द्रारिद्रय का विनाशक एवं लक्ष्मी की प्राप्ति हेतु श्री उच्छिष्ट गणेश स्तवराज स्तोत्र

द्रारिद्रय का विनाशक एवं लक्ष्मी की प्राप्ति हेतु श्री उच्छिष्ट गणेश स्तवराज स्तोत्र

।। श्री उच्छिष्ट गणेश स्तवराज ।।

श्रीरुद्रयामलतन्त्रके अन्तर्गत हर-गौरीसंवाद में यह स्तोत्र हमें प्राप्त होता है । इस स्तोत्र में कुल बीस (20) श्लोक हैं जिनमें भगवान् गणेश से सर्वविध रक्षा के निमित्त प्रार्थना की गयी है । जो मनुष्य इस स्तोत्र का पाठ करता है या श्रवण करता है उसकी भगवान् गणेश सर्वविध रक्षा करते हैं तथा उसको धन, वैभव एवं ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है ।   

नमामि देवं सकलार्थदं तं सुवर्णवर्णं भुजगोपवीतम् ।
गजाननं भास्करमेकदन्तं लम्बोदरं वारिभवासनं च ॥१॥ 

मैं उन भगवान् गजानन की वन्दना करता हूँ, जो समस्त कामनाओं को पूर्ण करने वाले हैं, सुवर्ण तथा सूर्य के समान देदीप्यमान कान्ति से चमक रहे हैं, सर्प का यज्ञोपवीत धारण करते हैं, एकदन्त हैं, लम्बोदर हैं तथा कमल के आसन पर विराजमान हैं ।  

केयूरिणं हारकिरीटजुष्टं चतुर्भुजं पाशवराभयानि ।
सृणिं वहन्तं गणपं त्रिनेत्रं सचामरस्त्रीयुगलेन युक्तम् ॥२॥

मैं उन भगवान् गणपति की वन्दना करता हूँ, जो केयूर-हार-किरीट आदि आभूषणों से सुसज्जित हैं, चतुर्भुज हैं और अपने चार हाथों में पाश, अंकुश-वर और अभय मुद्रा को धारण करते हैं, जो तीन नेत्रों वाले हैं, जिन्हें दो स्त्रियाँ चॅवर डुलाती रहती हैं ।

षडक्षरात्मानमनल्पभूषं मुनीश्वरैर्भार्गवपूर्वकैश्च ।
संसेवितं देवमनाथकल्पं रूपं मनोज्ञं शरणं प्रपद्ये ॥३॥

मैं उन सुन्दरस्वरूप वाले, दीनप्रतिपालक भगवान् गणपति की शरण ग्रहण करता हूँ, जो षडक्षर मन्त्र (गं गणपतये) स्वरूप हैं, अनेक आभूषणों से सुसज्जित हैं तथा भार्गव आदि श्रेष्ठ मुनिश्वर जिनकी सेवा में संलग्न रहते हैं ।

वेदान्तवेद्यं जगतामधीशं देवादिवन्द्यं सुकृतैकगम्यम् ।
स्तम्बेमास्यं नवचन्द्रचूडं विनायकं तं शरणं प्रपद्ये ॥४॥

मैं उन भगवान् विनायक की शरण ग्रहण करता हूँ, जो वेदान्त में वर्णित परब्रह्म हैं, त्रिभुवन के अधिपति हैं, देवता-सिद्धादि से पूजित हैं, एकमात्र पुण्य से ही प्राप्त होते हैं और जिन गजानन के भालपर द्वितीया की चन्द्ररेखा सुशोभित रहती है ।

भवाख्यदावानलदह्यमानं  भक्तं स्वकीयं परिषिञ्चते यः । 
गण्डस्रुताम्भोभिरनन्यतुल्यं वन्दे गणेशं च तमोऽरिनेत्रम् ॥५॥

मैं उन भगवान् गणेश की वन्दना करता हूँ, जो संसार की दुःख- ज्वाला में जलते हुए अपने भक्त को स्वकीय मस्तक से बहते हुए जल की शीतलधारा से शान्ति प्रदान करते हैं, जिनकी महिमा अतुलनीय है और जिनके नेत्र अज्ञानरूपी अन्धकार के लिये शत्रुस्वरूप (प्रकाशस्वरूप) हैं ।

शिवस्य मौलाववलोक्य चन्द्रं सुशुण्डया मुग्धतया स्वकीयम् ।
भग्नं विषाणं परिभाव्य चित्ते आकृष्टचन्द्रो गणपोऽवतान्नः ॥६॥

