समस्त जगत् को आश्रय प्रदान करने वाली , तथा संतापों को हरने वाली माता पार्वती की करें यह मत्स्य पुराण में वर्णित पार्वती स्तुति का पाठ

समस्त जगत् को आश्रय प्रदान करने वाली , तथा संतापों को हरने वाली माता पार्वती की करें यह  मत्स्य पुराण में वर्णित पार्वती स्तुति का पाठ

श्री मत्स्यपुराण के अन्तर्गत भक्तप्रवर श्री वीरक के द्वारा पार्वती स्तुति की गयी है | इस स्तुति में श्री वीरक भगवती पार्वती के चरणों में शरणागति की प्रार्थना करते हैं | क्योंकि भगवती पार्वती समस्त जगत् की आश्रयभूता हैं | समस्त प्राणी जगत् को कष्टों से मुक्ति प्रदान करने वाली हैं | ऐसी कृपामयी और करुणामयी भगवती की स्तुति यहाँ की गयी है – 

वीरक उवाच :- 

       नतसुरासुरमौलिमिलन्मणिप्रचयकान्तिकरालनखाङ्किते । 
       नगसुते शरणागतवत्सले तव नतोऽस्मि नतार्तिविनाशिनि ॥ १ ॥

वीरक ने कहा- गिरिजाकुमारी ! आपके चरण-नख प्रणत हुए सुरों और असुरों के मुकुटों में लगी हुई मणिसमूहों की उत्कट कान्ति से सुशोभित होते रहते हैं | आप शरणागतवत्सला तथा प्रणतजनों का कष्ट दूर करने वाली हैं | मैं आपके चरणों में नमस्कार कर रहा हूँ | 

       तपनमण्डलमण्डितकन्धरे पृथुसुवर्णसुवर्णनगद्युते। 
       विषभुजङ्गनिषङ्गविभूषिते गिरिसुते भवतीमहमाश्रये ॥ २ ॥ 

गिरिनन्दिनि ! आपके कन्धे सूर्यमण्डल के समान चमकते हुए सुशोभित हो रहे हैं | आपकी शरीरकान्ति प्रचुर सुवर्ण से परिपूर्ण सुमेरु गिरि के सदृश है | आप विषैले सर्परूपी तरकश से विभूषित हैं, मैं आपका आश्रय ग्रहण करता हूँ | 

       जगति कः प्रणताभिमतं ददौ झटिति सिद्धनुते भवती यथा ।
       जगति कां च न वाञ्छति शङ्करो भुवनधृत्तनये भवतीं यथा ॥ ३ ॥ 

सिद्धों द्वारा नमस्कार की जाने वाली देवि ! आपके सदृश जगत् में प्रणतजनों के अभीष्ट को तुरन्त प्रदान करने वाला दूसरा कौन है ? गिरिजे ! इस जगत् में भगवान् शंकर आपके समान किसी अन्य की इच्छा नहीं करते |

       विमलयोगविनिर्मितदुर्जयस्वतनुतुल्यमहेश्वरमण्डले । 
       विदलितान्धकबान्धवसंहतिः सुरवरैः प्रथमं त्वमभिष्टुता ॥ ४ ॥

आपने महेश्वरमण्डल को निर्मल योगबल से निर्मित अपने शरीर के तुल्य दुर्जय बना दिया है | आप मारे गये अन्धकासुर के भाई-बन्धुओं का संहार करने वाली हैं | सुरेश्वरों ने सर्वप्रथम आपकी स्तुति की है |

       सितसटापटलोद्धतकन्धराभरमहामृगराजरथस्थिता |
       विकलशक्तिमुखानलपिङ्गलायतभुजौघविपिष्टमहासुरा ॥५॥

आप श्वेत वर्ण की जटा (केश) – समूह से आच्छादित कन्धे वाले विशालकाय सिंहरूपी रथ पर आरूढ़ होती हैं | आपने चमकती हुई शक्ति के मुख से निकलने वाली अग्नि की कान्ति से पीली पड़ने वाली लम्बी भुजाओं से प्रधान-प्रधान असुरों को पीसकर चूर्ण कर दिया है | 

       निगदिता भुवनैरिति चण्डिका जननि शुम्भनिशुम्भनिषूदनी ।
       प्रणतचिन्तितदानवदानवप्रमथनैकरतिस्तरसा भुवि ॥ ६॥

जननि ! त्रिभुवन के प्राणी आपको शुम्भ-निशुम्भ का संहार करने वाली चण्डिका कहते हैं | एकमात्र आप इस भूतल पर विनम्र जनों द्वारा चिंतन किये गये प्रधान- प्रधान दानवों का वेगपूर्वक मर्दन करने में उत्साह रखने वाली हैं | 

       वियति वायुपथे ज्वलनोज्ज्वलेऽवनितले तव देवि च यद्वपुः ।
       तदजितेऽप्रतिमे प्रणमाम्यहं भुवनभाविनि ते भववल्लभे ॥ ७॥ 

देवि ! आप अजेय, अनुपम, त्रिभुवन सुन्दरी और शिवजी की प्राणप्रिया हैं, आपका जो शरीर आकाश में, वायु के मार्ग में, अग्नि की भीषण ज्वालाओं में तथा पृथ्वीतल पर भासमान है, उसे मैं प्रणाम करता हूँ | 

       जलधयो ललितोद्धतवीचयो हुतवहद्युतयश्च चराचरम्। 
       फणसहस्त्रभृतश्च भुजङ्गमास्त्वदभिधास्यति मय्यभयङ्कराः ॥ ८ ॥ 

रुचिर एवं भीषण लहरों से युक्त महासागर, अग्नि की लपटें, चराचर जगत् तथा हजारों फण धारण करने वाले बड़े-बड़े नाग – ये सभी आपका नाम लेने वाले मेरे लिये भयंकर नहीं दीख पड़ते | 

       भगवति स्थिरभक्तजनाश्रये प्रतिगतो भवतीचरणाश्रयम् । 
       करणजातमिहास्तु ममाचलं नुतिलवाप्तिफलाशयहेतुतः ॥ ९ ॥

अनन्य भक्तजनों की आश्रयभूता भगवति ! मैं आपके चरणों की शरण में आ पड़ा हूँ | आपके चरणों में प्रणत होने से प्राप्त हुए थोड़े से फल के कारण मेरा इन्द्रिय समुदाय आपके चरणों में अटल स्थान प्राप्त करे | 

       प्रशममेहि ममात्मजवत्सले तव नमोऽस्तु जगत् त्रयसंश्रये।
       त्वयि ममास्तु मतिः सततं शिवे शरणगोऽस्मि नतोऽस्मि नमोऽस्तु ते ॥१०॥ 

पुत्रवत्सले ! मेरे लिए पूर्णरूप से शान्त हो जाइये | त्रिलोकी की आश्रयभूता देवि ! आपको नमस्कार है | शिवे ! मेरी बुद्धि निरन्तर आपके चिन्तन में ही लगी रहे | मैं आपके शरणागत हूँ, और चरणों में पड़ा हूँ | आपको नमस्कार है |   

“इस प्रकार श्रीमत्स्यपुराण में श्री वीरककृत पार्वती स्तुति पूर्ण हुई” | 

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