संसार सागर से आसक्ति त्यागने एवं परमशान्ति की अनुभूति के लिए करें इस स्तोत्र का पाठ

संसार सागर से आसक्ति त्यागने एवं परमशान्ति की अनुभूति के लिए करें इस स्तोत्र का पाठ

श्री ब्रह्मानन्द जी द्वारा विरचित इस स्तोत्र में कुल 22 श्लोक हैं । भगवत् प्राप्ति हेतु यह स्तोत्र अतिप्रभावी है । इस स्तोत्र का पाठ करने से साधक सम्पूर्ण संसार से आसक्ति त्यागकर परम शान्ति और परमात्मा की शरणागति प्राप्त करता है ।

सच्चिदानन्दरूपाय भक्तानुग्रहकारिणे ।
मायानिर्मितविश्वाय महेशाय नमो नमः।।१।।

भक्तों पर दया करने वाले और माया से संसार की रचना कराने वाले सच्चिदानन्द स्वरूप महेश्वर को बारम्बार नमस्कार है।

रोगा हरन्ति सततं प्रबलाः शरीरं
                    कामादयोऽप्यनुदिनं प्रदहन्ति चित्तम्।
मृत्युश्च नृत्यति सदा कलयन् दिनानि
                      तस्मात्त्वमद्य शरणं मम दीनबन्धो ।।२।।

हे भगवन् ! इस संसार में प्रबल रोग सर्वदा शरीर को क्षीण करते रहते हैं, काम आदि भी प्रतिदिन हृदय को जलाते रहते हैं और मृत्यु भी दिनों को गिनती हुई पास ही नृत्य करती रहती है। इसलिये हे दीनबन्धो अब मेरे लिये आप ही शरण हैं।

देहो विनश्यति सदा परिणामशील-
                   श्चित्तं च खिद्यति सदा विषयानुरागि।
बुद्धिः सदा हि रमते विषयेषु नान्तस्
                    तस्मात्त्वमद्य शरणं मम दीनबन्धो ।।३।।

सदा ही परिवर्तनशील यह शरीर नष्ट होता जा रहा है और विषयों में आसक्त रहने वाला चित्त सदा ही खिन्न रहा करता है। मेरी बुद्धि भी सदा विषयों में ही रमती है, अन्तरात्मा में नहीं। इसलिये हे दीनबन्धो ! अब मेरी आप ही शरण हैं।                   

आयुर्विनश्यति यथामघटस्थतोयं
                   विद्युत्प्रभेव चपला बत यौवनश्रीः।
वृद्धा प्रधावति यथा मृगराजपत्नी
                    तस्मात्त्वमद्य शरणं मम दीनबन्धो।।४।।

कष्ट की बात है कि कच्चे घड़े में रखे हुए जल की तरह आयु का नाश हो रहा है, यौवन की शोभा बिजली की चमक- सी क्षण भंगुर है और वृद्धावस्था सिंहनी की भाँति (खाने के लिये) दौड़ी चली आ रही है, इस कारण हे दीनबन्धो अब मेरे लिये आप ही शरण हैं।

आयाद् व्ययौ मम भवत्यधिकोऽविनीते
                   कामादयो हि बलिनो निबलाःशमाद्याः ।
मृत्युर्यदा तुदति मां बत किं वदेयं
                    तस्मात्त्वमद्य शरणं मम दीनबन्धो।।५।।

हे भगवन् ! मेरे पास आय से व्यय ही अधिक है, क्योंकि मुझ अविनीत पर कामादि ही बली होते हैं [उन्हीं का मुझ पर प्रभाव है] और शम आदि निर्बल रहते हैं [इनका मुझ पर वश नहीं चलता] । खेद है कि जब मुझे मृत्यु पीड़ित करेगी, उस समय मैं क्या कह सकूँगा ? इसलिये हे दीनबन्धो ! अब मेरे लिये आप ही शरण हैं।

तप्तं तपो न हि कदापि मयेह तन्वा
                 वाण्या तथा न हि कदापि तपश्च तप्तम्।
मिथ्याभिभाषणपरेण न मानसं हि
                    तस्मात्त्वमद्य शरणं मम दीनबन्धो।।६।।

