गणेशपुराण के पाठ का समस्त फल प्राप्त करें पञ्चश्लोक के पाठ से।

गणेशपुराण के पाठ का समस्त फल प्राप्त करें पञ्चश्लोक के पाठ से।

।। पञ्चश्लोकि गणेश पुराणम् ।।

भगवान् वेदव्यास द्वारा रचित गणेशपुराण के पठन और श्रवण का फल जो मनुष्य अल्पप्रयास के माध्यम से प्राप्त करना चाहता है उसे इन पाँचों श्लोकों का विधिपूर्वक पाठ करना चाहिए । इन श्लिकों का पाठ करने से समस्त भौतिक वस्तुओं की प्राप्ति होती है तथा कार्यों में आ रही विघ्न बाधाओं का निवारण होता है ।

श्रीविघ्नेशपुराणसारमुदितं व्यासाय धात्रा पुरा 
        तत्खण्डं प्रथमं महागणपतेश्चोपासनाख्यं यथा । 
संहर्तुं त्रिपुरं शिवेन गणपस्यादौ कृतं पूजनं
        कर्तुं सृष्टिमिमां स्तुतः स विधिना व्यासेन बुद्धयाप्तये ॥१॥

पूर्वकाल में ब्रह्माजी ने व्यासजी को श्रीविघ्नेश (गणेश)- पुराण का सारतत्त्व बताया था । यह महागणपति का उपासनासंज्ञक प्रथम खण्ड है । भगवान् शिव ने पहले त्रिपुर का संहार करने के लिये गणपति का पूजन किया । फिर ब्रह्माजी ने इस सृष्टि की रचना करने के लिये उनकी विधिवत् स्तुति की । तत्पश्चात् व्यासजी ने बुद्धि की प्राप्ति के लिये उनका स्तवन किया ।

सङ्कष्ट्याश्च विनायकस्य च मनोः स्थानस्य तीर्थस्य वै
        दूर्वाणां महिमेति भक्तिचरितं तत्पार्थिवस्यार्चनम् ।
तेभ्यो यैर्यदभीप्सितं गणपतिस्तत्तत्प्रतुष्टो ददौ
        ताः सर्वा न समर्थ एव कथितुं ब्रह्मा कुतो मानवः ॥२॥

संकष्टीदेवी की, गणेश की, उनके मन्त्र की, स्थान की, तीर्थ की और दूर्वा की महिमा यह भक्तिचरित है। उनके पार्थिव विग्रह का पूजन भी भक्तिचर्या ही है। उन भक्तिचर्या करने वाले पुरुषों में से जिन-जिनने जिस- जिस वस्तु को पाने की इच्छा की, सन्तुष्ट हुए गणपति ने वह-वह वस्तु उन्हें दी । उन सबका वर्णन करने में ब्रह्माजी भी समर्थ नहीं हैं, फिर मनुष्य की तो बात ही क्या है । 

क्रीडाकाण्डमथो वदे कृतयुगे श्वेतच्छविः काश्यपः 
        सिंहाङ्कः स विनायको दशभुजो भूत्वाथ काशीं ययौ ।
हत्वा तत्र नरान्तकं तदनुजं देवान्तकं दानवं
        त्रेतायां शिवनन्दनो रसभुजो जातो मयूरध्वजः ॥३॥ 

अब क्रीडाकाण्ड का वर्णन करता हूँ। सत्ययुग में दस भुजाओं से युक्त श्वेत कान्तिमान् कश्यपपुत्र सिंहध्वज महोत्कट विनायक काशी में गये। वहाँ नरान्तक और उसके छोटे भाई देवान्तक नामक दानव को मारकर त्रेता में वे षड्बाहु शिवनन्दन मयूरध्वज के रूप में प्रकट हुए ।

हत्वा तं कमलासुरं च सगणं सिन्धुं महादैत्यपं
         पश्चात् सिद्धिमती सुते कमलजस्तस्मै च ज्ञानं ददौ ।
द्वापारे तु गजाननो युगभुजो गौरीसुतः सिन्दुरं
         सम्मर्द्य स्वकरेण तं निजमुखे चाखुध्वजो लिप्तवान् ॥४॥

उन्होंने कमलासुर को तथा महादैत्यपति सिन्धु को उसके गणों सहित मार डाला । तत्पश्चात् ब्रह्माजी ने सिद्धि और बुद्धि नामक दो कन्याएँ उन्हें दीं और ज्ञान भी प्रदान किया । द्वापरयुग में गौरीपुत्र गजानन दो भुजाओं से युक्त हुए । उन्होंने अपने हाथसे सिन्दूरासुर का मर्दन करके उसे अपने मुख पर पोत लिया । उनकी ध्वजा में मूषक का चिह्न था ।

गीताया उपदेश एव हि कृतो राज्ञे वरेण्याय वै 
         तुष्टायाथ च धूम्रकेतुरभिधो विप्रः सधर्मधिर्कः।
अश्वाङ्को द्विभुजो सितो गणपतिम्लेंच्छान्तकः स्वर्णदः 
         क्रीडाकाण्डमिदं गणस्य हरिणा प्रोक्तं विधात्रे पुरा ॥५॥

उन्होंने सन्तुष्ट राजा वरेण्य को गणेश-गीता का उपदेश किया । फिर [कलियुगमें] वे धूम्रकेतु नाम से प्रसिद्ध धर्मयुक्त धन वाले ब्राह्मण होंगे। उस समय उनके ध्वज का चिह्न अश्व होगा । उनके दो भुजाएँ होंगी । वे गौरवर्ण के गणपति म्लेच्छों का अन्त करने वाले और सुवर्ण के दाता होंगे । गणपति के इस क्रीडाकाण्ड का वर्णन पूर्वकाल में भगवान् विष्णु ने ब्रह्माजी से किया था । 

एतच्छ्रलोकसुपञ्चकं प्रतिदिनं भक्त्या पठेद्यः पुमान् ।
निर्वाणं परमं व्रजेत् स सकलान् भुक्त्वा सुभोगानपि ।

जो मनुष्य प्रतिदिन भक्तिभाव से इन पाँच श्लोकों का पाठ करेगा, वह समस्त उत्तम भोगों का उपभोग करके अन्त में परम निर्वाण (मोक्ष) को प्राप्त होगा । 

॥ इति श्रीपञ्चश्लोकिगणेशपुराणं सम्पूर्णम् ॥

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