About Puja
भारतीय संस्कृति में गाय का अति उत्कृष्ट स्थान तथा महत्व है, हमारे सुसभ्य समाज में गाय मातृवत् पूजनीया है। इस पूज्य भाव का कारण गाय के अनन्त लाभप्रद गुण ही हैं, इसीलिए हमारे ऋषि महर्षियों का उद्घोष है कि- गुणाः पूजास्थानं गुणिषु न लिङ्गं न च वयः ।
अर्थात् किसी की पूजा का एकमात्र कारण गुण ही होते हैं, गुणी व्यक्तियों की न आयु देखी जाती है और न लिङ्ग (चिन्ह) हीं। जिस प्रकार वैदिक साहित्य में पृथ्वी को माता कहा है, ठीक उसी प्रकार गाय को भी मातृपद पर प्रतिष्ठित किया गया है। गाय ही विश्व का एक मात्र ऐसा प्राणी है, जिसके देह से निःसृत (निकलने) होने वाला प्रत्येक विकार अत्यन्त उपादेय ही नहीं अपितु जीवनोपयोगी होने से बहुमूल्य भी है, जहाँ अन्य प्राणियों का मलमूत्र सर्वथा त्याज्य ही होता है। वहीं गाय का मूत्र एवं गोबर वातावरण को पवित्र करने वाला होता है। गोमय से लीपे गये गृह, प्राङ्गण आदि के सम्पर्क में आने वाले जीवन विरोधी क्षुद्र जीवाणु स्वतः ही नष्ट हो जाते हैं। अनेक रोगों का उपशमन करने की क्षमता गोमूत्र में अन्तर्निहित है। उदर विकार, एवं नेत्र आदि में गोमूत्र अत्यन्त ही लाभप्रद है, इसीलिए हमारे ऋषि महषियों ने अपनी सूक्ष्मेक्षिका बुद्धि के द्वारा सघन विचारकर गाय को महनीय पद पर प्रतिष्ठित किया है।
गाय जहाँ हमारी भौतिक उन्नति की साधिका है,वहीं अध्यात्म पथ को भी प्रसस्त करती है, इसी उद्देश्य से भगवती श्रुति कहती हैं कि - "धेनुः सदनं रयीणाम्" तथा "गावो विश्वस्य मातरः" अर्थात् गाय धन का भण्डार है तथा गाय समग्र विश्व की माता है। इसी भाव को दृष्टिगत् करते हुए वेदों में गाय को 'अघ्न्या ' अर्थात् अबध्य कहा है - नमस्ते जायमानायै..........ब्रह्मणाच्छावदामासि। अर्थात् हे अवध्य गो मातः ! जब आपकी उत्पत्ति होती है, उस समय भी आप प्रणम्य हैं तथा उत्पन्न होने के अनन्तर भी आपको हमारा प्रणाम है, आपके शरीर खुर आदि अवयव एवं आपके शरीर में विद्यमान अनन्त रोमों को प्रणाम, आपके द्वारा ही द्युलोक,भूलोक एवं जल आदि सुरक्षित रहते हैं। हे दुग्धधारा प्रवाहित करने वाली गोमात: हम वेद के माध्यम से आपकी स्तुति करते हैं।
कश्यप संहिता के अनुसार गो दुग्ध से बढकर आयु की वृद्धि करने वाला कोई दूसरा आहार नही है। गो महिमा का वर्णन करते हुए अग्निपुराण में कहा गया है कि - गाव: पवित्रा: माङ्गल्या: गोषु लोका प्रतिष्ठिताः। अर्थात् गाय अतीव पवित्र एवं मङ्गल करने वाली हैं तथा गायों में ही समस्त लोकों की प्रतिष्ठा है।
इसी आशय से सत्य सनातन संस्कृति एवं वैदिक वाङ्मय में गाय के शरीर में समस्त देवताओं का निवास बताया गया है। ब्रह्माण्ड पुराण में तो गोमाता को विष्णु स्वरुपा ही माना गया है। गाय के समस्त अवयवों में भगवान् गोविन्द विराजमान हैं, जहाँ गाय को सर्वदेवमयी बताया गया है वहीं वेद को सर्व गोमय कहा गया है। विष्णु के साक्षात् शरीर से ही गाय की उत्पत्ति हुई है। यह कथन स्कन्द पुराण में प्राप्त होता है।
