अपार कष्टों से निवृत्ति एवं भगवान् नृसिंह की कृपा प्राप्ति हेतु करें इस स्तुति का पाठ

अपार कष्टों  से निवृत्ति एवं भगवान् नृसिंह की कृपा प्राप्ति हेतु करें इस स्तुति का पाठ

श्रीमद्भागवतमहापुराण के सप्तम स्कन्ध के नौवें अध्याय में उल्लिखित है। श्री प्रह्लाद जी के द्वारा भगवान् नृसिंहजी की 48 श्लोकों के माध्यम से सुन्दर स्तुति की गयी है । जो साधक नित्यप्रातः इस स्तुति का पाठ एकाग्रचित्त होकर करता है उसके सभी मांगलिक मनोरथ पूर्ण होते हैं । एवं नारायण की साक्षात् कृपा प्राप्त होती है ।  

विशेष :- मृत्युतुल्य कष्ट से भी निवृत्ति होती है |

                                    ( प्रह्लाद उवाच )

ब्रह्मादयः सुरगणा मुनयोऽथ सिद्धाः सत्त्वैकतानमतयो वचसां प्रवाहैः।
नाराधितुं पुरुगुणैरधुनापि पिप्रुः किं तोष्टुमर्हति स मे हरिरुग्रजातेः।।१।।

प्रह्लाद जी बोले- जिनकी बुद्धि एकमात्र सत्त्वगुण में ही स्थित है, वे ब्रह्मादि देवगण तथा मुनि और सिद्धगण भी अपने वचनों के प्रवाह से, अनन्त गुणों के कारण अभी तक जिनकी आराधना नहीं कर सके, वे भगवान् हरि मुझ उग्रजाति में उत्पन्न हुए दैत्य पर कैसे सन्तुष्ट हो सकते हैं ?।

मन्ये धनाभिजनरूपतपः श्रुतौज-स्तेजःप्रभावबलपौरुषबुद्धियोगाः।
नाराधनाय हि भवन्ति परस्य पुंसो भक्त्या तुतोष भगवान् गजयूथपाय।।२।।

मेरा तो ऐसा विचार है कि धन, कुलीनता, रूप, तप, विद्या, ओज, तेज, प्रभाव, बल, पौरुष, बुद्धि और योग- ये सभी गुण परम पुरुष श्रीहरि की आराधना के साधक नहीं हो सकते; और भक्ति से तो वे गजेन्द्र पर भी प्रसन्न हो गये थे।

विप्राद्विषड्गुणयुतादरविन्दनाभ-पादारविन्दविमुखाच्छ्वपचं वरिष्ठम्।
मन्ये तदर्पितमनोवचनेहितार्थ- प्राणं पुनाति स कुलं न तु भूरिमानः।।३।।

जो ब्राह्मण उपर्युक्त बारह गुणों से युक्त है, किन्तु भगवान् कमलनाभ के चरण कमलों से विमुख है उससे तो मैं उस चाण्डाल को श्रेष्ठ समझता हूँ जिसने अपने मन, वचन, कर्म, धन और प्राण श्रीहरि में लगा रखे हैं; वह अपने कुल को पवित्र कर देता है किन्तु अधिक सम्मान शाली ब्राह्मण वैसा नहीं कर सकता।

नैवात्मनः प्रभुरयं निजलाभपूर्णो मानं जनादविदुषः करुणो वृणीते।
यद्यज्जनो भगवते विदधीत मानं तच्चात्मने प्रतिमुखस्य यथा मुखश्रीः।।४।।

(इससे यह न समझना चाहिये कि भगवान् को पूजा की आवश्यकता है) भगवान् तो आत्मलाभ से ही पूर्ण हैं, वे क्षुद्र पुरुषों से अपना मान कराना नहीं चाहते। केवल करुणावश ही वे अपने भक्तों द्वारा की हुई परिचर्या को स्वीकार कर लेते हैं, (इससे भी उन उपासकों का ही लाभ है) क्योंकि जिस प्रकार अपने मुख की शोभा (दर्पणादि में प्रतीत होने वाली) प्रतिबिम्ब को भी सुशोभित करती है, उसी प्रकार भक्त भगवान् के प्रति जो-जो मान प्रदर्शित करता है, वह (भगवत्प्रतिबिम्बरूप) उसे ही प्राप्त होता है।

तस्मादहं विगतविक्लव ईश्वरस्य सर्वात्मना महि गृणामि यथामनीषम्।
नीचोऽजया  गुणविसर्गमनुप्रविष्टः पूयेत  येन   हि  पुमाननुवर्णितेन।।५।।

अतः यद्यपि मैं अधम हूँ तो भी निःशंक होकर अपने बुद्धि के अनुसार सब प्रकार उन ईश्वर की महिमा का वर्णन करता हूँ जिसका वर्णन करने से, अविद्यावश संसारचक्र में पड़ा हुआ जीव तत्काल पवित्र हो जाता है।