हे भगवन् ! मैंने इस जीवन में कभी शरीर से तप नहीं किया, सदा असत्य भाषण में लगे रहकर कभी वाणी से भी तप नहीं किया और मानस तप तो कभी किया ही नहीं, अतः हे दीनबन्धो ! अब मेरे लिये आप ही शरण हैं।

स्तब्धं मनो मम सदा न हि याति सौम्यं
                     चक्षुश्च मे न तव पश्यति विश्वरूपम्।
वाचा तथैव न वदेन्मम सौम्यवाणीं
                       तस्मात्त्वमद्य शरणं मम दीनबन्धो।।७।।

हे भगवन् ! मेरा मन सदा ही स्तब्ध - जडवत् ज्ञानशून्य रहा है, इस कारण सौम्य (विशुद्ध एवं विनम्र) नहीं हो रहा है और मेरी आँखें आपके विश्वरूप का दर्शन नहीं कर पातीं, * इसी प्रकार मेरी जिह्वा भी कोमल वाणी नहीं बोलती । अतः हे दीनबन्धो ! अब मेरे लिये आप ही शरण हैं।

सत्त्वं न मे मनसि याति रजस्तमोभ्यां
                      विद्धे तथा कथमहो शुभकर्मवार्ता।
साक्षात्परम्परतया सुखसाधनं
                        तस्मात्त्वमद्य शरणं मम दीनबन्धो।।८।।

रजोगुण और तमोगुण से विद्ध हुए मेरे हृदय में सत्त्वगुण नहीं आने पाता । अहो ! ऐसी स्थिति में शुभ कर्मों का करना तो दूर रहा उनकी बात भी कैसे की जा सकती है और साक्षात् अथवा परम्परा से वह (शुभ कर्म) ही सुख का साधन है, [सो मुझमें नहीं है ] इसलिये हे दीनबन्धो ! अब मेरे लिये आप ही शरण हैं।

पूजा कृता न हि कदापि मया त्वदीया
                         मन्त्रं त्वदीयमपि मे न जपेद्रसज्ञा।
चित्तं न मे स्मरति ते चरणौ ह्यवाप्य
                        तस्मात्त्वमद्य शरणं मम दीनबन्धो।।९।।

हे भगवन् ! मैंने कभी भी आप की पूजा नहीं की, मेरी जिह्वा आप के मन्त्र को भी नहीं जपती और न मेरा चित्त आपके चरणों को पाकर उनका चिन्तन ही करता है; इसलिये हे दीनबन्धो अब मेरे लिये आप ही शरण हैं।

यज्ञो न मेऽस्ति हुतिदानदयादियुक्तो
                   ज्ञानस्य साधनगणो न विवेकमुख्यः।
ज्ञानं क्व साधनगणेन विना क्व मोक्ष
                     तस्मात्त्वमद्य शरणं मम दीनबन्धो।।१०।।

हे भगवन् ! मैंने हवन, दान, दया आदि से युक्त यज्ञ नहीं किया और न ज्ञान के साधन समूह विवेक आदि को ही प्राप्त किया । साधन समूह के बिना ज्ञान कैसे हो सकता है और बिना ज्ञान के मोक्ष कैसे हो सकता है इस लिये हे दीनबन्धो ! अब मेरे लिये आप ही शरण हैं।

सत्सङ्गतिर्हि विदिता तव भक्तिहेतुः
                    साप्यद्य नास्ति बत पण्डितमानिनो मे।
तामन्तरेण न हि सा क्व च बोधवार्ता
                    तस्मात्त्वमद्य शरणं मम दीनबन्धो।।११।।

हे भगवन् ! यह प्रसिद्ध है कि आप की भक्ति का कारण सत्संग है, पर खेद है कि अपने को पण्डित मानने वाले मुझ में वह सत्संग भी नहीं है। सत्संग के बिना भगवद्भक्ति नहीं होती; फिर ज्ञान की तो बात ही कहाँ हो सकती है? इस लिये हे दीनबन्धो  अब मेरे लिये आप ही शरण हैं।

