अविद्या आदि पञ्चक्लेशों की निवृत्ति, धन-वैभव श्रीसम्पत्ति की प्राप्ति हेतु करें- श्रीगणाधिप स्तोत्र का पाठ

अविद्या आदि पञ्चक्लेशों की निवृत्ति, धन-वैभव श्रीसम्पत्ति की प्राप्ति हेतु करें- श्रीगणाधिप स्तोत्र का पाठ

।। श्री गणाधिप स्तोत्रम् ।।

श्रीमत् शंकराचार्य जी द्वारा प्रतिपादित यह स्तोत्र है । इस स्तोत्र में कुल छः श्लोक हैं जिनमें पांच श्लोकों में भगवान् गणपति की स्तुति की गयी है और अन्तिम एक श्लोक में माहात्म्य है । 

स्तोत्र पाठ लाभ :

  • इस स्तोत्र पाठ से अभीष्ट वस्तुओं की प्राप्ति होती है । 
  • मनुष्य दीर्घायु प्राप्त करता है ।
  • श्री संपन्न होता है ।
  • जिन दम्पतियों को संतान सुख प्राप्त नहीं होता उन्हें भी इस स्तोत्र का पाठ करने से  सुन्दर तथा तेजस्वी संतान की प्राप्ति होती है ।

सरागिलोकदुर्लभं विरागिलोकपूजितं, 
                 सुरासुरैर्नमस्कृतं जरादिमृत्युनाशकम् । 
गिरा गुरुं श्रिया हरिं जयन्ति यत्पदार्चका,
                नमामि तं गणाधिपं कृपापयः पयोनिधिम् ॥ १ ॥

जो विषयासक्त लोगों के लिये दुर्लभ, विरक्तजनों से पूजित, देवताओं और असुरों से वन्दित तथा जरा आदि मृत्यु के नाशक हैं; जिनके चरणारविन्दों की अर्चना करने वाले अपनी वाणीद्वारा बृहस्पति को और लक्ष्मी द्वारा श्रीविष्णु को भी जीत लेते हैं, उन दयारूपी जल के सागर गणाधिपति को मैं प्रणाम करता हूँ ।

गिरीन्द्रजामुखाम्बुजप्रमोददानभास्करं, 
                  करीन्द्रवक्त्रमानताघसङ्घवारणोद्यतम् ।
सरीसृपेशबद्धकुक्षिमाश्रयामि संततं,
                   शरीरकान्तिनिर्जिताब्जबन्धुबालसंततिम् ॥ २ ॥

जो गिरिराजनन्दिनी उमाके मुखारविन्दको प्रमोद प्रदान करनेके लिये सूर्यरूप हैं; जिनका मुख गजराज के समान है; जो प्रणतजनों की पापराशि का नाश करने के लिये उद्यत रहते हैं; जिनकी कुक्षि (उदर) नागराज शेष से आवेष्टित हैं तथा जो अपने शरीर की कान्ति से बालसूर्य की किरणावली को पराजित कर देते हैं, उन गणेशजी की मैं सदा शरण लेता हूँ ॥ २॥

शुकादिमौनिवन्दितं गकारवाच्यमक्षरं, 
                 प्रकाममिष्टदायिनं सकामनम्रपङ्क्तये ।
चकासनं चतुर्भुजैर्विकासिपद्मपूजितं 
                 प्रकाशितात्मतत्त्वकं नमाम्यहं गणाधिपम् ॥ ३॥

शुक आदि मौनावलम्बी महात्मा जिनकी वन्दना करते हैं; जो गकार से वाच्य, अविनाशी तथा सकामभाव लेकर चरणों में प्रणत होनेवाले भक्त-समूहों के लिये अभीष्ट वस्तु को देनेवाले हैं; चार भुजाएँ जिनकी शोभा बढ़ाती हैं; जो प्रफुल्ल कमल से पूजित होते हैं और आत्मतत्त्व के प्रकाशक हैं, उन गणाधिपति को मैं नमस्कार करता हूँ ॥ ३ ॥

नराधिपत्वदायकं स्वरादिलोकदायकं, 
                 जरादिरोगवारकं निराकृतासुरव्रजम् । 
कराम्बुजैर्धरन्सृणीन् विकारशून्यमानसै:,
                  हृदा सदा विभावितं मुदा नमामि विघ्नपम् ॥ ४॥

जो नरेशत्व प्रदान करनेवाले, स्वर्गादि लोकों के दाता, जरा आदि रोगों का निवारण करनेवाले तथा असुर समुदाय का संहार करनेवाले हैं; जो अपने करार विन्दों द्वारा अंकुश धारण करते हैं और निर्विकार चित्तवाले उपासक जिनका सदा ही मन के द्वारा ध्यान करते हैं, उन विघ्नपति को मैं सानन्द प्रणाम करता हूँ ।

श्रमापनोदनक्षमं समाहितान्तरात्मना,
                 समाधिभिः सदार्चितं क्षमानिधिं गणाधिपम्।
रमाधवादिपूजितं यमान्तकात्मसम्भवं, 
                        शमादिषड्गुणप्रदं नमामि तं विभूतये ॥५॥

जो सब प्रकार के श्रम या पीड़ा का निवारण करने में समर्थ हैं; एकाग्रचित्त वाले योगी के द्वारा सदा समाधि से पूजित हैं; क्षमा के सागर और गणों के अधिपति हैं; लक्ष्मीपति विष्णु आदि देवता जिनकी पूजा करते हैं; जो मृत्युंजय के आत्मज हैं तथा शम आदि छः गुणों के दाता हैं, उन गणेश को मैं ऐश्वर्यप्राप्ति के लिये नमस्कार करता हूँ ॥ ५ ॥

गणाधिपस्य पञ्चकं नृणामभीष्टदायकं,
                    प्रणामपूर्वकं जनाः पठन्ति ये मुदायुताः । 
भवन्ति ते विदाम्पुरः प्रगीतवैभवाः जना:,
                      चिरायुषोऽधिकश्रियः सुसूनवो न संशयः ॥ ६॥

यह 'गणाधिपपंचकस्तोत्र' मनुष्यों को अभीष्ट वस्तु प्रदान करनेवाला है। जो लोग प्रणामपूर्वक प्रसन्नता के साथ इसका पाठ करते हैं, वे विद्वानों के समक्ष अपने वैभव के लिये प्रशंसित होते हैं तथा दीर्घायु, अधिक श्री-सम्पत्ति से सम्पन्न और सुन्दर पुत्रवाले होते हैं; इसमें संशय नहीं है । 

॥ इति श्रीमच्छङ्कराचार्यकृतं श्रीगणाधिपस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

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