सर्वे ह्यमी विधिकरास्तव सत्त्वधाम्नो ब्रह्मादयो वयमिवेश न चोद्विजन्तः।
क्षेमाय भूतय उतात्मसुखाय चास्य विक्रीडितं भगवतो रुचिरावतारैः।।६।।

हे ईश! ये ब्रह्मादिक समस्त देवगण सत्त्वस्वरूप आपकी आज्ञा का अनुवर्तन करने वाले हैं; हम दैत्यों की भाँति आपसे द्वेष करने वाले नहीं हैं, और हे भगवन्! अपने मनोहर अवतारों द्वारा आप जो-जो लीलाएँ करते हैं वे भी जगत् के कल्याण, उद्भव तथा आत्मानन्द के लिये ही होती हैं।

तद्यच्छ मन्युमसुरश्च हतस्त्वयाद्य मोदेत साधुरपि वृश्चिकसर्पहत्या।
लोकाश्च निर्वृतिमिताः प्रतियन्ति सर्वे रूपं नृसिंह विभयाय जनाः स्मरन्ति।।७।।

अतः अब आप क्रोध शान्त कीजिये; क्योंकि असुर का संहार हो चुका । हे देव! सर्प और बिच्छू आदि दुःखदायी जीवों के मारे जाने पर साधु जन भी आनन्द मानते हैं, अतः इस असुर के संहार से आनन्दित हुए सब लोक आपका कोप शान्त होने की प्रतीक्षा कर रहे हैं। हे नृसिंह! भय से मुक्त होने के लिये मनुष्य आपके स्वरूप का स्मरण करते हैं।

नाहं बिभेम्यजित तेऽतिभयानकास्य-जिह्वार्कनेत्रध्रुकुटीरभसोग्रदंष्ट्रात्।
आन्त्रस्त्रजः क्षतजकेसरशङ्कुकर्णा-न्निर्हादभीतदिगिभादरिभिन्नखाग्रात्।।८।।

हे अजित ! जिसमें अति भयानक मुख और जिह्वा, सूर्य के समतुल्य देदीप्यमान नेत्र, भृकुटि का वेग एवं उग्र दाढ़ें हैं, जो आँतों की माला, रक्ताक्त सटाकलाप एवं सीधे खड़े हुए कानों से युक्त है, जिसके सिंहनाद ने दिग्गजों को भी भयभीत कर दिया है तथा जिसके नखाग्र शत्रु को विदीर्ण करने वाले हैं, आपके उस भयंकर स्वरूप से मुझे कुछ भी भय नहीं है।

त्रस्तोऽस्म्यहं कृपणवत्सल दुःसहोग्र-संसारचक्रकदनाद्ग्रसतां प्रणीतः।
बद्धः स्वकर्मभिरुशत्तम तेऽङ्घ्रिमूलं प्रीतोऽपवर्गशरणं ह्वयसे कदा नु।।९।।

हे दीनवत्सल! मैं तो अति उग्र और दुःसह संसार चक्र के दुःख से भयभीत हो रहा हूँ, जहाँ मुझे कर्मों ने बाँध कर हिंस्र जीवों के बीच में डाल दिया है। हे श्रेष्ठतम ! अब आप प्रसन्न होकर मुझे अपने मोक्षप्रद और शरणदायक चरणों में कब बुलायेंगे।

यस्मात्प्रियाप्रियवियोगसयोगजन्म-शोकाग्निना सकलयोनिषु दह्यमानः।
दुःखौषधं तदपि दुःखमतद्धियाहं भूमन् भ्रमामि वद मे तव दास्ययोगम्।।१०।।

हे भूमन् ! मैं सभी योनियों में प्रिय के वियोग और अप्रिय के संयोग से उत्पन्न होने वाले शोकानल(दुःख)से सन्तप्त होता रहा हूँ; उस दुःख की जो (इष्टप्राप्ति रूप) ओषधि है वह भी दुःख ही है; अतः मैं देहादि अनात्मा में आत्मबुद्धि कर चिरकाल से भटक रहा हूँ अतः आप मुझे अपने दास्यभाव का उपदेश दीजिये।

सोऽहं प्रियस्य सुहृदः परदेवताया लीलाकथास्तव नृसिंह विरिञ्चगीताः।
अञ्जस्तितर्म्यनुगृणन् गुणविप्रमुक्तो दुर्गाणि ते पदयुगालयहंससङ्गः।।११।।

हे नृसिंह ! आप सब के प्रिय, सुहृद् और श्रेष्ठ देवता रूप हैं; आपके दासभाव को प्राप्त होकर मैं, आपके चरणयुगल में निवास करने वाले ज्ञानियों का सहवास करता हुआ गुणों से मुक्त हो ब्रह्माजी द्वारा कही हुई आपकी लीलाकथाओं को गाकर सुगमता(सहजता) से ही संसार से पार हो जाऊँगा।

