ग्रहपीड़ा की शान्ति, वाणी की शुद्धि तथा मनोवांछित फल प्राप्ति हेतु महादेव स्तुति

ग्रहपीड़ा की शान्ति, वाणी की शुद्धि तथा मनोवांछित फल प्राप्ति हेतु महादेव स्तुति

।। महादेव स्तुति  ।।

देवाधिदेव महादेव की यह स्तुति “श्रीस्कन्ध महापुराण के काशी खण्ड” में देवगुरो श्रीबृहस्पतिजी के द्वारा गायी गई है । इस स्तुति से प्रसन्न होकर भगवान् विश्वेश्वर ने बृहस्पति को वरदान दिया की आप देवताओं के गुरु बनें तथा ग्रहों में सर्वश्रेष्ठरूप से पूजित हों ।

स्तोत्र पाठ के लाभ :

  • वाणी की शुद्धि तथा भगवती सरस्वती की कृपा प्राप्ति ।
  • ग्रहजनित पीड़ा की समाप्ति तथा मेधा वृद्धि  ।
  • समस्त बाधा और दारुण दुःख की निवृत्ति ।
  • काशी में बृहस्पतीश्वर के समक्ष पाठ से मनोवांछित फल की प्राप्ति । 

                       बृहस्पतिरुवाच

जय शङ्कर शान्त शशाङ्करुचे रुचिरार्थद सर्वद सर्वशुचे ।
शुचिदत्तगृहीतमहोपहृते              हृतभक्तजनोद्धततापतते ॥१॥

बृहस्पतिजी बोले- चन्द्रमा के समान गौर कान्ति वाले, शान्तस्वरूप शंकर ! आपकी जय हो । आप रुचि के अनुकूल मनोहर पदार्थों एवं चारों पुरुषार्थों को देने वाले हैं। सर्वस्वरूप, सब कुछ देने वाले तथा नित्य शुद्ध हैं। पवित्र भक्तों द्वारा शुद्धभाव से दी हुई महती उपहार सामग्री ग्रहण करते हैं। भक्तजनों पर आयी हई घोर संताप- परम्परा का आप नाश करने वाले हैं ।

ततसर्वहृदम्बर वरद नते नतवृजिनमहावनदाहकृते ।
कृतविविधचरित्रतनो सुतनो तनुविशिखविशोषणधैर्यनिधे ॥२॥

आपने सबके हृदयाकाश को व्याप्त कर रखा है। प्रणतजनों को आप मनोवांछित वर देने वाले हैं। शरणागत भक्तों के पापरूपी महान् वन को जलाने के लिये दावानलस्वरूप हैं। अपने शरीर से भाँति- भाँति की लीलाएँ करते रहते हैं। आपका श्रीअंग परम सुन्दर है। आप कामदेव के बाणों को सुखा देने वाले हैं। धैर्यनिधे ! आपकी जय हो ।

निधनादिविवर्जित कृतनतिकृत् कृतिविहितमनोरथपन्नगभृत् ।
नगभर्तृसुतार्पितवामवपुः स्ववपुः परिपूरितसर्वजगत् ॥३॥

आप मृत्यु आदि विकारों से सर्वथा रहित हैं तथा अपने चरणों में प्रणाम करने वाले भक्तजनों को भी मृत्यु आदि विकारों से रहित कर देते हैं। पुण्यात्मा पुरुषों का मनोरथ पूर्ण करते और सर्पों को आभूषणरूप में धारण करते हैं। आपका वामांगभाग गिरिराजनन्दिनी उमा से व्याप्त है। आपने अपने सर्वव्यापी स्वरूप से सम्पूर्ण जगत् को व्याप्त कर रखा है ।

त्रिजगन्मयरूप विरूप सुदृग् दृगुदञ्चन कुञ्चनकृतहुतभुक् ।
भव भूतपते प्रमथैकपते पतितेष्वपि दत्तकरप्रसृते ॥४॥

तीनों लोक आपके ही स्वरूप हैं, फिर भी आप इन सभी रूपों से परे हैं। आपकी दृष्टि बड़ी सुन्दर है। आप अपने नेत्रों के खोलने-मीचने से जगत् की सृष्टि और प्रलय करने वाले हैं। आपने ही अग्निदेव को प्रकट किया है। जगत्‌ को उत्पन्न करने वाले भूतनाथ ! एकमात्र आप ही प्रमथगणों के पालक और स्वामी हैं। अपनी शरण में आये हुए पतितजनों पर भी आप अपना वरद हस्त फैलाते रहते हैं । 

प्रस्ताखिलभूतलसंवरण  प्रणवध्वनिसौधसुधांशुधर । 
घरराजकुमारिकया परया परितः परितुष्ट नतोऽस्मि शिव ॥५॥

आप सम्पूर्ण भूतल में फैले हुए आवरण का निवारण करने वाले तथा प्रणवनादरूपी सुधाधौलिगृह में निवास करने वाले हैं। आपने चन्द्रमा को अपने ललाट में धारण कर रखा है। गिरिराजकुमारी पार्वती के द्वारा सर्वथा संतुष्ट रहने वाले शिव ! मैं आपको नमस्कार करता हूँ ।