चन्द्रमा की ओर आकृष्ट हुए वे भगवान् गणपति हमारी रक्षा करें, जो अपने टूटे हुए एक दाँत को मन में याद करते हुए (लीलापूर्वक) भगवान् शिव के मस्तक पर स्थित चन्द्रकला को देखकर अपनी मोहक सूंड से उसे खींचना चाहते हैं ।

पितुर्जटाजूटतटे विलोक्य भागीरथीं तत्र कुतूहलेन ।
विहर्तुकामः स महीध्रपुत्र्या निवारितः पातु सदा गजास्यः ॥७॥

पिता भगवान् शंकर की जटाओं में स्थित गंगा को देखकर कुतूहलपूर्वक उसमें विहार करने की इच्छा वाले वे गजानन हमारी सदा रक्षा करें, जिन्हें हिमालयपुत्री माता पार्वती ने ऐसा करने से रोक दिया था ।

लम्बोदरो देवकुमारसङ्गैः क्रीडन् कुमारं जितवान्निजेन ।
करेण चोत्तोल्य ननर्त रम्यं दन्तावलास्यो भयतः स पायात् ॥८॥

वे लम्बोदर हमारी समस्त भय से रक्षा करें, जो देवबालकों के साथ खेलते हुए कुमार षडानन को खेल में हराकर अपनी सूँड उठाकर दाँत दिखाते हुए सुन्दर नृत्य करने लगते हैं ।

आगत्य योच्चैर्हरिनाभिपद्यं ददर्श तत्राशु करेण तच्च ।
उध्दतुर्छन्विधिच्चाटुवाक्यं श्रुत्वा मुमोचावतु नो गणेश: ॥९॥

वे गणेश हमारी रक्षा करें, जो भगवान् विष्णु के नाभि में कमल को देखकर शीघ्रतापूर्वक वहाँ आकर अपनी सूँड से उसे उखाड़ने की इच्छा करते हैं किंतु ब्रह्मा की प्रशंसापूर्ण बात सुनकर उस लीला से विरत हो जाते हैं अर्थात् उस नाभिकमल को छोड़ देते हैं ।

निरन्तरं संस्कृतदानपट्टे लग्नां तु गुंजद् भ्रमरावलिं वै ।
तां श्रोत्रतालैरपसारयन्तं स्मरेद् गजास्यं निजहृत्सरोजे ॥१०॥ 

मैं अपने हृदयकमल में उन गजानन का स्मरण करता हूँ, जो अपने श्रेष्ठ गण्डस्थल से बहते हुए मदजल पर गूँजती हुई भँवरों की पंक्ति को अपने कान की फटकारसे उड़ाते रहते हैं ।

विश्वेशमौलिस्थितजह्नुकन्याजलं गृहीत्वा निजपुष्करेण ।
हरं सलीलं पितरं स्वकीयं प्रपूजयन्हस्तिमुखः स पायात् ॥११॥

भगवान् शंकर की जटाओं में स्थित जह्नुपुत्री गंगा के जल को अपनी सूँड में लेकर अपने पिता शिवशंकर पर लीलापूर्वक डालकर उनकी पूजा करने वाले वे गजानन हमारी रक्षा करें ।

स्तम्बेरमास्यं घुसृणाङ्गरागं सिन्दूरपूरारुणकान्तकुम्भम् ।
कुचन्दनाश्लिष्टकरं गणेशं ध्यायेत्स्वचित्ते सकलेष्टदं तम् ॥१२॥

जिनका मुख हाथी के समान है, जिनके शरीर पर केशर का अंगराग सुशोभित है, मस्तक पर अरुण वर्ण वाले सिन्दूर का लेप शोभायमान है और जिनकी सूँड कुचन्दन (रक्तचन्दन) से लिप्त है, समस्त मनो- कामना को देने वाले उन भगवान् गणेश का अपने हृदय में ध्यान करना चाहिये ।

स भीष्ममातुर्निजपुष्करेण जलं समादाय कुचौ स्वमातुः ।
प्रक्षालयामास षडास्यपीतौ स्वार्थं मुदेऽसौ कलभाननोऽस्तु ॥१३॥

षडानन कार्तिकेय द्वारा पिये गये अपनी माताके स्तनयुगल को स्वयं पीने से पूर्व जो अपनी सूँड में भीष्मजननी गंगा का जल लेकर ( समझकर) उसे धो लेते हैं, वे गजानन हमें प्रसन्नता प्रदान करें ।