बालस्य नेह शरणं पितरौ नृसिंह नार्तस्य चागदमुदन्वति मज्जतो नौः।
तप्तस्य तत्प्रतिविधिर्य इहाञ्जसेष्ट-स्तावद्विभो तनुभृतां त्वदुपेक्षितानाम्।।१२।।

हे नृसिंह ! इस लोक में सन्तप्त पुरुषों की दुःख निवृत्ति का जो उपाय माना जाता है, आपके उपेक्षा करने पर वह एक क्षणके लिये ही होता है (कुछ स्थायी नहीं होता)। बालक के लिये माता- पिता, रोगी के लिये ओषधि और समुद्र में डूबते हुए के लिये नौका सदा ही सहायक नहीं होते (उनके रहते हुए भी विपरीत फल होता देखा गया है)।

यस्मिन्यतो यर्हि येन च यस्य यस्मा-द्यस्मै यथा यदुत यस्त्वपरः परो वा।
भावः करोति विकरोति पृथक्स्वभावः सञ्चोदितस्तदखिलं भवतः स्वरूपम्।।१३।।

हे भगवन्! (ब्रह्मादि) पुरातन अथवा (उनसे प्रेरित माता- पितादि) अर्वाचीन कर्ता जिसमें जिससे जब जिसके द्वारा जिसका जिससे जिसके लिये जिस प्रकार जो कुछ बनाते अथवा बिगाड़ते हैं, वह सब भिन्न-भिन्न स्वभाव वाला आपका ही स्वरूप है।

माया मनः सृजति कर्ममयं बलीयः कालेन चोदितगुणानुमतेन पुंसः।
छ‌न्दोमयं यदजयार्पितषोडशारं संसारचक्रमज कोऽतितरेत्त्वदन्यः।।१४।।

हे प्रभो! पुरुष की अनुमति से काल के द्वारा गुणों में क्षोभ होने पर माया मनःप्रधान लिंगदेह की रचना करती है जो अति बलवान्, कर्ममय, वैदिक कर्मकलाप में आसक्त तथा अविद्या द्वारा अर्पित (मन, दस इन्द्रिय और पंचतन्मात्रा-इन) सोलह विकारों से युक्त है; सो हे अजन्मा प्रभो ! आपसे अलग रहने वाला ऐसा कौन पुरुष है जो उस (मनरूप) संसारचक्र को पार कर सके।

स त्वं हि नित्यविजितात्मगुणः स्वधाम्ना कालो वशीकृतविसृज्यविसर्गशक्तिः।
चक्रे विसृष्टमजयेश्वर षोडशारे निष्पीड्यमानमुपकर्ष विभो प्रपन्नम्।।१५।।

हे प्रभो ! आप अपनी चैतन्य शक्ति से बुद्धि के समस्त गुणों पर नित्य विजय प्राप्तकर कालरूप से सम्पूर्ण साध्य और साधन को अपने वश में रखने वाले हैं, हे ईश्वर! मैं माया द्वारा इस सोलह अरों वाले संसार चक्र में डाला जाकर (इक्षुदण्डके समान) पेरा जा रहा हूँ कृपया आप मुझ शरणागत को अपने समीप खींच लें।

दृष्टा मया दिवि विभोऽखिलधिष्ण्यपाना- मायुः श्रियो विभव इच्छति याञ्जनोऽयम्।
येऽस्मत्पितुः कुपितहासविजृम्भितभ्रू- विस्फूर्जितेन लुलिताः स तु ते निरस्तः।।१६।।

हे विभो ! संसारी लोग जिनकी इच्छा रखते हैं वे स्वर्गलोक में मिलने वाली सम्पूर्ण लोकपालों की आयु, लक्ष्मी और विभूतियाँ तो मैंने खूब देख लीं। वे तो हमारे पिता के क्रोध युक्त हास्य द्वारा किये हुए भृकुटिविलास से ही नष्ट हो गयी थीं और अब आपने उन्हें भी मार डाला।

तस्मादमूस्तनुभृतामहमाशिषो  ज्ञ  आयुः श्रियं विभवमैन्द्रियमाविरिञ्चात्।
नेच्छामि ते विलुलितानुरुविक्रमेण कालात्मनोपनय मां निजभृत्यपार्श्वम्।।१७।।

अतः जीवों के इन भोगादि के परिणाम को जानने वाला मैं ब्रह्मा के भी आयु, वैभव और इन्द्रिय सम्बन्धी भोगों की इच्छा नहीं करता; क्योंकि वे सभी परम पराक्रमी कालरूप परमेश्वर से ग्रस्त हैं। अतः मुझे आप अपने दासों के समीप ले चलिये।