शिव देव गिरीश महेश विभो विभवप्रद गिरिश शिवेश मृड । 
मृडयोडुपतिध्र जगत् त्रितयं कृतयन्त्रणभक्तिविघातकृताम् ॥६॥

शिव ! देव ! गिरीश ! महेश ! विभो ! आप विभव (धन- सम्पत्ति आदि) प्रदान करने वाले और कैलास पर्वत पर शयन करने वाले हैं। पार्वतीवल्लभ ! आप सबको सुख देने वाले हैं। चन्द्रधर ! आप भक्ति का विघात करने वाले दुष्टों को कठोर दण्ड देने वाले हैं। तीनों लोकों को  सुखी बनाइये ।

न कृतान्तत एष विभेमि हर प्रहराशु महाधममोघमते ।
न मतान्तरमन्यदवैमिशिवं शिवपादनतेः प्रणतोऽस्मि ततः ॥७॥

सबकी पीडा हरने वाले महादेव ! मैं काल से भी नहीं डरता । अमोघमते ! आप शीघ्र मेरी पापराशि का विनाश कीजिये । शिव के चरणारविन्दों में नमस्कार करने के सिवा दूसरी किसी विचारधारा को मैं जीवों के लिये कल्याणकारी नहीं मानता, अतः आपके चरणों में ही मस्तक झुकाता हूँ ।

विततेऽत्र जगत्यखिलेऽघहरं हरतोषणमेव परं गुणवत् ।
गुणहीन महीन महावलयं  प्रलयान्तकमीश नत्तोऽस्मि ततः ॥८॥

इस सम्पूर्ण विशाल जगत् में भगवान् शिव को संतुष्ट करना ही सब पापों का नाश करने वाला तथा परम गुणकारी है। हे ईश ! आप त्रिगुणमय प्रपंच से अतीत, नागराज वासुकि का महान् कंगन धारण करने वाले तथा प्रलयकाल में सबका विनाश करने वाले हैं, अतः मैं आपको नमस्कार करता हूँ ।

इति स्तुत्वा महादेवं विररामाङ्गिरः सुतः।
व्यतरच्व महेशानः स्तुत्या तुष्टो वरान् बहून् ॥९॥

बृहता तपसाऽनेन बृहतां पतिरेध्यहो ।
नाम्ना बृहस्पतिरिति ग्रहेष्वर्यो भव द्विज ॥१०॥

इस प्रकार महादेवजी की स्तुति करके बृहस्पतिजी मौन हो गये । इस स्तुति से संतुष्ट होकर महादेवजी ने बहुत-से वर प्रदान करते हुए कहा- 'अहो ब्रह्मन् ! तुमने बृहत् तप किया है, इसलिये बड़े-बड़े देवताओं के पति (पालक) बने रहो । तुम ग्रहों में बृहस्पति नाम से पूजित होओ ।

अस्य स्तोत्रस्य पठनादपि वाग्दियाच्च यम् ।
तस्य स्यात् संस्कृता वाणी त्रिभिर्वर्षेस्त्रिकालतः ॥११॥

जो पुरुष इस स्तोत्र का तीन वर्षों तक तीनों समय पाठमात्र भी करेगा, उसके प्रति सरस्वती उदित और उसकी वाणी परिष्कृत हो जायगी ।

अस्य स्तोत्रस्य पठनान्नियतं मम संनिधौ । 
न दुर्वृत्तौ प्रवृत्तिः स्यादविवेकवतां नृणाम् ॥१२॥

मेरी संनिधि में निरन्तर इस स्तोत्र के पाठ से अविवेकीजनों की भी दुराचार में प्रवृत्ति नहीं हो सकती ।

अदः स्तोत्रं पठञ्जन्तुर्जातु पीडां ग्रहोद्भवाम् ।
न प्राप्स्यति ततो जप्यमिदं स्तोत्रं ममाग्रतः ॥१३॥ 

महेश्वर के इस स्तोत्र का पाठ करने से मनुष्य ग्रहजनित पीडा प्राप्त नहीं करेगा, इसलिये मेरे समीप इस स्तोत्र का पाठ करना चाहिये । 

नित्यं प्रातः समुत्थाय यः पठिष्यति मानवः ।
इमां स्तुतिं हरिष्येऽहं तस्य बाधाः सुदारुणाः ॥१४॥

जो मनुष्य प्रातःकाल उठकर नित्य इस स्तोत्र का पाठ करेगा, मैं उसकी महान्-से-महान् दारुण बाधा हरण कर लूँगा । 

त्वत्प्रतिष्ठितलिङ्गस्य पूजां कृत्वा प्रयत्नतः ।
इमां स्तुतिमधीयानो मनोवाञ्छामवाप्स्यति ॥१५॥

तुम्हारे द्वारा [ काशीमें ] स्थापित की हुई इस मूर्ति [ बृहस्पतीश्वर महादेव ]-की प्रयत्नपूर्वक पूजा करके इस स्तुति का पाठ करने वाला मनोवांछित फल प्राप्त करेगा ।

॥इति श्रीस्कन्दमहापुराणे काशीखण्डे महादेवस्तुतिः सम्पूर्णा॥

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