दुःख दारिद्रय से मुक्ति, धन और वैभव की प्राप्ति हेतु करें श्री लक्ष्मीनृसिंह स्तोत्र का पाठ

दुःख दारिद्रय से मुक्ति, धन और वैभव की प्राप्ति हेतु करें श्री लक्ष्मीनृसिंह स्तोत्र का पाठ

श्रीमच्छङ्कराचार्य जी द्वारा प्रतिपादित यह स्तोत्र है । इस स्तुति में तेरह श्लोकों के माध्यम से भगवान् लक्ष्मीनृसिंह स्वरूप की दिव्य स्तुति की गयी है । भगवान् लक्ष्मीनृसिंह के इस स्तोत्र का पाठ करने से साधक को लक्ष्मी की प्राप्ति होती है तथा उसके दुःख और दारिद्रयों का शमन होता है ।

श्रीमत्पयोनिधिनिकेतन चक्रपाणे
                 भोगीन्द्रभोगमणिरञ्जितपुण्यमूर्ते।
योगीश शाश्वत शरण्य भवाब्धिपोत    
                   लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलम्बम् ।।१।।

हे अति शोभायमान क्षीरसमुद्र में निवास करने वाले, हाथ में चक्र धारण करने वाले, नागनाथ (शेषजी) के फणों की मणियों से देदीप्यमान मनोहर मूर्तिवाले ! हे योगीश ! हे सनातन ! हे शरणागतवत्सल ! हे संसारसागर के लिये नौकास्वरूप ! श्रीलक्ष्मीनृसिंह ! मुझे अपने करकमल का सहारा (शरणागति)  दीजिये। 

ब्रह्मेन्द्ररुद्रमरुदर्ककिरीटकोटि-
            सङघट्टिताङ्घ्रिकमलामलकान्तिकान्त।
लक्ष्मीलसत्कुचसरोरुहराजहंस
             लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलम्बम् ।।२।।

आपके अमल चरणकमल ब्रह्मा, इन्द्र, रुद्र, मरुत् और सूर्य आदि के किरीटों की कोटियों के समूह से अति देदीप्यमान हो रहे हैं। है श्रीलक्ष्मी जी के कुचकमल के राजहंस श्रीलक्ष्मीनृसिंह ! मुझे अपने करकमल का सहारा दीजिये।

संसारघोरगहने चरतो मुरारे
                   मारोग्रभीकरमृगप्रवरार्दितस्य।
आर्तस्य मत्सरनिदाघनिपीडितस्य
                   लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलम्बम् ।।३।।

हे मुरारे ! संसाररूप गहन वन में विचरते हुए कामदेवरूप अति उग्र और भयानक मृगराज से पीड़ित तथा मत्सररूप घाम से सन्तप्त अति आर्तको हे लक्ष्मीनृसिंह ! अपने करकमल का सहारा दीजिये ।

संसारकूपमतिघोरमगाधमूलं
              सम्प्राप्य दुःखशतसर्पसमाकुलस्य।
दीनस्य देव कृपणापदमागतस्य
              लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलम्बम् ।।४।।

संसाररूप अति भयानक और अगाध कूप के मूल में पहुँचकर जो सैकड़ों प्रकार के दुःखरूप सर्पों से व्याकुल और अत्यन्त दीन हो रहा है, उस अतिकृपण और आपत्तिग्रस्त मुझको हे लक्ष्मीनृसिंहदेव ! अपने करकमल का सहारा दीजिये।

संसारसागरविशालकरालकाल-
                   नक्रग्रहग्रसननिग्रहविग्रहस्य।
व्यग्रस्य रागरसनोर्मिनिपीडितस्य
                   लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलम्बम् ।।५।।

संसारसागर में अति कराल और महान् कालरूप नक्रों और ग्राहों के ग्रसने से जिसका शरीर निगृहीत हो रहा है तथा आसक्ति और रसनारूप तरंगमाला से जो अति पीड़ित है, ऐसे मुझको हे लक्ष्मीनृसिंह ! अपने करकमल का सहारा दीजिये।

संसारवृक्षमघबीजमनन्तकर्म-
                 शाखाशतं करणपत्रमनङ्गपुष्पम्।
आरुह्य दुःखफलितं पततो दयालो
                 लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलम्बम् ।।६।।

हे दयालो ! पाप जिसका बीज है, अनन्त कर्म सैकड़ों शाखाएँ हैं, इन्द्रियाँ पत्ते हैं, कामदेव पुष्प है तथा दुःख ही जिसका फल है, ऐसे संसाररूप वृक्ष पर चढ़कर मैं नीचे गिर रहा हूँ, ऐसे मुझको हे लक्ष्मीनृसिंह ! अपने करकमल का सहारा दीजिये।

