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उपनयन संस्कार

संस्कार | Duration : 8 Hours
Price : 25000
About Puja

         उपनयन  = 'उप ' उपसर्ग पूर्वक 'नी ' धातुसे 'ल्यु प्रत्यय करने पर उपनयन शब्द का  निर्माण होता है। उप = आचार्य के समीप , नयन अर्थात् बालक को अध्ययन के लिए ले जाने को 'उपनयन ' कहते हैं।
        बालक में विभिन्न प्रकार की योग्यता आ जाए, इसलिए विशेष कर्मों द्वारा उसे संस्कृत किया जाता है। वही संस्कृत किया हुआ संस्कार यज्ञोपवीत संस्कार है। इसे व्रतबन्ध भी कहते है ,क्योंकि इस संस्कार के हो जाने से वटुक, व्रतों से युक्त हो जाता है। ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्य इन तीनों का जीवन व्रतयुक्त होता है, जो यज्ञोपवीत संस्कार के बाद प्रारम्भ होता है। यज्ञोपवीत से बालक दीर्घायु, बलवान्, बुद्धिमान् और तेजस्वी होता है। 
षोडश संस्कारों में यज्ञोपवीत संस्कार की विशेष महत्ता है। यज्ञोपवीत के बिना श्रुतिप्रतिपादित तथा स्मृति प्रतिपादित कर्मों में अधिकार नही होता है।

यज्ञोपवीत संस्कार के बाद ही शास्त्रविधि के कर्मों का अधिकार प्राप्त होता है। उपनयन के विना देवकार्य, पितृकार्य के साथ ही विवाह, सन्ध्या, तर्पण आदि श्रुति- स्मृति प्रतिपादित कर्मों को नही किया जा सकता। उपनयन संस्कार द्विजत्व की प्राप्ति करता है। उपनयन संस्कार में अधिकार, केवल द्विजो (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) को ही है।
 मातुर्यदग्रे जायन्ते द्वितीयं मौञ्जिबन्धनात् । 
   ब्राह्मणक्षत्रिय विशस्तस्मादेते द्विजाः स्मृताः ।।
       माता के गर्भ से प्रथम उत्पत्ति तथा उपनयन संस्कार द्वारा द्वितीय जन्म, ब्राह्मण, क्षत्रिय एवं वैश्यों को प्राप्त होता है । ये तीनों मनुष्य जन्म लेने के साथ ही तीन ऋणों से ऋणी हो जाते हैं - ऋषिऋण, देवऋण एवं पितृऋण।
        इन तीनो ऋणों से मुक्ति, बिना यज्ञोपवीत संस्कार के नही हो सकती। ब्रह्मचर्य पालन के द्वारा ऋषिऋण, देवपूजन सन्ध्यावन्दन आदि के द्वारा देवऋण तथा गृहस्थधर्म पालन -पूर्वक सन्तानोत्पत्ति के द्वारा पितृऋण से मुक्त होता है। 
यदि यज्ञोपवीत संस्कार न हो तो इन तीनों कर्मों को करने का  अधिकार प्राप्त नहीं होता है।

       यज्ञोपवीत संस्कार से  पूर्व  काम, क्रोध, लोभ, मोह, ईष्या, द्वेष आदि का ज्ञान नहीं रहता और दोष भी नहीं लगता, इसलिए उसके कर्मों का प्रत्यवाय(पाप) भी नही होता , तथा  प्रायश्चित भी नहीं होता। यज्ञोपवीत संस्कार के पश्चात् सर्वविध ब्रह्मचर्य पालन, शुचिता,पवित्रता, सद्‌आचरण,भक्ष्याभक्ष्य आदि का सूक्ष्मदृष्टि से पालन करना चाहिए। कर्मेन्द्रियों एवं ज्ञानेन्द्रियों का निष्ठापूर्वक संयम करना चाहिए। विवाह संस्कार भी बिना यज्ञोपवीत संस्कार हुए सम्पन्न नही होना चाहिए ।

   आज वर्तमान समाज में ऐसी मान्यता रूढ होती जा रही है, कि केवल ब्राह्मणों का ही यज्ञोपवीत संस्कार होता है, जो कि यह उचित नहीं है। द्विज (ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य) मात्र का यज्ञोपवीत करने को शास्त्र आदेशित करता है। कुछ सभ्य समाज यह भी कहता है कि हमारे यहाँ विवाह के दिन ही यज्ञोपवीत संस्कार कर देते हैं, जो पूर्णतः अनुचित है। यज्ञोपवीत एवं विवाह दोनों विशिष्ट संस्कार है। दोनो को एक साथ नही करना चाहिए, एक साथ करने से विधि मे न्यूनता आ जाती है, इसलिए लक्ष्य पूर्ण नही होता।

