व्यवसाय की वृद्धि, मेधा प्राप्ति, आर्थिक समृद्धि, यश विस्तार तथा विघ्न-बाधाओं के निवारण हेतु करें पाठ

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।। श्रीगणपति अथर्वशीर्षम् ।।

यह अथर्वशीर्ष अथर्ववेद का शिरोभाग हैं जिस प्रकार मनुष्य के सम्पूर्ण शरीर में शीर्ष(सिर) महत्वपूर्ण होता है उसी प्रकार इसकी भी महत्ता है । अथर्वशीर्ष के अन्तर्गत् पांच अथर्वशीर्ष (गणपति,शिव,देवी,नारायण, सूर्य ) प्राप्त होते हैं इन्हीं में से एक है गणपति अथर्वशीर्ष । इस अथर्वशीर्ष का पाठ करने से साधक विघ्नों से बाधित नहीं होता तथा महापातकों से मुक्त हो जाता है । पुरुषार्थ चतुष्टय की प्राप्ति करता है । श्रीगणेशजी की आराधना से विघ्नों का नाश होता है । अनेक श्लोक, स्तोत्र, जप द्वारा गणेशजी की उपासना की जाती है । प्रात: प्रतिदिन स्नानादि से निवृत्त होकर इस “गणपति अथर्वशीर्षम्”  का पाठ करने से गणेशजी की कृपा अवश्य प्राप्त होती है । 

ॐ नमस्ते गणपतये ।
त्वमेव प्रत्यक्षं तत्वमसि ।
त्वमेव केवलं कर्तासि ।
त्वमेव केवलं धर्तासि ।
त्वमेव केवलं हर्तासि ।
त्वमेव सर्वं खल्विदं ब्रह्मासि ।
त्व साक्षादात्माऽसि नित्यम् ।।१।।

भगवान् गणपति को नमस्कार है । हे गणेश ! तुम्हीं प्रत्यक्ष तत्व हो । तुम्हीं केवल कर्ता हो । तुम्हीं केवल धर्ता हो। तुम्हीं केवल हर्ता हो । निश्चयपूर्वक तुम्हीं इन सब रूपों में विराजमान ब्रह्म हो । तुम साक्षात् नित्य आत्मस्वरूप हो ।

ऋतं वच्मि । सत्यं वच्मि ।।२।।
 मैं ऋत न्याययुक्त बात कहता हूं । सत्य कहता हूं ।
अव त्वं माम् । अव वक्तारम् ।
अव श्रोतारम् । अव दातारम् ।
अव धातारम् । अव अनूचानम् । 
अव शिष्यम् । अव पश्चात्तात् ।
अव पुरस्तात् । अवोत्तरात्तात् ।
अव दक्षिणात्तात् । अव चोर्ध्वात्तात् । 
अवाधस्तात् । सर्वतो मां पाहि-पाहि समन्तात् ।।३।।

हे पार्वतीनंदन ! तुम मेरी (मुझ शिष्य की) रक्षा करो। वक्ता (आचार्य) की रक्षा करो । श्रोता (सुनने वाले) की रक्षा करो । दाता की रक्षा करो। धाता की रक्षा करो। व्याख्या करने वाले आचार्य की रक्षा करो । शिष्य की रक्षा करो । पश्चिम से रक्षा करो । पूर्व से रक्षा करो । उत्तर से रक्षा करो । दक्षिण से रक्षा करो । ऊपर से रक्षा करो । नीचे से रक्षा करो । सब ओर से मेरी रक्षा करो । चारों ओर से मेरी रक्षा करो ।

त्वं वाङ्‍मयस्त्वं चिन्मय:।
त्वमानन्दमसयस्त्वं ब्रह्ममय:।
त्वं सच्चिदानन्दाद्वितीयोऽसि ।
त्वं प्रत्यक्षं ब्रह्मासि।
त्वं ज्ञानमयो विज्ञानमयोऽसि ।।४।।

तुम वाङ्‍मय हो, चिन्मय हो । तुम आनन्दमय हो । तुम ब्रह्ममय हो । तुम सच्चिदानन्द अद्वितीय हो । तुम प्रत्यक्ष ब्रह्म हो । तुम दानमय विज्ञानमय हो ।

सर्वं जगदिदं त्वत्तो जायते ।
सर्वं जगदिदं त्वत्तस्तिष्ठति।
सर्वं जगदिदं त्वयि लयमेष्यति।
सर्वं जगदिदं त्वयि प्रत्येति।
त्वं भूमिरापोऽनलोऽनिलो नभ: ।
त्वं चत्वारि वाक्पदानि।।५।।

यह जगत तुमसे उत्पन्न होता है। यह सारा जगत तुममें  ही लय होता है। इस सारे जगत की तुममें प्रतीति होती है । तुम्हीं भूमि, जल, अग्नि, वायु और आकाश हो । परा, पश्यन्ती, बैखरी और मध्यमा वाणी के चतुर्विध वाक् तुम्हीं हो । 