दृष्टिर्न भूतविषया समताभिधाना
                  वैषम्यमेव तदियं विषयीकरोति।
शान्तिः कुतो मम भवेत्समता न चेत्स्यात्
                   तस्मात्त्वमद्य शरणं मम दीनबन्धो।।१२।।

 
हे भगवन् ! मेरी दृष्टि प्राणियों में समान नहीं रहती है, अपितु यह प्राणियों में विषम भावन को ही अपनाती है। यदि मेरी दृष्टि में समता नहीं हुई तो मुझ में शान्ति कैसे प्राप्त हो सकती है इसलिये हे दीनबन्धो  अब मेरे लिये आप ही शरण हैं।

मैत्री समेषु न च मेऽस्ति कदापि नाथ
                     दीने तथा न करुणा मुदिता च पुण्ये।
पापेऽनुपेक्षणवतो मम मुत्कथं स्यात्
                      तस्मात्त्वमद्य शरणं मम दीनबन्धो।।१३।।

हे नाथ अपने समान वालों में मेरी मित्रता नहीं है और मैंने न तो कभी दीनों पर दया दिखायी और न कभी पुण्य के विषय में प्रसन्नता ही प्रकट की । जब मैंने पाप में उपेक्षा नहीं दिखायी तो मुझे प्रसन्नता कैसे मिले ? इसलिये हे दीनबन्धो अब मेरे लिये आप ही शरण हैं ।

नेत्रादिकं मम बहिर्विषयेषु सक्तं
                   नान्तर्मुखं भवति तानविहाय तस्य।
क्वान्तर्मुखत्वमपहाय सुखस्य वार्ता
                    तस्मात्त्वमद्य शरणं मम दीनबन्धो।।१४।।

हे भगवन् मेरी नेत्रादि इन्द्रियाँ बाह्य-विषयों में ही आसक्त हैं, इनकी वृत्ति अन्तर्मुखी नहीं होती, भला विषयों को त्यागे बिना ही इन्द्रियों में अन्तर्मुखता कहाँ से होगी और इन्द्रियों के अन्तर्मुख हुए बिना सुख की वार्ता कहाँ ? इसलिये हे दीनबन्धो अब मेरे लिये आप ही शरण हैं।

त्यक्तं गृहाद्यपि मया भवतापशान्त्यै
                    नासीदसौ हतहृदो मम मायया ते।
सा चाधुना किमु विधास्यति नेति जाने
                     तस्मात्त्वमद्य शरणं मम दीनबन्धो।।१५।।

हे भगवन् ! मैंने सांसारिक दुःखों की शान्ति के लिये स्त्री-गृह आदि सभी का परित्याग कर दिया, किन्तु आपकी माया ने मेरे मन को हर लिया, इससे दुःखों की शान्ति नहीं हुई । अब समझ में नहीं आता इस समय आपकी माया और क्या-क्या करेगी ? इसलिये हे दीनबन्धो अब मेरे लिये आप ही शरण हैं।

प्राप्ता धनं गृहकुटुम्बगजाश्वदारा
                    राज्यं यदैहिकमठेन्द्रपुरश्च नाथ।
सर्वं विनश्वरमिदं न फलाय कस्मै
                     तस्मात्त्वमद्य शरणं मम दीनबन्धो ।।१६।।

हे प्रभो ! प्राप्त हुए धन, गृह, परिवार, हाथी एवं घोड़े, स्त्री आदि तथा इस पृथ्वी अथवा इन्द्रपुरी का राज्य - ये सब वस्तुएँ नश्वर हैं, किसी भी अच्छे फल को देने वाली नहीं हैं, इस कारण हे दीनबन्धो ! अब मेरे लिये आप ही शरण हैं ।

प्राणान्निरुध्य विधिना न कृतो हि योगो
                          योगं विनास्ति मनसः स्थिरता कुतो मे।
तां वै विना मम न चेतसि शान्तिवार्ता
                             तस्मात्त्वमद्य शरणं मम दीनबन्धो।।१७।।