यज्ञोपवीत संस्कार कब करें- आचार्य पारस्कर के अनुसार ब्राह्मणों के लिए गर्भ से आठ वर्ष, क्षत्रियों के लिए ग्यारह वर्ष तथा वैश्यों के लिए  बारह  वर्ष का समय यज्ञोपवीत संस्कार करनें के लिए उपयुक्त है। यह यज्ञोपवीत का मुख्य  काल  है। आचार्य मनु ने भी यही निर्देश दिया है -
   गर्भाष्टमेऽब्दे कुर्वीत ब्राह्मणस्योपनायनम् ।
      गर्भादेकादशे राज्ञो गर्भात्तु द्वादशे विशः || 
             किसी कारणवश उपरोक्त समय में यज्ञोपवीत यदि नहीं हुआ हो, तो ब्राह्मण का सोलह, क्षत्रिय का बाईस तथा वैश्य का चौबीस वर्ष तक यज्ञोपवीत हो जाना चाहिए। यह यज्ञोपवीत का गौण काल है। 
    यदि अज्ञानवश यज्ञोपवीत संस्कार का मुख्य और गौण काल भी व्यतीत हो गया हो, तो अनादिष्ट प्रायश्चित क्रिया करके उसका यज्ञोपवीत संस्कार अवश्य करना चाहिए। यह शास्त्र का आदेश है।

आचार्य पारस्कर का कथन है - कि अपनी परम्परा एवं कुलाचार के अनुरूप भी नवें, दसवें, ग्यारहवें, बारहवें, तेरहवें, चौदहवें और पन्द्रहवें वर्ष में भी उपनयन संस्कार हो सकता है। यज्ञोपवीत विहीन समस्त धर्म कर्म  निष्फल होते हैं अर्थात् उसका समुचित फल नही प्राप्त होता है।    
    यज्ञोपवीत को ब्रह्मसूत्र, सवितासूत्र तथा यज्ञसूत्र भी कहते हैं- इसकी उत्पत्ति अनादि काल से है। जिस समय नारायण के नाभिकमल से ब्रह्माजी का प्रादुर्भाव हुआ तो, सृष्टिकर्ता ब्रह्माजी यज्ञोपवीत धारण किये हुए थे।

Benefits

उपनयन संस्कार का माहात्म्य :-

  • यज्ञोपवीत संस्कार के पश्चात् ही समस्त श्रौत (श्रुतिप्रतिपादित )एवं स्मार्त (स्मृतिप्रतिपादित ही ) कर्मों का हमें समुचित फल प्राप्त होता है।
  • उपनयन संस्कार के पश्चात्  ही देवकर्म, ऋषिकर्म और पितृ कर्मों को करने का अधिकार प्राप्त होता है।
  • यज्ञोपवीत अत्यन्त पवित्र सूत्र है, जिसमे ओंकार,अग्नि, सर्प, सोम, पितृ, प्रजापति, वायु, सूर्य, विश्वेदेव आदि देवों के साथ ब्रह्मा, विष्णु और रुद्र, ये सभी नित्य यज्ञोपवीत में विद्यमान होकर आयुष्य प्रदान करते हैं। 
  • यज्ञोपवीत धारण करने से सर्वोत्तम बल, पवित्रता और तेज प्राप्त होता है।
  • यज्ञोपवीतधारी को गायत्री उपासना का अधिकार प्राप्त हो जाता है तथा गायत्री जप से आयु, बुद्धि और तेज की वृद्धि होती है।
  • समस्त देवता भी यज्ञोपवीत धारण करते हैं, यह शुचिता एवं पवित्रता का परिचायक हैं। वाल्मीकि रामायण तथा श्रीमद्भागवत के साथ अन्य पुराणों में भगवान् श्रीराम एवं भगवान् श्रीकृष्ण के यज्ञोपवीत संस्कार का विस्तृत विवेचन प्राप्त होता है।
  • यज्ञोपवीत के पश्चात् ही ऋणत्रय से मुक्ति के लिए देवकार्य आदि का विधान कर सकता है।
Process