अन्यत्र शास्त्रों में कहा गया है, कि गाय एवं सत्कर्म परायण ब्राह्मणों का एक ही कुल है, जो लोक में दो भागों में प्रतिष्ठित है, एक भाग में मन्त्र विद्यमान है तो दूसरे भाग में यज्ञीय हवि प्रतिष्ठित है। गाय के स्पर्श एवं नमन से समस्त पाप नष्ट हो जाते हैं । यह पद्म पुराण की उक्ति है। गाय की परिक्रमा एवं प्रणाम करने से मनुष्य पाप निर्मुक्त होकर स्वर्गीय फल का उपभोग करता है। गायों की सात परिक्रमा करने से देवगुरु बृहस्पति सभी के वन्दनीय हुए, वहीं भगवान् माधव श्रीकृष्ण सबके पूज्य एवं इन्द्र महान् ऐश्वर्यवान् गो सेवा के द्वारा ही हुए । पद्मपुराण के अनुसार गाय एवं मनुष्य को परस्पर बन्धु कहा गया है, गाय से रहित, बन्धुशून्य ही होता है। महाभारत के अनुसार जो पुरुष गोमाता, अबला स्त्री, गुरु एवं ब्राह्मण की रक्षा के लिए अपना प्राण भी समर्पित करते हैं वे मनुष्य स्वर्ग के अधिकारी होते हैं।
गोमांस भक्षी को अनन्त काल तक नारकीय यातना अवश्यमेव भोगनी पड़ती हैं। गोदान के अनन्त पुण्य से सात पीढियों का उद्धार हो जाता है। गाय दूध एवं घृत आदि के द्वारा प्रजा का पालन करती हैं, वहीं वृषभों के द्वारा कृषि-कर्म सम्पन्न किया जाता है। मनुस्मृति के अनुसार गाय को कष्ट देने वाला मनुष्य अङ्ग भङ्ग करने योग्य होता है। जगद्गुरु शङ्कराचार्य के अनुसार हमारा अस्तित्व गायों की ही कृपा से है- "यतो गावस्ततो वयम्" भारत में जब तक गोमाता पूर्णतः सुरक्षित थी तब तक भारतवर्ष विश्व का आदर्श था और जब से गोसम्पद् का ह्रास होने लगा तभी से भारतवर्ष का गौरव भी कम होने लगा।
पूज्यपाद करपात्र स्वामी जी महराज का कथन है कि बूढी, लगड़ी, रोगिणी एवं दूध न देने वाली चाहे किसी भी प्रकार की गऊ हो उसको बेचना या उसकी उपेक्षा करना महापाप है। सर्वविध से आदर पूर्वक उनकी रक्षा,सेवा एवं पूजा, कुटुम्ब समाज और राष्ट्र का मङ्गल करने वाली होती है।
Benefits
गोदान माहात्म्य एवं अधिकार:-
- श्रीमद्भगवद्गीता में यज्ञ एवं दान का महत्व विशेषरूप से प्रतिपादित किया गया है। यज्ञ एवं तप भारतीय संस्कृति के अभिन्न अङ्ग हैं। यज्ञ एवं तप के साथ दान की धारा मिलकर त्रिवेणी के रूप में अनन्त काल से प्रवाहित हो रही है, अन्य मतावलम्बियों के मत में भी दान का विशेष महत्व बताया गया है, यज्ञ दान एवं तप के द्वारा मनुष्य की वाह्य एवं आन्तरिक शुद्धि होती है। इसी भाव से भगवान् श्रीकृष्णने भगवद्गीता में कहा है - "यज्ञो दानंतपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्"
अर्थात् यज्ञ, दान एवं तप मनीषियों को भी पवित्र करने वाले होते हैं। अत: फलासक्ति रहित होकर निष्काम भाव से सदैव दान आदि सत्कर्म मनुष्य को करना ही चाहिए, यही मेरा निश्चय किया हुआ उत्तम मत है।