त्वं गुणत्रयातीत:। त्वं कालत्रयातीत:।
त्वं देहत्रयातीत:। त्वं मूलाधारस्थितोऽसि नित्यम् । 
त्वं शक्तित्रयात्मक:।
त्वां योगिनो ध्यायन्ति नित्यम् ।
त्वं ब्रह्मा त्वं विष्णुस्त्वं
रुद्रस्त्वं इंद्रस्त्वं अग्निस्त्वं
वायुस्त्वं सूर्यस्त्वं चंद्रमास्त्वं
ब्रह्मभूर्भुव: स्वरोम् ।।६।।

तुम सत्व, रज और तम तीनों गुणों से परे हो । तुम जागृत, स्वप्न और सुषुप्ति इन तीनों अवस्थाओं से परे हो । तुम स्थूल, सूक्ष्म और वर्तमान तीनों देहों से परे हो । तुम भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालों से परे हो। तुम मूलाधार चक्र में नित्य स्थित रहते हो । इच्छा, क्रिया और ज्ञान तीनों प्रकार की शक्तियाँ तुम्हीं हो । तुम्हारा योगीजन नित्य ध्यान करते हैं । तुम ब्रह्मा हो, तुम विष्णु हो, तुम रुद्र हो, तुम इन्द्र हो, तुम अग्नि हो, तुम वायु हो, तुम सूर्य हो, तुम चंद्रमा हो, तुम ब्रह्म हो, भू:, र्भूव:, स्व: ये तीनों लोक तथा ॐकार वाच्य परब्रह्म भी तुम हो ।

गणादिं पूर्वमुच्चार्य वर्णादिं तदनन्तरम् ।
अनुस्वार: परतर:। अर्धेन्दुलसितम् ।
तारेण रुद्धम् । एतत्तव मनुस्वरूपम् ।
गकार: पूर्वरूपम् । अकारो मध्यमरूपम् । अनुस्वारश्चान्त्यरूपम् । बिन्दुरूत्तररूपम् । नाद: संधानम् । संहितासंधि: । सैषा गणेश विद्या। गणक ऋषि: निचृद् गायत्री छन्द:। गणपतिर्देवता । ॐ गं गणपतये नम: ।।७।।

गण शब्द के आदि अर्थात गकार का पहले उच्चारण करें । उसके बाद वर्णों के आदि अर्थात 'अ' उच्चारण करें । उसके बाद अनुस्वार उच्चारित होता है । इस प्रकार अर्धचंद्र से सुशोभित 'गं' है वह ॐकार से अवरुद्ध होने पर तुम्हारे बीज मंत्र का स्वरूप (ॐ गं) है । गकार इसका पूर्वरूप है । बिन्दु उत्तर रूप है । नाद संधान है । संहिता सन्धि है । ऐसी यह गणेश विद्या है । इस महामंत्र के गणक ऋषि हैं । निचृद् गायत्री छ्न्द है,और श्री गणपति देवता हैं । वह महामंत्र है- “ॐ गं गणपतये नम:”

एकदन्ताय विद्‍महे वक्रतुण्डाय धीमहि । तन्नो दन्ती प्रचोदयात् ।।८।।

एकदन्त को हम जानते हैं । वक्रतुण्ड का हम ध्यान करते हैं । वह दन्ती (गजानन) हमें प्रेरणा प्रदान करें । ( यह गणेश गायत्री है ) ।

एकदन्तं चतुर्हस्तं पाशमड्कुशधारिणम् ।
रदं च वरदं हस्तैर्विभ्राणं मूषकध्वजम् ।।
रक्तं लम्बोदरं शूर्पकर्णकं रक्तवाससम् ।
रक्तगन्धानुलिप्ताड्गं रक्तपुष्पै: सुपुजितम् ।।
भक्तानुकम्पिनं देवं जगत्कारणमच्युतम् ।
आविर्भूतं च सृष्ट्यादौ प्रकृ‍ते: पुरुषात्परम् ।।
एवं ध्यायति यो नित्यं स योगी योगिनां वर: ।।९।।

एकदन्त चतुर्भज चारों हाथों में पाश, अंकुश,दन्त , अभय और वरदान की मुद्रा धारण किए तथा मूषक चिह्न की ध्वजा लिए हुए, रक्तवर्ण,लम्बोदर, शूर्पकर्ण (बड़े-बड़े कानों वाले) रक्त वस्त्रधारी शरीर प रक्त चंदन का लेप किए हुए रक्तपुष्पों से भलीभाँति पूजित। भक्त पर अनुकम्पा करने वाले देवता, जगत के कारण अच्युत, सृष्टि के आदि में आविर्भूत प्रकृति और पुरुष से परे श्रीगणेशजी का जो नित्य ध्यान करता है, वह योगी (साधक) सब योगियों (साधकों) में श्रेष्ठ है।

नमो व्रातपतये नमो गणपतये नम: प्रमथपतये
नमस्तेऽस्तु लम्बोदरायैकदन्ताय विघ्ननाशिने शिवसुताय
श्रीवरदमूर्तये  नम: ।।१०।।

