथा कामदेव, त्रिपुर, भव, दक्षयज्ञ, हाथी, अन्धकासुर और यमराज का भी अन्त करने वाले हैं, उन्हें मैं भजता हूँ ॥

जयत्वदभ्रविभ्रमभ्रमद्भुजङ्गमश्वस-
                   द्विनिर्गमत्क्रमस्फुरत्करालभालहव्यवाट् ।
धिमिद्धिमिद्धिमिद्ध्वनन्मृदङ्गतुङ्गमङ्गल-     
                   ध्वनिक्रमप्रवर्तितप्रचण्डताण्डवः शिवः ॥११॥ 

जिनके मस्तक पर बड़े वेग के साथ घूमते हुए भुजंग के फुफकारने से ललाट की भयंकर अग्नि क्रमशः धधकती हुई फैल रही है, धिमि-धिमि बजते हुए मृदंग के गम्भीर मंगल घोष के क्रमानुसार जिनका प्रचण्ड ताण्डव हो रहा है, उन भगवान् शंकर की जय हो ॥

दृषद्विचित्रतल्पयोर्भुजङ्गमौक्तिकस्त्रजो-
                        गरिष्ठरत्नलोष्ठयोः सुहृद्विपक्षपक्षयोः।
तृणारविन्दचक्षुषोः प्रजामहीमहेन्द्रयोः
                       समप्रवृत्तिकः कदा सदाशिवं भजाम्यहम् ॥ १२॥

पत्थर और सुन्दर बिछौनों में, साँप और मुक्ता की माला में, बहुमूल्य रत्न तथा मिट्टी के ढेले में, मित्र या शत्रुपक्ष में, तृण अथवा कमल लोचना तरुणी में, प्रजा और पृथ्वी के महाराज में समान भाव रखता हुआ मैं कब सदाशिव को भजूँगा ? ॥

कदा निलिम्पनिर्झरीनिकुञ्जकोटरे वसन् 
                       विमुक्तदुर्मतिःसदा शिरःस्थमञ्जलिं वहन् ।
विलोललोललोचनो ललामभाललग्नकः 
                          शिवेति मन्त्र मुच्चरन् कदा सुखी भवाम्यहम् ॥१३॥

सुन्दर ललाट वाले भगवान् चन्द्रशेखर में दत्तचित्त हो अपने कुविचारों को त्यागकर गंगा जी के तटवर्ती निकुंज के भीतर रहता हुआ सिर पर हाथ जोड़ डबडबायी हुई विह्वल आँखों से 'शिव' मन्त्र का उच्चारण करता हुआ मैं कब सुखी होऊँगा ? ॥ 

इमं हि नित्यमेवमुक्तमुत्तमोत्तमं  स्तवं 
                          पठन् स्मरन् ब्रुवन्नरो विशुद्धिमेति सन्ततम् । 
हरे गुरौ सुभक्तिमाशु याति नान्यथा गतिं
                            विमोहनं हि देहिनांसुशङ्करस्य चिन्तनम् ॥ १४॥

जो मनुष्य इस प्रकार से उक्त इस उत्तमोत्तम स्तोत्र का नित्य पाठ, स्मरण और वर्णन करता रहता है, वह सदा शुद्ध रहता है और शीघ्र ही सुरगुरु श्रीशंकरजी की अच्छी भक्ति प्राप्त कर लेता है, वह विरुद्धगति को नहीं प्राप्त होता; क्योंकि श्रीशिवजी का अच्छी प्रकार का चिन्तन प्राणिवर्ग के मोह का नाश करने वाला है ॥ 

पूजावसानसमये दशवक्त्रगीतं
                        यः शम्भुपूजनपरं पठति प्रदोषे ।
 तस्य स्थिरां रथगजेन्द्रतुरङ्गयुक्तां
                       लक्ष्मीं सदैव सुमुखीं प्रददाति शम्भुः ॥१५॥

सायंकाल में पूजा समाप्त होने पर रावण के गाये हुए इस शम्भु-पूजन -सम्बन्धी स्तोत्र का जो पाठ करता है, भगवान् शंकर उस मनुष्य को रथ, हाथी, घोड़ों से युक्त सदा स्थिर रहने वाली अनुकूल सम्पत्ति देते हैं ॥

॥ इस प्रकार श्रीरावणकृत शिवताण्डव स्तोत्र सम्पूर्ण हुआ  ॥

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