- सभी वर्गों को दान करने का समान रूप से अधिकार है, निष्कामभाव से किया गया दान सात्विक दान की श्रेणी में आता है। जो शास्त्रीय नियमानुसार दान लेने का अधिकारी है उसी को दान देना चाहिए। प्रत्युपकार की भावना से किया गया दान पुण्यजनक नहीं होता। जो दान देश,काल, अथवा पात्र का विचार न करके अपात्र व्यक्ति को दान दिया जाता है वह निम्न कोटि का दान माना गया है । अतएव इसे तामसी श्रेणी में रखा गया है। बडे से बडे कष्टों का निवारण भी देश, काल एवं पात्र का विचार करके दिये गये दान से होता है। दूध देने वाली गाय का दान महान फलदायक होता है, कठोपनिषद् में नचिकेतोपाख्यान के प्रकरण में गोदान की महिमा का वर्णन उपलब्ध होता है। तैत्तिरीय उपनिषद् में दान की महिमा एवं विधि का प्रतिपादन विस्तार पूर्वक किया गया है।
- सनातन संस्कृति में दान किसी अन्य सत्कर्म का विकल्प नही है, अपितु स्वतन्त्र रूप से अवश्य कर्तव्य सत्कर्म की श्रेणी में आता है। जिस व्यक्ति को दान दिया जाता है, उससे किसी प्रकार की अपेक्षा दानदाता को नहीं करनी चाहिए और न किसी विशेष फल की प्राप्ति के लिए भी दान करना चाहिए। अपितु यह मेरा मानवीय कर्तव्य है, जो वेद भगवान् के द्वारा निर्दिष्ट हमारा सत्कर्म है, इस भावना के साथ ही विद्वान् कर्मकाण्डी ब्रह्मण अथवा सदाचारी किसी सुपात्र को दान देना चाहिए। सत्विक विधि से किया गया दान प्राणी को समस्त पापों से मुक्त कर देता है। दान विधान में श्रद्धा का भाव अवश्य ही होना चाहिए, इसीलिए वैदिक वाङ्मय में कहा गया है, कि - 'श्रद्धया देयम्' अर्थात् श्रद्धापूर्वक ही दिया गया दान पुण्यजनक होता है। अश्रद्धा से दिया गया दान निम्न श्रेणी में परिगणित होता है।
- दानदाता के हृदय में अहं भाव का प्रादुर्भाव कदापि नही होना चाहिए। दान देते समय लज्जा की ही अनुभूति दाता को होनी चाहिए, अर्थात् मै जो दे रहा हूं वह अति अल्प ही है। इस भावना से किया गया दान अहंकार का विघातक होने के साथ ही अनन्त फलदायी होता है। इसी भाव से कहा गया है कि "ह्रिया देयम्" सामर्थ्य होने पर भी यदि दान नहीं दिया जाएँ तो निश्चय ही वह अपने कर्म से विमुखता का ही द्योतक (परिचायक) होता है और कर्म विमुखता की जननी होती है। इसी आशय को दृष्टिगत् करते हुए ऋषियों ने कहा "भिया देयम्" अर्थात् कर्तव्यपराङ्मुखता का दोष हमे न हो इस भय की भावना के साथ भी दान कर्म किया जाना चाहिए। किसी भी वर्ण अथवा आश्रम का व्यक्ति यदि सदाचार सम्पन्न हैं किन्तु वह किसी प्रकार के अभाव से ग्रस्त है तो उसे दिया गया दान भी अत्यन्त महत्वपूर्ण होता है। दान की महत्ता को अभिलक्षित कर हमारे शास्त्रों में दान की अवश्य कर्तव्यता पर विस्तृत रूप से प्रकाश डाला गया है।