कुत्राशिषः श्रुतिसुखा मृगतृष्णिरूपाः क्वेदं कलेवरमशेषरुजां विरोहः।
निर्विद्यते न तु जनो यदपीति विद्वान् कामानलं मधुलवैः शमयन्दुरापैः।।१८।।

अहो ! कहाँ केवल सुनने में सुखदायक मृगतृष्णा रूप विषयभोग और कहाँ सम्पूर्ण रोगों का उत्पत्ति- स्थान यह शरीर ! किन्तु मनुष्य इनकी असारता और नाशवत्ता को जानकर भी, बड़ी कठिनता से प्राप्त होने वाले (भोग रूप) मधुकणों से अपनी भोगेच्छा रूप अग्नि को शान्त करने की चेष्टा करता है। इनसे विरक्त(अलग) नहीं होता।

क्वाहं रजःप्रभव ईश तमोऽधिकेऽस्मिञ्जातः सुरेतरकुले क्व तवानुकम्पा।
न ब्रह्मणो न तु भवस्य न वै रमाया यन्मेऽर्पितः शिरसि  पद्मकरःप्रसादः।।१९।।

हे ईश! कहाँ तो इस तमःप्रधान असुरकुल में रजोगुण से उत्पन्न हुआ मैं? और कहाँ आपकी कृपा ? अहो ! जो अपना प्रसाद स्वरूप (और सकलसन्तापहारी) कर कमल आपने कभी ब्रह्मा, महादेव और लक्ष्मी के सिर पर भी नहीं रखा वही मेरे मस्तक पर रखा।

नैषा परावरमतिर्भवतो ननु स्या-ज्जन्तोर्यथाऽऽत्मसुहृदो जगतस्तथापि।
संसेवया सुरतरोरिव ते प्रसादः सेवानुरूपमुदयो न परावरत्वम्।।२०।।

अन्य संसारी पुरुषों के समतुल्य (ब्रह्मादिक और मेरे-जैसे प्राणियों में) आपकी उत्तम अधम बुद्धि नहीं हो सकती; क्योंकि आप सम्पूर्ण जगत् के आत्मा और सुहृद् हैं। (फिर भी आपकी कृपा में जो अन्तर देखा जाता है उसका कारण यही है कि) कल्पवृक्ष के सदृश आपकी कृपा भी सेवा से ही प्राप्त होती है-सेवा के अनुसार ही आप कृपा करते हैं- कुछ ऊँच-नीच दृष्टि से नहीं।

एवं जनं निपतितं प्रभवाहिकूपे कामाभिकाममनु यः प्रपतन्प्रसङ्गात्।
कृत्वाऽऽत्मसात्सुरर्षिणा भगवन्गृहीतः सोऽहं कथं नु विसृजे तव भृत्यसेवाम्।।२१।।

हे भगवन् ! संसार रूप सर्पयुक्त कुएँ में पड़े हुए अन्य कामासक्त पुरुषों के साथ मैं भी उसी में गिरा जा रहा था। उस समय देवर्षि नारद ने मुझे अपना मानकर अनुगृहीत किया था। (उन्हीं की कृपा से आज मुझे आपके दर्शनों का सौभाग्य प्राप्त हुआ है) अतः मैं आप के दासों की सेवा किस प्रकार त्याग सकता हूँ।

मत्प्राणरक्षणमनन्त पित्रर्वधश्च मन्ये स्वभृत्यऋषिवाक्यमृतं विधातुम्।
खड्गं प्रगृह्य यदवोचदसद्विधित्सु- स्त्वामीश्वरो मदपरोऽवतु कं हरामि।।२२।।

हे अनन्त ! मेरे पिता ने अन्याय करने की इच्छा से हाथ में खड्ग लेकर जो कहा कि 'मुझसे अतिरिक्त यदि कोई ईश्वर है तो तेरी रक्षा करे- मैं तेरा सिर काटता हूँ', उस समय आपने जो मेरे प्राणों की रक्षा की और मेरे पिता का वध किया, वह भी अपने दास देवर्षि नारद के वचनों को सत्य करने के लिये ही था-ऐसा मैं मानता हूँ।

एकस्त्वमेव जगदेतदमुष्य यत्त्व-माद्यन्तयोः पृथगवस्यसि मध्यतश्च।
सृष्ट्वा गुणव्यतिकरं निजमाययेदं नानेव तैरवसितस्तदनुप्रविष्टः।।२३।।

हे नाथ! यह सम्पूर्ण जगत् एकमात्र आप ही हैं, क्योंकि (सत्स्वरूप होनेके कारण) इसके आदि और अन्त में (कारण और अवधिरूप से) आप ही अवशिष्ट रहते हैं तथा मध्य में (अधिष्ठानरूप से) आप ही स्थित हैं। आप ही अपनी माया से गुणों के परिणामरूप इस जगत् को रचकर इसमें अनुप्रविष्ट हो उन गुणों के (सृष्टि-प्रलय आदि) व्यापारों से जगत् के स्रष्टा, रक्षक और संहारक आदि भिन्न-भिन्न रूपों से प्रतीत होते हैं।

