घोर-संकट, विषाद, भय तथा पीड़ा से मुक्ति हेतु करें श्री नारायणाष्टकम् का पाठ

घोर-संकट, विषाद, भय तथा पीड़ा से मुक्ति हेतु करें श्री नारायणाष्टकम् का पाठ

श्री कूरेशस्वामी द्वारा विरचित यह स्तोत्र है इस स्तोत्र में आठ श्लोकों के द्वारा भगवान् नारायण की सुन्दर स्तुति की गयी है । इस स्तोत्र के पठन या श्रवण मात्र से ही मनुष्य को सभी प्रकार के संतापों से मुक्ति प्राप्त होती है तथा नारायण की कृपा से सुख,शांति,धन,समृद्धि तथा ऐश्वर्य में वृद्धि होती है ।
  
वात्सल्यादभयप्रदानसमयादार्तार्तिनिर्वापणा- 
                            दौदार्यादघशोषणादगणितश्रेयः पदप्रापणात्।
सेव्यः श्रीपतिरेक एव जगतामेतेऽभवन्साक्षिणः 
                            प्रह्लादश्च विभीषणश्च करिराट् पाञ्चाल्यहल्या ध्रुवः।।१।।

अतिवात्सल्यमय होने के कारण, भयभीतों को अभयदान देने का स्वभाव होने के कारण, दुःखी पुरुषों का दुःख हरने के कारण, अतिउदार और पापनाशक होने के कारण और अन्य अगणित कल्याणमय पदों (श्रेयों) की प्राप्ति करा देने के कारण सारे जगत् के लिये भगवान् लक्ष्मीपति ही सेवनीय हैं; क्योंकि प्रह्लाद, विभीषण, गजराज, द्रौपदी, अहल्या और ध्रुव ये क्रम से इन कार्यों में साक्षी हैं।

प्रह्लादास्ति यदीश्वरो वद हरिः सर्वत्र मे दर्शय 
                             स्तम्भे चैवमिति ब्रुवन्तमसुरं तत्राविरासीद्धरिः।
वक्षस्तस्य विदारयन्निजनखैर्वात्सल्यमापादय-    
                             न्नार्तत्राणपरायणः स भगवान्नारायणो मे गतिः।।२।।

अरे प्रह्लाद ! यदि तू कहता है कि ईश्वर सर्वत्र है तो मुझे खम्भे में दिखा'- दैत्य हिरण्यकशिपु के ऐसा कहते ही वहाँ भगवान् आविर्भूत हो गये और अपने नखों से उसके वक्षःस्थल को विदीर्ण करके अपना वात्सल्य प्रकट किया । ऐसे दीनरक्षक भगवान् नारायण ही मेरी एकमात्र गति हैं ।

श्रीरामात्र विभीषणोऽयमनघो रक्षोभयादागतः 
                             सुग्रीवानय पालयैनमधुना पौलस्त्यमेवागतम्।
इत्युक्त्वाभयमस्य सर्वविदितं यो राघवो दत्तवानार्त
                             न्नार्तत्राणपरायणः स भगवान्नारायणो मे गतिः।।३।।

हे श्रीरामजी ! यह निष्पाप विभीषण राक्षस रावण के भय से आया है - यह सुनते ही सुग्रीव ! उस पुलस्त्य-ऋषि के पौत्र को तुरंत ले आओ और उसकी रक्षा करो' - ऐसा कहकर जैसा अभयदान श्रीरघुनाथजी ने उसे दिया वह सबको विदित ही है; वे ही दीनरक्षक भगवान् नारायण मेरी एकमात्र गति हैं ।

नक्रग्रस्तपदं समुद्धतकरं ब्रह्मादयो भो सुराः 
                             पाल्यन्तामिति दीनवाक्यकरिणं देवेष्वशक्तेषु यः। 
मा भैषीरिति यस्य नक्रहनने चक्रायुधः श्रीधर
                              न्नार्तत्राणपरायणः स भगवान्नारायणो मे गतिः।।४।।