 
हे भगवन् ! मैंने प्राणायाम के द्वारा योग ध्यान नहीं किया, बिना योग के मेरा मन स्थिर कैसे हो सकता है और स्थिरता के बिना चित्त में शान्ति कथन मात्र के लिये भी नहीं हो सकती, इस कारण हे दीनबन्धो ! अब मेरे लिये आप ही शरण हैं।

ज्ञानं यथा मम भवेत्कृपया गुरूणां
                         सेवां तथा न विधिनाकरवं हि तेषाम्।
सेवापि साधनतयाविदितास्ति चित्ते
                            तस्मात्त्वमद्य शरणं मम दीनबन्धो।।१८।।

 
हे भगवन् ! मैंने गुरुजनों की ऐसी सेवा भी कभी नहीं की, जिससे उनकी कृपा प्राप्त होकर उसके द्वारा मुझमें यथावत् ज्ञान होता, गुरुजनों की सेवा भी ज्ञान का साधन है ऐसा मैंने कभी मन में जाना ही नहीं, इस कारण हे दीनबन्धो ! अब मेरे लिये आप ही शरण हैं।

तीर्थादिसेवनमहो विधिना हि नाथ
                       नाकारि येन मनसो मम शोधनं स्यात्।
शुद्धिं विना न मनसोऽवगमापवर्गो
                        तस्मात्त्वमद्य शरणं मम दीनबन्धो।।१९।।

हे नाथ ! यह दुःख की बात है कि मैंने विधि से तीर्थ आदि का सेवन नहीं किया, जिससे मेरे मन की शुद्धि हो, मन की शुद्धि के बिना ज्ञान और मोक्ष नहीं होते, इस कारण हे दीनबन्धो ! अब मेरे लिये आप ही शरण हैं।

वेदान्तशीलनमपि प्रमितिं करोति
                   ब्रह्मात्मनः प्रमितिसाधनसंयुतस्य।
नैवास्ति साधनलवो मयि नाथ तस्यास्
                   तस्मात्त्वमद्य शरणं मम दीनबन्धो।।२०।।

हे प्रभो ! आत्मा ही ब्रह्म है, इसके यथार्थ ज्ञान के साधन में लगे हुए पुरुष को वेदान्त ब्रह्मतत्त्व का यथावत् ज्ञान करा देता है, परन्तु मुझमें तो उस सत्य ज्ञान के साधन का अंशमात्र भी नहीं है, इस कारण हे दीनबन्धो ! अब मेरे लिये आप ही शरण हैं।

गोविन्द शङ्कर हरे गिरिजेश मेश
                      शम्भो जनार्दन गिरीश मुकुन्द साम्ब।
नान्या गतिर्मम कथञ्चन वां विहाय
                      तस्मात्प्रभो मम गतिः कृपया विधेया।।२१।।

हे गोविन्द ! हे शंकर ! हे हरे ! हे गिरिजापते ! हे लक्ष्मीपते ! हे शम्भो ! हे जनार्दन ! हे पार्वती ! माता के सहित गिरीश ! हे मुकुन्द ! मेरे लिये आप दोनों (इष्टदेवों) के अतिरिक्त किसी प्रकार कोई भी दूसरा सहारा नहीं है, इसलिये हे प्रभो ! कृपा करके मुझे सद्गति प्रदान कीजिये।

एवं स्तवं भगवदाश्रयणाभिधानं
                     ये मानवाः प्रतिदिनं प्रणताः पठन्ति।
ते मानवाः भवरतिं परिभूय शान्तिं
                     गच्छन्ति किं च परमात्मनि भक्तिमद्धा।।२२।।

जो मनुष्य विनीतभाव से इस “भगवच्छरण नामक स्तोत्र” का प्रतिदिन पाठ करेंगे वे संसार की आसक्ति त्यागकर परम शान्ति और परमात्मा की साक्षात् भक्ति प्राप्त करेंगे।

“इस प्रकार श्री ब्रह्मानन्द जी द्वारा विरचित श्री भगवच्छरणस्तोत्रम्” सम्पूर्ण हुआ । 

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