त्वं वा इदं सदसदीश भवांस्ततोऽन्यो माया यदात्मपरबुद्धिरियं ह्यपार्था।
यद्यस्य जन्म निधनं स्थितिरीक्षणं च तद्वै तदेव वसुकालवदष्टितर्वोः।।२४।।

हे ईश! यह सत् (कार्य), असत् (कारण) रूप सम्पूर्ण जगत् आप ही हैं, किन्तु आप (इसके आदि और अन्त में भी वर्तमान रहने के कारण) इससे भिन्न हैं। अतः 'यह मेरा है - यह पराया है' ऐसी निरर्थक बुद्धि माया ही है; क्योंकि जिसका जिससे जन्म, स्थिति, लय और प्रकाश होता है, वह तद्रूप ही होता है; अत: जिस प्रकार (कार्यरूप) वृक्ष और (कारण रूप) बीज दोनों ही गन्धतन्मात्रा रूप हैं उसी प्रकार यह सम्पूर्ण जगत् आप ही हैं।

न्यस्येदमात्मनि जगद्विलयाम्बुमध्ये शेषेऽऽत्मना निजसुखानुभवो निरीहः।
योगेन मीलितद्गात्मनिपीतनिद्र- स्तुर्ये स्थितो न तु तमो न गुणांश्च युङ्क्षे।।२५।।

हे प्रभो! आप इस निखिल प्रपंच को अपने में समेट कर आत्मसुख का अनुभव करते हुए निरीह होकर प्रलयकालीन जल में शयन करते हैं। उस समय योग द्वारा बाह्य दृष्टि मूंदकर और आत्मस्वरूप के प्रकाश से निद्रा को जीतकर आप तुरीयपद में स्थित रहते हैं-न तो तमोयुक्त ही होते हैं और न विषयों के भोक्ता ही।

तस्यैव ते वपुरिदं निजकालशक्त्या सञ्चोदितप्रकृतिधर्मण   आत्मगूढम्।
अम्भस्यनन्तशयनाद्विरमत्समाधे-र्नाभेरभूत्स्वकणिकावटवन्महाब्जम्।।२६।।

यह ब्रह्माण्ड, अपनी कालशक्ति से प्रकृति के गुणों को प्रेरित करने वाले उन्हीं आपका रूप है। पहले यह आप ही में निहित था; जब प्रलयकालीन जल के भीतर शेषशय्या पर शयन करने वाले आपने योगनिद्रा रूप समाधि को त्यागा तो वटके बीज से उत्पन्न हुए महावृक्ष के सदृश आपकी नाभि से अति विशाल ब्रह्माण्डकमल उत्पन्न हुआ।

तत्सम्भवः कविरतोऽन्यदपश्यमान-स्त्वां बीजमात्मनि ततं स्वबहिर्विचिन्त्य।
नाविन्ददब्दशतमप्सु निमज्जमानो जातेऽङ्कुरे कथमु होपलभेत बीजम्।।२७।।

उससे उत्पन्न हुए सूक्ष्म दर्शी ब्रह्माजी को जब उस कमल के अतिरिक्त और कुछ भी दिखायी न दिया तो अपने में व्याप्त बीजरूप आपको अपने से बाहर समझकर वे सौ वर्ष तक जल के भीतर घुसकर ढूँढ़ते रहे, किन्तु उन्हें कुछ भी न मिला-सो ठीक ही है, क्योंकि अंकुर उत्पन्न हो जाने पर (उसमें व्याप्त हुए) बीज को कोई पुरुष पृथक्(अलग) कैसे देख सकता है। 

स त्वात्मयोनिरतिविस्मित आस्थितोऽब्जं कालेन तीव्रतपसा परिशुद्धभावः।
त्वामात्मनीश भुवि गन्धमिवातिसूक्ष्मं भूतेन्द्रियाशयमये विततं ददर्श।।२८।।

इससे आत्मयोनि श्रीब्रह्मा जी अतिविस्मित हो उस कमल पर बैठ गये। हे ईश ! फिर बहुत समय तक तीव्र तपस्या द्वारा अन्तःकरण शुद्ध हो जाने पर उन्हें, पृथ्वी में व्याप्त अतिसूक्ष्म गन्धतन्मात्रा के समान भूत, इन्द्रिय और अन्तःकरणरूप अपने शरीर में व्याप्त हुए आपका साक्षात्कार हुआ।

एवं सहस्त्रवदनाङ्घ्रिशिरःकरोरु-नासास्यकर्णनयनाभरणायुधाढ्यम्।
मायामयं सदुपलक्षितसन्निवेशं दृष्ट्वा महापुरुषमाप मुदं विरिञ्चः।।२९।।