तं वामनाङ्गं शिशुभावमाप्तं केनापि सत्कारणतो धरित्र्याम् ।
वक्तारमाद्यं निगमादिकानां लोकैकवन्द्यम् प्रणमामि विघ्नम् ॥१४॥

जो छोटे शरीर वाले हैं, किसी पुण्य के प्रभाव से इस धरित्री पर शिशु के रूप में प्रकट हुए हैं, वेदादि शास्त्रों के आदिप्रवक्ता हैं तथा समस्त लोकों के एकमात्र वन्दनीय हैं, उन विघ्नेश्वर को नमस्कार है ।

आलिङ्गितं चारुरुचा मृगाक्ष्या सम्भोगलोलं मदविह्वलाङ्गम् ।
विघ्नौघविध्वंसनसक्तमेकं नमामि कान्तं द्विरदाननं तम् ॥१५॥  

उन अद्वितीय कान्तस्वरूप भगवान् गजानन की मैं वन्दना करता हूँ, जिनके सौन्दर्य से मुग्ध मृगाक्षी देवसुन्दरियाँ उनके मदपूरित श्रीअंगों का आलिंगन करती हैं और जो विघ्न-समूहों को नष्ट करने में दत्तचित्त हैं ।

हेरम्ब उद्यद्रविकोटिकान्तः पञ्चाननेनापि विचुम्बितास्यः ।
मुनीन्सुरान्भक्तजनांश्च सर्वान् स पातु रथ्यासु सदा गजास्यः ॥१६॥  

वे भगवान् गजानन मुनियों, देवों और भक्तों की मार्ग आदि में सर्वत्र सदा रक्षा करें, जिनका गजमुख कोटि-सूर्यप्रभा से आलोकित है और भगवान् पंचानन शिव जिनके मुख का स्नेहपूर्वक चुम्बन करते हैं ।

द्वैपायनोक्तं सुविचार्य येन स्वदन्तकोट्या निखिलं लिखित्वा ।
दत्तं पुराणं सुतमिन्दुमौलेस्तमग्ग्रयरूपं मनसा स्मरामि ॥१७॥

जिन्होंने महर्षि व्यास द्वारा कहे गये पुराण को भलीभाँति विचार करके अपने दाँत की नोक से पूर्णरूप से लिखकर प्रदान किया, उन शशिशेखर भगवान् शिव के पुत्र, आदिरूप गणेशका मैं चित्तमें स्मरण करता हूँ ।

कीडाप्रवृत्ते जलधाविभास्ये वेलाजलेऽथाम्बुपतिः प्रभीतः ।
विचिन्त्य कस्येति सुरास्तदा तं विश्वेश्वरं वाग्भिरभिष्ट्वन्ति ॥१८ ॥

समुद्रतट पर खेलते हुए जिन गजमुख की परछाईं को जल में देखकर समुद्र भयभीत हो गया और चिन्तित होकर पूछने लगा कि यह किसको परछाईं है, तब देवता स्तोत्रों द्वारा उन विश्वेश्वर गणेश की स्तुति करने लगे ।

वाचां निमित्तं ह्यनिमित्तमाद्यं पदं त्रिलोक्यां निखिलस्तुतीनाम् ।
सर्वेश्च वन्द्यो न च तस्य वन्द्य: स्थाणोः परं रूपमसौ स पायात् ॥१९॥

जो समस्त ज्ञान के मूल कारण हैं, जिनका कोई कारण नहीं है, त्रिलोकी की समस्त स्तुतियों में जिनकी प्रथम वन्दना होती है, जो सभी के वन्द्य हैं, जिनका कोई वन्द्य नहीं है और जो स्थाणुरूप भगवान् शंकर के ही अपर रूप हैं, वे भगवान् गणेश हमारी रक्षा करें ।

इमां स्तुतिं यः पठतीह भक्त्या समाहितप्रीतिरतीव शुद्धः ।
संसेव्यते चेन्दिरया नितान्तं दारिद्र्यसङ्घं स विदारयेन्नः ॥२०॥ 

जो शुद्ध चित्त से भक्तिपूर्वक समाहित होकर अत्यन्त प्रेम से इस स्तोत्र का पाठ करता है, उसके यहाँ लक्ष्मी सदा निवास करती हैं । वे गणेश हमारे द्रारिद्र्य-समूह का विनाश करें ।

॥ इति श्रीरुद्रयामलतन्त्रे हरगौरीसंवादे श्रीउच्छिष्टगणेशस्तवराजः सम्पूर्णः ॥

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