क्लेश रूपी अग्नि के ताप से मुक्ति तथा भगवत् कृपा प्राप्ति हेतु करें साधक पञ्चकम् का पाठ

क्लेश रूपी अग्नि के ताप से मुक्ति तथा भगवत् कृपा प्राप्ति हेतु करें साधक पञ्चकम् का पाठ

।। साधनपञ्चकम् ।।

श्रीमत् शंकराचार्य जी द्वारा विरचित इस स्तोत्र में कुल छः श्लोक हैं जिनमें से पांच श्लोकों में पञ्च साधनों के विषय में बताया गया है एवं अन्तिम एक श्लोक में इसकी माहत्ता प्रतिपादित की गयी है । इस स्तोत्र का प्रतिदिन पाठ करने से साधक के संसारदावानल के तीव्र घोर ताप, आत्मप्रसाद के होने से शीघ्र ही शान्त हो जाते हैं ।

वेदो नित्यमधीयतां तदुदितं कर्म स्वनुष्ठीयतां 
                 तेनेशस्य विधीयतामपचितिः काम्ये मतिस्त्यज्यताम् । 
पापौघः परिधूयतां भवसुखे दोषोऽनुसन्धीयता-
                 मात्मेच्छा व्यवसीयतां निजगृहात्तूर्णं विनिर्गम्यताम् ॥ १ ॥

सर्वदा वेदाध्यन करो, इसके बताये हुए कर्मों का भली -भांति अनुष्ठान करो, उनके द्वारा भगवान् की पूजा करो और काम्यकर्मों में चित्त को मत जाने दो, पाप समुह का परिमार्जन करो, संसार सुख में दोषानुसंधान करो, आत्मजिज्ञासा के लिए प्रयत्न करो और शीघ्र ही गृह का त्याग कर दो । 

सङ्गः सत्सु विधीयतां भगवतो भक्तिर्दृढा धीयतां
                      शान्त्यादिः परिचीयतां दृढतरं कर्माशु सन्त्यज्यताम् ।
सद्विद्वानुपसर्प्यतां प्रतिदिनं तत्पादुका सेव्यतां 
                        ब्रह्मैकाक्षरमर्थ्यतां श्रुतिशिरोवाक्यं समाकर्ण्यताम् ॥ २ ॥

सज्जनों का संग करो, भगवान् की दृढ़ भक्ति का आश्रय लो, शम-दमादिक भली भांति संचय करो और कर्मों का शीघ्र ही दृढ़तापूर्वक त्याग कर दो, सत्य (परमार्थ जानने वाले) विद्वान् के पास नित्य जाओ और उनकी चरणपादुका का सेवन करो, उनसे एकाक्षर ब्रह्म की जिज्ञासा करो और वेदों के महावाक्यों का श्रवण करो । 

वाक्यार्थश्च विचार्यतां श्रुतिशिरःपक्षः समाश्रीयतां 
                     दुस्तर्कात्सुविरम्यतां श्रुतिमतस्तर्कोऽनुसन्धीयताम् । 
ब्रहौवास्मि विभाव्यतामहरहर्गर्वः परित्यज्यताम
                       देहेऽहम्मतिरुज्झ्यतां बुधजनैर्वादः परित्यज्यताम् ॥३॥

महावाक्यों के अर्थ का विचार करो, महावाक्यों का आश्रय लो, कुतर्क से दूर रहो और श्रुति-सम्मत तर्क का अनुसंधान करो, “मैं भी ब्रह्म ही हूँ” - नित्य ऐसी भावना करो, अभिमान को त्याग दो, देह में अहंबुद्धी छोड़ दो और विचारवान् पुरुषों के साथ वाद-विवाद मत करो ।

क्षुद्व्याधिश्च चिकित्स्यतां प्रतिदिनं भिक्षौषधं भुज्यतां
                         स्वाद्वन्नं न तु याच्यतां विधिवशात्प्राप्तेन सन्तुष्यताम् ।
शीतोष्णादि विषह्यतां न तु वृथा वाक्यं समुच्चार्यता- 
                           मौदासीन्यमभीप्स्यतां जनकृपा नैष्ठुर्यमुत्सृज्यताम् ॥ ४ ॥

क्षुधारूप व्याधि की प्रतिदिन चिकित्सा करो, भिक्षारूप औषध का सेवन करो, स्वादु अन्न की याचना मत करो, दैवयोग से जो मिल जाए उसी से संतोष करो, सर्दी-गर्मी सुख- दुख आदि द्वन्दों को सहन करो और व्यर्थ वाक्य मत उच्चारण करो, उदासीनता धारण करो, अन्य मनुष्यों की कृपा की इच्छा तथा निष्ठुरता को त्याग दो । 

एकान्ते सुखमास्यतां परतरे चेतः समाधीयतां 
                       पूर्णात्मा सुसमीक्ष्यतां जगदिदं तद्वाधितं दृश्यताम् ।
प्राक्कर्म प्रविलाप्यतां चितिबलान्नाप्युत्तरैः श्लिष्यतां
                        प्रारब्धं त्विह भुज्यतामथ परब्रह्मात्मना स्थीयताम् ॥ ५ ॥

एकांत में सुख से बैठो, परब्रम्ह में चित्त लगा दो, पूर्ण आत्माओं को अच्छी तरह देखो, और इस जगत् को  उसके द्वारा बाधित देखो, संचित कर्मों का नाश कर दो, ज्ञान के बल से क्रियमाण कर्मों से लिप्त मत होना, प्रारब्ध कर्म को यहीं भोग लो इसके बाद परब्रह्मरूप से ( एकीभाव होकर ) स्थित हो जाओ ।

यः श्लोकपञ्चकमिदं पठते मनुष्यः
                 सञ्चिन्तयत्यनुदिनं स्थिरतामुपेत्य ।
 तस्याशु संसृतिदवानलतीव्रघोर-
                 तापः प्रशान्तिमुपयाति चितिप्रसादात् ॥ ६ ॥

जो मनुष्य इन पांचों श्लोकों को पढ़ता है और स्थिरचित्त से प्रतिदिन इनका मनन करता है, उसके  संसारदावानल के तीव्र घोर ताप आत्मप्रसाद के होने से शीघ्र ही शान्त हो जाते हैं ।

।। इति श्रीमच्छङ्कराचार्यविरचितं साधनपंचकं सम्पूर्णम् ।।

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