ग्राह द्वारा पाँव पकड़ लिये जाने पर सूँड़ उठाकर 'हे ब्रह्मा आदि देवगण ! मेरी रक्षा करो ।'- इस प्रकार दीनवाणी से पुकारते हुए गजेन्द्र की रक्षा में देवताओं को असमर्थ देखकर 'मत डर' ऐसा कहकर जिन श्रीधर ने ग्राह का वध करने के लिये सुदर्शन चक्र उठा लिया, वे ही दीनरक्षक भगवान् नारायण मेरी एकमात्र गति हैं।

भो कृष्णाच्युत भो कृपालय हरे भो पाण्डवानां सखे
                               क्वासि क्वासि सुयोधनादपहृतां भो रक्ष मामातुराम्।
इत्युक्तोऽक्षयवस्त्रसंभृततनुं योऽपालयद्रौपदीमार्त
                               न्नार्तत्राणपरायणः स भगवान्नारायणो मे गतिः।।५।।

हे कृष्ण ! हे अच्युत ! हे कृपालो ! हे हरे ! हे पाण्डवसखे ! तुम कहाँ हो ? कहाँ हो ? दुर्योधन द्वारा लूटी गयी मुझ आतुरा की रक्षा करो ! रक्षा करो !!' इस प्रकार प्रार्थना करने पर जिसने अक्षयवस्त्र से द्रौपदी का शरीर ढककर उसकी रक्षा की, वह दुःखियों का उद्धार करने में तत्पर भगवान् नारायण मेरी गति हैं।

यत्पादाब्जनखोदकं त्रिजगतां पापौघविध्वंसनं 
                                यन्नामामृतपूरकं च पिबतां संसारसन्तारकम्।
पाषाणोऽपि यदघ्रिपद्मरजसा शापान्मुनेर्मोचित
                                न्नार्तत्राणपरायणः स भगवान्नारायणो मे गतिः।।६।।

जिनके चरणकमलों के नखों की धोवन श्रीगंगाजी त्रिलोकी के पापसमूह को ध्वंस करने वाली हैं, जिनका नामामृतसमूह पान करने वालों को संसारसागर से पार करने वाला है तथा जिनके पादपद्मों की रज से पाषाण भी मुनिशाप से मुक्त हो गया, वे दीनरक्षक भगवान् नारायण ही मेरी एकमात्र गति हैं ।

पित्रा भ्रातरमुत्तमासनगतं चौत्तानपादिर्ध्रुवो 
                                 दृष्ट्वा तत्सममारुरुक्षुरधृतो मात्रावमानं गतः। 
यं गत्वा शरणं यदाप तपसा हेमाद्रिसिंहासनमार्त
                                 न्नार्तत्राणपरायणः स भगवान्नारायणो मे गतिः।।७।।

अपने भाई को पिता के साथ उत्तम राजसिंहासन पर बैठा देख उत्तानपाद के पुत्र ध्रुव ने जब स्वयं ही उस पर चढ़ना चाहा तो पिता ने उसे अंक में नहीं लिया और विमाता ने भी उसका अनादर किया, उस समय जिनकी शरण जाकर उसने तप के द्वारा सुमेरुगिरि के राजसिंहासन की प्राप्ति की, वे ही दीनरक्षक भगवान् नारायण मेरी एकमात्र गति हैं ।

आर्ता विषण्णाः शिथिलाश्च भीता घोरेषु च व्याधिषु वर्तमानाः ।
सङ्कीर्त्य नारायणशब्दमात्रं विमुक्तदुःखाः सुखिनो  भवन्ति ।।८।।

जो पीड़ित हैं, विषादयुक्त हैं, शिथिल (निराश) हैं, भयभीत हैं अथवा किसी भी घोर आपत्ति में पड़े हुए हैं, वे 'नारायण' शब्द के संकीर्तन मात्र से दुःख से मुक्त होकर सुखी हो जाते हैं ।

।। इस प्रकार श्री कूरेशस्वामी विरचित “श्री नारायणाष्टकम्” स्तोत्र सम्पूर्ण हुआ ।।

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