इस प्रकार सहस्त्रों वदन, चरण, सिर, हाथ, ऊरु, नासिका, मुख, कर्ण, नयन, आभूषण और आयुधों से सम्पन्न चौदह लोकरूप अवयवों से विभूषित आप मायामय विराट् पुरुष का दर्शनकर ब्रह्माजी को परमानन्द प्राप्त हुआ।

तस्मै भवान् हयशिरस्तनुवं च बिभ्रद् वेदद्द्रुहावतिबलौ मधुकैटभाख्यौ।
हत्वाऽऽनयच्छ्रुतिगणांस्तु रजस्तमश्च सत्त्वं तव प्रियतमां तनुमामनन्ति।।३०।।

तब आपने हयग्रीव रूप धारणकर अतिप्रबल और वेदद्रोही रजोगुण-तमोगुणरूप मधु और कैटभ नामक दो दैत्यों को मारकर उन ब्रह्माजी को सत्त्वगुणरूप समस्त वेद समर्पण किये। अतः सत्त्वगुण को ही आपका प्रियतम रूप कहा जाता है।

इत्थं नृतिर्यगृषिदेवझषावतारै-र्लोकान् विभावयसि हंसि जगत्प्रतीपान्।
धर्मं महापुरुष पासि युगानुवृत्तं छन्नः कलौ यदभवस्त्रियुगोऽथ स त्वम्।।३१।।

हे परमपुरुष ! इस प्रकार आप मनुष्य, तिर्यक्, ऋषि, देवता और मत्स्यादि अवतार लेकर सम्पूर्ण लोकों का पालन और जगद्विद्रोहियों का संहार करते हैं। उन अवतारों द्वारा आप प्रत्येक युग के धर्मों की रक्षा करते हैं, किन्तु कलियुग में (अवतार न लेकर) गुप्त रूप से ही रहते हैं; इसीलिये आप 'त्रियुग' नाम से भी प्रसिद्ध हैं।

नैतन्मनस्तव कथासु विकुण्ठनाथ सम्प्रीयते दुरितदुष्टमसाधु तीव्रम्।
कामातुरं हर्षशोकभयैषणार्तं तस्मिन् कथं तव गतिं विमृशामि दीनः।।३२।।

हे विकुण्ठनाथ ! यह मेरा मन अति असाधु, दोषदूषित, कामातुर तथा हर्ष, शोक, भय और त्रिविध एषणाओं से व्याकुल है, आपकी कथाओं में इसकी प्रीति ही नहीं है। मैं दीन ऐसे कलुषित चित्त में किस प्रकार आपके स्वरूप का चिन्तन करूँ।

जिह्वैकतोऽच्युत विकर्षति मावितृप्ता शिश्नोऽन्यतस्त्वगुदरं श्रवणं कुतश्चित्।
घ्राणोऽन्यतश्चपलदृक् क्व च कर्मशक्ति-र्बह्वयः सपल्य इव गेहपतिं लुनन्ति।।३३।।

हे अच्युत ! जिस प्रकार बहुत-सी सपत्नियाँ (सौतें) अपने स्वामी को अपनी-अपनी ओर खींचती हैं उसी प्रकार मुझे अतृप्त रसना एक ओर, उपस्थ दूसरी ओर, त्वचा, उदर एवं कर्ण किसी तीसरी ओर, घ्राण और चंचल नयन किसी और तरफ तथा कर्मेन्द्रियाँ और ही स्थान की ओर खींचती हैं।

एवं स्वकर्मपतितं भववैतरण्या-मन्योन्यजन्ममरणाशनभीतभीतम्।
पश्यञ्जनं स्वपरविग्रहवैरमैत्रं हन्तेति पारचर पीपृहि मूढमद्य।।३४।।

इस संसार रूप वैतरणी में अपने कर्मों के कारण पड़कर एक-दूसरे के जन्म, मरण एवं खान-पानादि से अत्यन्त भयभीत तथा अपने और पराये पुरुषों से मित्रता एवं द्वेष करने वाले मूढ़ जनसमुदाय का हे पार लगाने वाले ! आप अब पालन कीजिये।

को न्वत्र तेऽखिलगुरो भगवन् प्रयास उत्तारणेऽस्य भवसम्भवलोपहेतोः।
मूढेषु वै महदनुग्रह आर्तबन्धो किं तेन ते प्रियजनाननुसेवतां नः।।३५।।

हे अखिलगुरो ! आप सम्पूर्ण जगत् की उत्पत्ति, स्थिति और पालन करनेवाले हैं। हे भगवन् ! इन सबको पार लगाना आपके लिये ऐसी क्या प्रयास की बात है ? हे दीनबन्धो ! महापुरुषों की कृपा तो मूढ़ों पर ही होनी चाहिये; आपके प्रिय दासों की सेवा करने वाले हम लोगों के लिये उसका ऐसा क्या प्रयोजन है? (हम तो उनकी सेवा से ही तर जायँगे।