उपनयन संस्कार में होने वाले प्रयोग या विधि:-

  1. स्वस्तिवाचन एवं शान्तिपाठ
  2. प्रतिज्ञा सङ्कल्प [प्रायश्चित्त  गोदान, उपनयन सङ्कल्प,निष्क्रयद्रव्यदान] 
  3. गणपति गौरी पूजन
  4. कलश स्थापन एवं वरुणादि देवताओं का पूजन।
  5. बोधायनीय पुण्याहवाचन
  6. षोडश मातृका पूजन
  7. सप्तघृत मातृका पूजन (वसोर्धारा पूजन)
  8. आयुष्य मन्त्र पाठ
  9. साङ्कल्पिक नान्दीमुख श्राद्ध (आभ्युदयिक श्राद्ध)
  10. नवग्रहमण्डल पूजन
  11. अधिदेवता, प्रत्यधिदेवता आवाहन एवं पूजन
  12. पञ्चलोकपाल, दशदिक्पाल, वास्तुपुरुष आवाहन एवं पूजन
  13.  रक्षाविधान
  14. गायत्री जप हेतु ब्राह्मण वरण
  15.  वटुक प्रवेश 
  16. वटुक द्वारा गोनिष्क्रय द्रव्य सङ्कल्प (गोदान सङ्कल्प)
  17. वटुक का मुण्डन सङ्कल्प  
  18. दाहिने भाग का केशसंस्कार
  19. पिछले भाग का केश संस्कार    
  20. वायें भाग का केश संस्कार
Puja Samagri

वैकुण्ठ के द्वारा दी जाने वाली पूजन  सामग्री:-

  • रोली   
  • अबीर  
  • सिन्दूर 
  • कपूर   
  • धूप   
  • चन्दन 
  • भस्म  
  • यज्ञोपवीत 
  • मौलीकलावा 
  • 'पानपत्ता  
  • सुपारी  
  • इलाइची 
  • पेडा   
  • ऋतु फल विभिन्न प्रकार के  
  • चावल  
  • पल्लव
  • शतावर
  • सर्वोषधी  
  • तांबा या पीतल का कलश ढक्कन सहित 
  • कलश मिट्टी का 2
  • दही पात्र  1
  • सकोरा - 15
  • कुशा - 1 मुट्ठा
  • सप्तधान्य - 50 ग्रा.
  • कालातिल  - 250 ग्रा.
  • मसूर की दाल - 250 ग्रा
  • .मूंग की दाल  - 250 छिलके वालीलाल
  • चने की दाल  - 500 ग्रा. 
  •  गाय का घी  - 250 ग्रा.
  • पञ्चामृत (दूध, दही, घी, मधु, चीनी) 
  • नारियल पानी वाला -  3 नग
  • गरी का गोला - 2 नग
  • लाल कपड़ा सूती  - 1 मीटर
  • सफेद कपडा सूती  - 2 मीटर
  • लकड़ी  आम की -  5 किलो
  • उपला/कण्डा - 3 किलो
  • हवन सामग्री - 2 किलो
  • आज्य स्थाली (घृतपात्र) -  3 नग
  • पूर्णपात्र -  3 नग
  • समिधा (पलाश की)  - 11 नग
  • दातुन  गूलर की - 1 नग
  • छड़ी  - 1 नग 
  • पलाश दण्ड - 1 नग 
  • मृगचर्म वल्कल के लिए
  • मुग्जमेखला  (मूँजकी रस्सी) - 10 हाथ की
  • लगोटी  - 1
  • दो बडे गमछे (बाधने के लिए)
  • पीला कपड़ा  - 5 मीटर
  • पीढ़ा -  1 नग
  • स्लेट या पाटी   - 1 नग 
  • कांसे की थाली  - 1नग
  • मार्कर/खड़िया
  • गङ्गजल  - 1ली.
  • फूलमाला   - 11 नग
  • विभिन्नप्रकार के पुष्प - 2 kg
  • तुलसी, दूर्वा, विल्वपत्र
  • छाता, दर्पण,कंघी ,काजल, तेल सुगन्धित
  • धोती   - 8 नग
  • साड़ी (सेट) -  2 नग
  • सुहाग सामग्री 
  • फुटकर सिक्के
  • अष्टभाण्ड   - 8 गिलास 
  • मार्जनपात्र  लोटा  - 5
  • ईट या हवन कुंड 
  • बालू  - 1 परात
  • यदि हवन कुंड है तो आधा परात बालू 
  • पलास का पत्तल  - 5 नग
  • दोना  - 2 गड्डी
  • गुड़ -  1kg 
  • मिश्री  - 200 ग्राम
  • हल्दी   -  100 ग्राम 
  • पंचमेवा  - 1 पाव
  • पंचपात्र पूरा सेट - 2
  •  चादर -  1
  • वरण सामग्री
  • धोती -  ब्राह्मण  के संख्यानुसार
  • गमछा, आसन 
  • मुण्डन हेतु नाऊ की व्यवस्था 
  • फलाहार की व्यवस्था
  • वटुक के लिए  धोती आदि वस्त्र या मनोनुकूल वस्त्र
  • आवश्यकतानुसार सामग्री में न्यूनाधिक किया जा सकता है।

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