पुंसवन संस्कार का उद्देश्य तथा महत्व

पुंसवन संस्कार का उद्देश्य तथा महत्व

हिन्दू धर्म में संस्कारों की परम्परागत पद्धति के अंतर्गत होने वाले भावी माता-पिता को यह बताया जाता है कि जब वह शारीरिक और मानसिक रूप से परिपक्व हो जाएं, तदनंतर ही समाज को श्रेष्ठ, तेजयुक्त और ओजश्विता से परिपूर्ण तेजस्वी नई पीढ़ी देने के संकल्प के साथ संतान उत्पत्ति की प्रक्रिया को प्रारंभ करें। गर्भ स्थिर हो जाने के पश्चात भावी माता को अपने आहार-व्यवहार आचार-विचार, चिंतन-मनन को उत्तम और संतुलित बनाने का प्रयास करना चाहिए, साथ ही उसके अनुकूल वातावरण का भी निर्माण करना चाहिए जिससे बालक सुयोग्य, दीर्घजीवी एवं उत्तम आचरणों ये युक्त हो। 

मनुष्य की शारीरिक, मानसिक और आध्यात्मिक शुद्धि के निमित्त शास्त्रों में संस्कारों की व्यवस्था की गयी है। शास्त्रों में जन्म से मृत्यु पर्यंत 16 संस्कारों का विधान है, इन्हीं सोलह संस्कारों के माध्यम से व्यक्ति को उसके उत्तरदायित्व और नैतिक संस्कारों का बोध कराया जाता है। इन संस्कारों का प्रभाव व्यक्ति के व्यवहार में दिखाई देता है, जिससे व्यक्ति के मन-मस्तिष्क में सकारात्मकता का सन्निवेश होता है। संस्कारों की इस प्रक्रिया में हम इस लेख के अंतर्गत सोलह संस्कारों में द्वितीय संस्कार पुंसवन संस्कार के विषय में जानेंगे–  

पुंसवन संस्कार जन्म से पूर्व किया जाता है। गर्भाधान के समय स्त्री को गर्भ से सम्बंधित नियमों का पालन करते हुए अत्यन्त सावधानी पूर्वक रहना चाहिए, क्योंकि तीसरे, चौथे, और आठवें मास में गर्भपात की अधिक आशंका रहती है, इसलिए इन मासों में गर्भ की रक्षा के निमित्त पुंसवन संस्कार की व्यवस्था शास्त्रों में की गयी। व्यास स्मृति में आचार्य कहते हैं- कि जब गर्भ तीन मास का हो, तो उस समय पुंसवन संस्कार करना चाहिए। गर्भ के समय चार मास पर्यंत गर्भ में स्त्री और पुरुष से सम्बंधित चिन्हों की उत्पत्ति नहीं होती है, अर्थात् हम कह सकते हैं कि स्त्री पुरुष के चिन्ह की उत्पत्ति से पूर्व यह पुंसवन संस्कार कराना चाहिए।

पुंसवन शब्द की व्याख्या दो प्रकार से आचार्यों ने की है –  

  1. गर्भ काल में शिशु स्पन्दन, गति, हिलना-डुलना इत्यादि क्रियाएं जब करने लगता है, तो यह संस्कार कराना चाहिए।  
  2. कुछ आचार्यों का ऐसा उल्लेख है कि, स्पन्दन से पूर्व पुंसवन संस्कार को करना चाहिए। 

“पुंसः सवनं स्पन्दनात्पुरा”। (याज्ञ. आचार .11 ) करते हैं – 

 “पुमान् सूयते येन कर्मणा तदिदं पुंसवनम”।  कुछ आचार्यों का मानना है कि इस संस्कार से पुरुष का शरीर निर्मित होता है।

क्या पुंसवन संस्कार प्रत्येक गर्भ के करना चाहिए? 