- गौ मनुष्यों के जीवन का अवलम्ब है, गौ कल्याण का परमनिधान है; पहले के लोगों का ऐश्वर्य गौ पर अवलम्बित था, आगे की उन्नति भी गौ पर अवलम्बित है, गौ ही सर्वदा पुष्टि का साधन है।
- "यतो गावस्ततो वयम्" गौएँ हैं, इसी से हम भारतीयों का अस्तित्व है।
- 'गावः स्वस्तयनं महत' (गौ मङ्गल का परम निधान है) वैधृति, व्यतिपात एवं आमावश्या जैसे अशुभ काल में यदि किसी बालक का जन्म होता है तो गोप्रसव शान्तियज्ञ के द्वारा उसके दोषों को दूर किया जाता है, यह धर्मशास्त्र का विधान है।
गोभिर्विप्रैश्च वेदैश्च सतीभिः सत्यवादिभिः ।
अलुब्धैर्दानशीलैश्च सप्तभिर्धार्यते मही ।।
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गौ, ब्राह्मण, वेद, पतिव्रता स्त्री, सत्यवादी, निर्लोभी पुरुष तथा दानशील धनी - इन सातों ने पृथ्वी को धारण कर रखा है।
Process
गो एवं गोदान में होने वाले प्रयोग या विधि:-
- स्वस्तिवाचन एवं शान्तिपाठ
- प्रतिज्ञा सङ्कल्प
- गणपति गौरी पूजन
- कलश स्थापन वरुणादि
- देवताओं का पूजन
- ब्राह्मण वरण सङ्कल्प
- गो प्रोक्षण
- गो सर्वाङ्ग में देवताओं का ध्यान एवं सर्वविध पूजन
- शृङ्गभूषार्थं स्वर्णशृङ्गम्
- चरणभूषणार्थं रजतखुर
- गलभूषार्थं घटा,
- दोहनार्थं कांस्य पात्रम्
- सर्वालङ्कारार्थं यथाशक्ति द्रव्यं
- गोपुच्छ तर्पण
- गोदान सङ्कल्प
- प्रतिष्ठा सङ्कल्प
- वत्स सहित गाय की चार प्रदक्षिणा
- गौ अभिवादन
- गाय के दक्षिण कान में मन्त्रपाठ
- गोपुच्छ के जल से अभिषेक
- रक्षासूत्र बन्धन
- तिलक करण परस्पर
- ब्राह्मणद्वारा आशीर्वाद
- विनियोग एवं अर्ध्य प्रदान सूर्यनारायण को
- आरती, प्रसाद ग्रहण
- क्षमा प्रार्थना
Puja Samagri
वैकुण्ठ के द्वारा दी जाने वाली पूजन सामग्री:-
- रोली, कलावा
- सिन्दूर, लवङ्ग
- इलाइची, सुपारी
- हल्दी, अबीर
- गुलाल, अभ्रक
- गङ्गाजल, गुलाबजल
- इत्र, शहद
- धूपबत्ती,रुईबत्ती, रुई
- यज्ञोपवीत, पीला सरसों
- देशी घी, कपूर
- माचिस, जौ
- दोना बड़ा साइज,पञ्चमेवा
- सफेद चन्दन, लाल चन्दन
- अष्टगन्ध चन्दन, गरी गोला
- चावल(छोटा वाला), दीपक मिट्टी का
- \सप्तमृत्तिका
- सप्तधान्य, सर्वोषधि
- पञ्चरत्न, मिश्री
- पीला कपड़ा सूती
यजमान के द्वारा की जाने वाली व्यवस्था:-
- वेदी निर्माण के लिए चौकी 2/2 का - 1
- गाय का दूध - 100ML
- दही - 50ML
- मिष्ठान्न आवश्यकतानुसार
- फल विभिन्न प्रकार ( आवश्यकतानुसार )
- दूर्वादल (घास ) - 1मुठ
- पान का पत्ता - 07
- पुष्प विभिन्न प्रकार - 2 kg
- पुष्पमाला - 7 ( विभिन्न प्रकार का)
- आम का पल्लव - 2
- विल्वपत्र - 21
- तुलसी पत्र -7
- शमी पत्र एवं पुष्प
- थाली - 2 , कटोरी - 5 ,लोटा - 2 , चम्मच - 2 आदि
- अखण्ड दीपक -1
- देवताओं के लिए वस्त्र - गमछा , धोती आदि
- बैठने हेतु दरी,चादर,आसन
- पानी वाला नारियल
- तांबा या पीतल का कलश ढक्कन सहित
- गोदुग्ध,गोदधि,गोबर