व्रातपति (देव समूह) के नायक को नमस्कार । गणपति को नमस्कार । प्रथमपति (शिवजी के गणों के अधिनायक) के लिए नमस्कार । लम्बोदर को नमस्कार है, एकदन्त को नमस्कार है, शिवजी के पुत्र को तथा श्रीवरदमूर्ति को मेरा नमस्कार है । 

एतदथर्वशीर्षं योऽधीते ।
स ब्रह्मभूयाय कल्पते ।
स सर्व विघ्नैर्न बाध्यते।
स सर्वत: सुखमेधते।
स पञ्चमहापापात्प्रमुच्यते।
सायमधीयानो दिवसकृतं पापं नाशयति । प्रातरधीयानो रात्रिकृतं पापं नाशयति । सायं प्रातः प्रयुञ्जानो अपापो भवति । सर्वत्राधीयानोsपविघ्नो भवति । धर्म-अर्थ-काम-मोक्षं च विन्दति । इदमथर्वशीर्षमशिष्याय न देयम् । यो यदि मोहाद्‍दास्यति स पापीयान् भवति । सहस्रावर्तनाद् यं यं काममधीते तं तमनेन साधयेत् ।।११।।

 
यह अथर्वशीर्ष (अथर्ववेद में उपदिष्ट) है। इसका पाठ जो करता है, वह ब्रह्म को प्राप्त करने का अधिकारी हो जाता है । सब प्रकार के विघ्न उसके लिए बाधक नहीं होते । वह सब जगह सुख पाता है । वह पांचों प्रकार के महान पातकों तथा उपपातकों से मुक्त हो जाता है । सायंकाल पाठ करने वाला दिन में किये गये पापों का नाश करता है । प्रात:काल पाठ करने वाला रात्रि में हुए पापों का नाश करता है ।

जो प्रात: - सायं दोनों समय इस पाठ को करता है वह निष्पाप हो जाता है । वह सर्वत्र विघ्नों का नाश करता है । धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्त करता है ।

इस अथर्वशीर्ष को जो शिष्य न हो (अशिष्य) हो उसे नहीं देना चाहिए । जो मोह के कारण देता है वह पातकी हो जाता है । सहस्र (हजार) बार पाठ करने से जिन-जिन कामों-कामनाओं का उच्चारण करता है, उनकी सिद्धि इसके द्वारा ही मनुष्य कर लेता है ।

अनेन गणपतिमभिषिञ्चति स वाग्मी भवति ।
चतुर्थ्यामनश्नञ्जपति स विद्यावान् भवति ।
इत्यथर्वणवाक्यम् ।
ब्रह्माद्यावरणं विद्यात् ।
न बिभेति कदाचनेति ।।१२।।

इस पाठ के द्वारा जो गणपति को स्नान कराता है, वह  उत्कृष्ट वक्ता बन जाता है । जो चतुर्थी तिथि को उपवास करके जपता है वह विद्यावान हो जाता है, यह अथर्ववाक्य है जो इस मं‍त्र के द्वारा तपश्चरण करना जानता है वह कदापि भय को प्राप्त नहीं होता ।

यो दूर्वाड्कुरैर्यजति स वैश्रवणोपमो भवति ।
यो लाजैर्यजति स यशोवान् भवति । स मेधावान् भवति ।
यो मोदकसहस्रेण यजति स वाञ्छित फलम् अवाप्नोति ।
य: साज्यसमिद्भि: यजति स सर्वं लभते स सर्वं लभते ।।१३।।

जो दूर्वाड्कुरों के द्वारा भगवान् गणपति का यजन करता है वह कुबेर के समान हो जाता है । जो लाजा (धाना,लाई) के द्वारा यजन करता है वह यशस्वी होता है, मेधावी होता है । जो सहस्र (हजार) लड्डुओं (मोदकों) द्वारा यजन करता है, वह वान्छित फल को प्राप्त करता है । जो घृत के सहित समिधा से यजन करता है, वह सब कुछ प्राप्त करता है ।

अष्टौ ब्राह्मणान् सम्यग्ग्राहयित्वा सूर्यवर्चस्वी भवति ।
सूर्यग्रहे महानद्यां प्रतिमासंनिधौ वा जप्त्वा सिद्धमन्त्रो भवति ।
महाविघ्नात् प्रमुच्यते । महापापात् प्रमुच्यते ।
महादोषात् प्रमुच्यते । महापापात् प्रमुच्यते।
स सर्वविद् भवति । स सर्वविद् भवति ।
य एवं वेद ।।१४।।  इत्युपनिषत्।।

 
आठ ब्राह्मणों को सम्यक् रीति से पाठ कराने पर सूर्य के समान तेजस्वी होता है । सूर्य ग्रहण में महानदी में या प्रतिमा के समीप जपने से मंत्र सिद्धि होती है । वह महाविघ्नों से मुक्त हो जाता है । जो इस प्रकार जानता है, वह सर्वज्ञ हो जाता है वह सर्वज्ञ हो जाता है ।

।। इस प्रकार यह महाविद्या बतलाई गयी है । इसके पाठ का अनन्य फल है । 

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