पुंसवन संस्कार एक बार ही कर देने पर वह स्त्री प्रत्येक गर्भ के लिए सुसंस्कृत हो जाती है, अतः पुनः पुंसवन संस्कार करने की आवश्यकता नहीं होती है। लेकिन कुछ आचार्यों का मानना है कि पुंसवन संस्कार प्रत्येक गर्भधारण के समय करना चाहिए, इससे गर्भस्थ शिशु में संस्कारों का आधान होता है।  

पुंसवन संस्कार का काल  

  • जब स्त्री गर्भधारण कर लेती है, तत्पश्चात गर्भ प्रतीत होने पर या तीसरे माह में पुंसवन संस्कार करना चाहिए।   
  • यदि पुंसवन संस्कार किसी कारणवश निर्धारित समय पर नहीं हो पाए तो सीमन्तोन्नयन संस्कार के साथ भी यह संस्कार किया जा सकता है।  
  • आचार्य शौनक वीरमित्रोदय में कहते हैं कि यदि तृतीय मास में गर्भ के चिन्ह प्रकट हों तो तीसरे मास में और यदि तीसरे मास में गर्भ चिन्ह प्रकट न हों तो चौथे मास में यह संस्कार करना चाहिए।  

“व्यक्ते गर्भे तृतीये तु मासे पुंसवनं भवेत्। गर्भेऽव्यक्ततृतीये चेच्चतुर्थे मासि वा भवेत्”॥

पुंसवन संस्कार के उद्देश्य :-  

  • गर्भस्थ शिशु के विकास हेतु।  
  • इस संस्कार से शिशु शारीरिक रूप से स्वस्थ होता है। 
  • इस संस्कार से शिशु बलवान और शक्तिशाली होता है।  
  • इससे शिशु का सामाजिक, बौधिक और मानसिक विकास होता है।  

“अनवलोभनकर्म (गर्भरक्षण कर्म )” :- “ येन कर्मणा जातो गर्भो नावलुप्यते तदनवलोभनम ”। अर्थात् अनवलोभनकर्म को पुंसवन संस्कार का उपांगकर्म भी कहते हैं, यह कर्म इसलिए किया जाता है जिससे की गर्भस्थ शिशु का गर्भ में रक्षण हो और उसे किसी प्रकार की गर्भच्युति न हो तथा गर्भ पुष्ट रहे। “येन कर्मणा जातो गर्भो नावलुप्यते तदनवलोभनम्”।  

अनवलोभनकर्म की क्रिया :- इस संस्कार में जब चन्द्रमा पुष्यादि पुरुषवाची नक्षत्र में हो, तो यह पुंसवन संस्कार के साथ किया जाता है। इस संस्कार में विशेष विधि के द्वारा श्वेत दूर्वारस का सेचन गर्भिणी के दक्षिण नासिका के छिद्र में अंगूठे के अग्रभाग से किया जाता है और पति के द्वारा उस गर्भिणी के हृदय का स्पर्श किया जाता है।  

नोट :- “ चरक तथा सुश्रुत आदि आचार्यों ने भी इस क्रिया का विधान किया है ”।  

पुंसवन संस्कार में ग्राह्य नक्षत्र, तिथि और वार 

  • नक्षत्र:- श्रवण, रोहिणी, पुष्य, मृगशिरा, पुनर्वसु,  हस्त, रेवती, मूल और तीनों उत्तरा है। 
  • गर्भधान से तीसरे मास में पुरुष संज्ञक ग्रह में लग्न से 1, 4, 5, 7, 6, 10  इन सब स्थानों में शुभ ग्रह हों और चन्द्रमा 1, 6, 8, 12वें स्थान में न हों और पाप ग्रह 3, 6, 11वें स्थान में हों तो शुभ होंगे। 
  • तिथियां-  द्वितीया, तृतीया, पंचमी, सप्तमी, दशमी, एकादशी, द्वादशी और त्रयोदशी। इन्हीं तिथियों का ग्रहण करना चाहिए। 
  • वार-  मंगलवार, गुरुवार, शुक्रवार, रविवार का ग्रहण करना चाहिए।  

इन शुभ तिथियों में पुंसवन संस्कार करना चाहिए। यदि आपके पास इस संस्कार से संबंधित कोई प्रश्न हैं तो वैकुण्ठ से संपर्क करें।  

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