संसारसर्पघनवक्त्रभयोग्रतीव्र-
                    दंष्ट्राकरालविषदग्धविनष्टमूर्तेः।
नागारिवाहन सुधाब्धिनिवास शौरे
                   लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलम्बम् ।।७।।

इस संसारसर्प के विकट मुख की भयरूप उग्र दाढ़ों के कराल विष से दग्ध होकर नष्ट हुए मुझको हे गरुडवाहन, क्षीरसागरशायी, शौरि श्रीलक्ष्मीनृसिंह ! आप अपने करकमल का सहारा दीजिये।

संसारदावदहनातुरभीकरोरु-
               ज्वालावलीभिरतिदग्धतनूरुहस्य।
त्वत्पादपद्मसरसीशरणागतस्य
                लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलम्बम् ।।८।।

संसाररूप दावानल के दाह से अतिआतुर और उसकी भयंकर तथा विशाल ज्वाला-मालाओं से जिसके रोम-रोम दग्ध हो रहे हैं तथा जिसने आपके चरण-कमलरूप सरोवर की शरण ली है, ऐसे मुझको हे लक्ष्मीनृसिंह! अपने करकमल का सहारा दीजिये।

संसारजालपतितस्य जगन्निवास
              सर्वेन्द्रियार्तबडिशार्थझषोपमस्य।
प्रोत्खण्डितप्रचुरतालुकमस्तकस्य
               लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलम्बम् ।।९।।

हे जगन्निवास ! सकल इन्द्रियों के विषयरूप बंसी [उसमें फँसने] के लिये मत्स्य के समान संसारपाश में पड़कर जिसके तालु और मस्तक खण्डित हो गये हैं, ऐसे मुझको हे लक्ष्मीनृसिंह ! अपने करकमल का सहारा दीजिये।

संसारभीकरकरीन्द्रकराभिघात-
                निष्पिष्टमर्मवपुषः सकलार्तिनाश।
प्राणप्रयाणभवभीतिसमाकुलस्य
                लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलम्बम् ।।१०।।

हे सकलार्तिनाशन ! संसाररूप भयानक गजराज की सूँड़ के आघात से जिसके मर्मस्थान कुचल गये हैं तथा जो प्राणप्रयाण के सदृश संसार (जन्म-मरण) के भय से अति व्याकुल है, ऐसे मुझको हे लक्ष्मीनृसिंह! अपने करकमल का सहारा दीजिये।

अन्धस्य मे हृतविवेकमहाधनस्य 
                चोरैः प्रभो बलिभिरिन्द्रियनामधेयैः।
मोहान्धकूपकुहरे विनिपातितस्य
                लक्ष्मीनृसिंह मम देहि करावलम्बम् ।।११।।

हे प्रभो ! इन्द्रिय नामक प्रबल चोरों ने जिसके विवेकरूप परम धन को हर लिया है तथा मोहरूप अन्धकूप के गड्डे में जो गिरा दिया गया है, ऐसे मुझ अन्ध को हे लक्ष्मीनृसिंह ! आप अपने करकमल का सहारा दीजिये ।

लक्ष्मीपते कमलनाभ सुरेश विष्णो
                   वैकुण्ठ कृष्ण मधुसूदन पुष्कराक्ष।
ब्रह्मण्य केशव जनार्दन वासुदेव
                   देवेश देहि कृपणस्य करावलम्बम्।।१२।।

हे लक्ष्मीपते ! हे कमलनाभ ! हे देवेश्वर ! हे विष्णो ! हे वैकुण्ठ ! हे कृष्ण ! हे मधुसूदन! हे कमलनयन ! हे ब्रह्मण्य ! हे केशव ! हे जनार्दन ! हे वासुदेव ! हे देवेश ! मुझ दीन को आप अपने करकमल का सहारा दीजिये।

यन्माययोर्जितवपुः प्रचुरप्रवाह-
                  मग्नार्थमत्र निवहोरुकरावलम्बम्।
लक्ष्मीनृसिंहचरणाब्जमधुव्रतेन 
                   स्तोत्रं कृतं सुखकरं भुवि शङ्करेण।।१३।।

    
जिसका स्वरूप माया से ही प्रकट हुआ है उस प्रचुर संसार प्रवाह में डूबे हुए पुरुषों के लिये जो इस लोक में अति बलवान् करावलम्ब रूप है ऐसा यह सुखप्रद स्तोत्र इस पृथ्वीतल पर लक्ष्मी नृसिंह के चरण कमल के लिये मधुकर रूप शंकर शंकराचार्य जी ने रचा है।

“इस प्रकार श्रीमत् शंकराचार्य जी कृत श्रीलक्ष्मी नृसिंह स्तोत्र सम्पूर्ण हुआ” ।

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