नैवोद्विजे पर दुरत्ययवैतरण्या-स्त्वद्वीर्यगायनमहामृतमग्नचित्तः।
शोचे ततो विमुखचेतस इन्द्रियार्थ-मायासुखाय भरमुद्वहतो विमूढान्।।३६।।

हे प्रभो! जिसका पार करना दूसरों के लिये अत्यन्त कठिन है उस संसाररूप वैतरणी से मुझे कुछ भी भय नहीं है, क्योंकि मेरा चित्त आपके पौरुषगान रूप परमामृत का पान करके मग्न रहता है, मुझे तो उन्हीं की चिन्ता है जो मूढ़ उससे विमुख रहकर इन्द्रियों के विषयों से प्राप्त होने वाले मायिक सुख के लिये कुटुम्बपोषणादि का भार वहन करते रहते हैं।

प्रायेण देव मुनयः स्वविमुक्तिकामा मौनं चरन्ति विजने न परार्थनिष्ठाः।
नैतान् विहाय कृपणान् विमुमुक्ष एको नान्यं त्वदस्य शरणं भ्रमतोऽनुपश्ये।।३७।।

हे देव! मुनिजन प्रायः अपनी ही मुक्ति की इच्छा से एकान्त में रहकर मौनव्रत धारण कर लेते हैं, वे दूसरे के हित में तत्पर नहीं होते। किन्तु मुझे इन गरीबों को छोड़कर अकेले ही मुक्त होने की इच्छा नहीं है और संसार में भटकने वाले इन लोगों के लिये आपके सिवा और कोई मुझे उद्धार करने वाला भी दिखायी नहीं देता।

यन्मैथुनादि गृहमेधिसुखं हि तुच्छं कण्डूयनेन करयोरिव दुःखदुःखम्।
तृप्यन्ति नेह कृपणा बहुदुःखभाजः कण्डूतिवन्मनसिजं विषहेत धीरः।।३८।।

हे प्रभो! मैथुनादि जो गृहस्थी के सुख हैं वे खुजली के समान हैं। जिस प्रकार हाथों से खुजलाने पर खुजली में (पहले कुछ चैन पड़ने पर भी फिर) अधिकाधिक दुःख ही बढ़ता है, उसी प्रकार ये भोग भी अत्यन्त तुच्छ हैं। किन्तु अनेकों दुःख उठाने पर भी ये दीनजन इनसे तृप्त नहीं होते। कोई धीर पुरुष ही खुजली के समान कामादि वेगों को सहन करता है।

मौनव्रतश्रुततपोऽध्ययनस्वधर्म-    व्याख्यारहोजपसमाधय     आपवर्ग्याः।
प्रायः परं पुरुष ते त्वजितेन्द्रियाणां वार्ता भवन्त्युत न वात्र तु दाम्भिकानाम्।।३९।।

हे परमपुरुष! मौन, ब्रह्मचर्य, शास्त्रश्रवण, तप, वेदाध्ययन, स्वधर्म पालन, शास्त्रों की व्याख्या करना, एकान्त सेवन, जप और समाधि- ये जो मोक्ष के दस साधन हैं वे भी प्रायः अजितेन्द्रिय पुरुषों की जीविका के साधन बन जाते हैं; तथा दाम्भिकों के लिये तो वे कभी जीविका के साधन रहते भी हैं और कभी (दम्भ खुल जाने पर) नहीं भी रहते।

रूपे इमे सदसती तव वेदसृष्टे बीजाङ्कुराविव न चान्यदरूपकस्य।
युक्ताः समक्षमुभयत्र विचिन्वते त्वां योगेन वह्निमिव दारुषु नान्यतः स्यात्।।४०।।

वेद ने बीज और अंकुर के समान कार्य और कारण-ये आपके दो रूप बतलाये हैं। वास्तव में आप रूपरहित हैं; परन्तु इन्हें छोड़कर आपके ज्ञान का और कोई साधन भी नहीं है। योगीजन काष्ठ में निहित अग्नि के समान भक्ति योगद्वारा इन (कार्य और कारण) दोनों ही में आपका साक्षात्कार करते हैं; क्योंकि आपके सिवा इनकी पृथक् कोई सत्ता नहीं है।

त्वं  वायुरग्निरवनिर्वियदम्बुमात्राः  प्राणेन्द्रियाणि     हृदयं      चिदनुग्रहश्च।
सर्वं त्वमेव सगुणो विगुणश्च भूमन् नान्यत् त्वदस्त्यपि मनोवचसा निरुक्तम्।।४१।।

हे भूमन् ! वायु, अग्नि, पृथ्वी, आकाश, जल, पंचतन्मात्रा, प्राण, इन्द्रिय, मन, चित्त, अहंकार तथा स्थूल-सूक्ष्म सम्पूर्ण जगत् एकमात्र आप ही हैं। अधिक क्या, जितने भी पदार्थ मन या वाणी के विषय हैं उनमें से कोई भी आपसे पृथक् नहीं हैं।

नैते गुणा न गुणिनो महदादयो  ये सर्वे मनः प्रभृतयः  सहदेवमर्त्याः ।
आद्यन्तवन्त उरुगाय विदन्ति हि त्वा मेवं विमृश्य सुधियो विरमन्ति शब्दात्।।४२।।

किन्तु हे महाकीर्ते ! ये सत्त्वादि गुण, गुणों के परिणाम महत्तत्त्वादि तथा देवता और मनुष्यों के सहित मन-बुद्धि आदि कोई भी आपको नहीं जानते; क्योंकि सभी आदि-अन्तयुक्त हैं। आप ऐसे हैं- यह जानकर पण्डितजन शब्दतः आपका प्रतिपादन करने से उपरत हो जाते हैं।

तत् तेऽर्हत्तम नमः स्तुतिकर्मपूजाः कर्म स्मृतिश्चरणयोः श्रवणं कथायाम्।
संसेवया त्वयि विनेति षडङ्गया किं भक्तिं जनः परमहंसगतौ लभेत।।४३।।

हे पूज्यतम ! प्रणाम, स्तुति, सर्वकर्मार्पण, उपासना, चरणों का ध्यान तथा कथा श्रवण- इन छः अंगों के सहित आपकी भली प्रकार सेवा किये बिना मनुष्य को केवल परमहंसों को ही प्राप्त होने वाले आपमें किस प्रकार भक्ति हो सकती है? (अतः आपकी भक्ति प्राप्त हो-इसलिये मुझे अपना दास्यभाव ही प्रदान कीजिये)।
                    (नारद उवाच)

एतावद्वर्णितगुणो  भक्त्या  भक्तेन  निर्गुणः।
प्रह्लादं  प्रणतं  प्रीतो  यतमन्युरभाषत।।४४।।

श्रीनारदजी बोले- हे राजन् ! भक्त प्रह्लाद द्वारा इस प्रकार भक्तिपूर्वक गुणों का वर्णन किया जाने पर उन निर्गुण भगवान् का क्रोध शान्त हो गया और वे विनयसम्पन्न प्रह्लाद जी से प्रसन्न होकर बोले।

                      (श्रीभगवानुवाच) 

प्रह्लाद भद्र भद्रं ते प्रीतोऽहं तेऽसुरोत्तम।
वरं वृणीष्वाभिमतं कामपूरोऽस्म्यहं नृणाम्।।४५।।

श्री भगवान् ने कहा-भद्र प्रह्लाद ! तुम्हारा शुभ हो। हे असुर श्रेष्ठ ! मैं तुमसे अत्यन्त प्रसन्न हूँ। तुम मुझसे इच्छित वर माँगो, मैं मनुष्यों की सम्पूर्ण कामनाएँ पूर्ण कर देता हूँ।

मामप्रीणत आयुष्मन् दर्शनं दुर्लभं हि मे।
दृष्ट्वा मां न पुनर्जन्तुरात्मानं तप्तुमर्हति।।४६।।

हे आयुष्मन् ! जो व्यक्ति मुझे प्रसन्न नहीं कर पाता उसे मेरा दर्शन मिलना अत्यन्त कठिन है। किन्तु जब मेरा दर्शन हो गया तब उसे किसी तरह का संताप नहीं करना पड़ता।

प्रीणन्ति ह्यथ मां धीराः सर्वभावेन साधवः।
श्रेयस्कामा महाभागाः सर्वासामाशिषां पतिम्।।४७।।

मैं सकल शुभ इच्छाओं को पूर्ण करने वाला हूँ, इसलिये जितेन्द्रिय और अपना कल्याण चाहने वाले महाभाग साधु जन सब प्रकार मुझे प्रसन्न करने का प्रयत्न करते हैं।

एवं प्रलोभ्यमानोऽपि वरैर्लोकप्रलोभनैः।
एकान्तित्वाद् भगवति नैच्छत् तानसुरोत्तमः।।४८।।

इस प्रकार सम्पूर्ण लोकों को प्रलोभित करने वाले वरों का लोभ दिखाने पर भी असुर श्रेष्ठ प्रह्लाद ने उनकी इच्छा नहीं की, क्योंकि वे भगवान् के अनन्य भक्त थे।

।।इस प्रकार श्रीमद्भागवत् महापुराण के सप्तम स्कन्ध के नवमाध्याय में प्रह्लाद जी द्वारा की गयी नृसिंग स्तुति सम्पूर्ण हुई ।। 


 

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